कामारि के कांवड़


़जिन महीनों में चारों ओर जल ही जल होता है,...ऐन उन्हीं दिनों गंगाजल लेकर कांवड़ों की लहरें गांव-लहरों पर हिलोरें मारकर चप्पा-चप्पा भूमि को शिवमय बना देती है। बस-कारों में बैठे साब लोग नाक-सौ सिकोड़ते हैं/अंग्रेजी मैगजीनें और बायाँ-हत्था बुद्धिजीवी पानी पी-पीकर कांवड़ों को कोसते हैं। राष्ट्र की आधारभूत शैक्षिक व्यवस्था का अंग्रेजीकरण और मीडिया की सेकुलर धुन सुनते हुये कुछ क्लीव नागरिकों ने अपनी सांस्कृतिक छटाओं को पहचानने से ही इनकार कर दिया है। धर्म और आत्मतव व्यक्तिगत कार्यकर्म भले ही हों परन्तु भावना का एक बहिअंग भी होता है। शिव जैसे बिंदास देव से समाज का जैस जुड़ाव है उसी कारण शैव दर्शन की बहुआयामी अभिव्यक्ति का यह लोकपक्ष जन-जन को आह्लादित करता है...प्रत्येक वर्ष निकलने वाला कांवड़ों का यह सैलाब उन लोगों के लिये भारतीय समाज का एक उत्तर भी है जो सोचते हैं कि वे नुक्कड़ नाटकों रंगमंच और सिनेमा द्वारा जनमानस को लाल जादू से वशीभूत कर सकते हैं। साधारण से दिखने वाले समाज को काटने-पीटने का सेकुलर सपना इस सावन के महीने में शिवभक्तों की हुंकार से बिखर-बिखर जाता है, विवश सेकुलर अखबार कांवड़ों को गरियाने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकते हैं।
पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह ने अपने एक निबन्ध में काम को भस्म करने वाले कामारि अर्थात् शिव की बड़ी रोचक व्याख्या की है। काम कामना या इच्छा के कारण ही इस सृष्टि के भौतिक-व्यापार ख्लते हैं-इसी कामना को बुद्ध ने दुःख का मूल कहा है। फ्रायड काम को केवल यौनकर्म से जोड़ता है। परन्तु उसने भी काम को त्रासद कहा है...इसी काम को हमारे शिव ने भस्म कर डाला...इस कथा के पीछे शिव के अर्थ छुपे हैं लोक-दृष्टान्त के इसी शिल्प पर वह कामारि उल्टे उन्हीं संसारियों को प्रिय देवता है, जिनके जीवन के केन्द्र में ही काम हैं इच्छायें हैं लोभ है ईर्ष्या है...परन्तु भारत के समाज को देखिये कि वह अपने अन्दर के इन विषों को न केवल चीह्नता है बल्कि वह उसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर अपना धतूरा अपनी दुनियां के काल्पनिक नशे और काम के प्रतीक उस जल को उस भूतनाथ को अर्पित कर तृप्त होता है अपने मन से इच्छाओं की भीड़ की छंटनी करता है रमेश जी एक प्रश्न की अर्पण शिव को करते हैं मैने उनके इस निर्माल्य को उनके एक लेख से उठाकर माथे से लगाया है। ''पूर्ण काम होकर कामना से मुक्ति मिल सकती है या फिर निष्काम होकर' रमेश जी जानते हैं कि ये दोनों बातें एक ही प्रश्न के दो छोर है। जिसकी समस्त इच्छायें पूर्ण हो चुकी है वह पूर्णकाल भी शिव है जिसके मन में कोई इच्छा ही नहीं है वह निष्काम भी शिव है इसी कारण रमेश जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि काम-निरपेक्ष है, वही शिव है और इसी कारण शिव ने कभी अवतार नहीं लिये क्योंकि अवतार लेना कर्म से जुड़ा है, कामना से जुड़ा है। अन्त में लेखक ने आश्चर्य व्यक्त किया है कि इच्छाओं के पार जा चुका यह शिव फिर सती के दहन पर इतना रूष्ट क्यों हैं? क्यों वह बच्चों की तरह सती की मृत देह लेकर विलाप कर रहा है...इसका उत्तर तो स्वयं शिव ही दे सकते हैं, उनकी लीला वही जानें यही जानने तो कांवड़ लोग मीलों चलकर उनकी प्रिय गंगा का जल कंधे पर उठाकर गांव-गांव लाते हैं कि बाबा नहायें और कुछ बोलें क्योंकि लोगों के प्रश्न बहुत हैं और देवता एक है, और वह भी साधनहीन गृहस्थ...परन्तु वही गृहस्थी उसका राजसिंहासन है। आम भारतीय समाज की तरह अपनी मिट्टी से उठकर कैलाश शिखरों तक पहुँचने वाला अपराजेय योद्धा है। शिरीष की सूखी छिम्मियों से तुलना करते हुये आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी शिव का रूपक भजते हैं...जरा सी हवा चलने पर ये सूखी छिम्मियां अस्थिमालिका वाले कापालिक भैरव की भांति खड़खड़ाकर झूम उठती हैं, शिव कहां नहीं है।
शिव जैसे महाकाल को संसार ने सती को देह लिये बच्चों की तरह बिलखते देखा। मंगल के देवता का यह विलाप अपनी कामना के कारण नहीं बल्कि शिव से शक्ति के अलग होने का विलाप था। संसार यदि बिना स्त्री के होता तो मरघट की तरह होता, स्त्री ने अपनी शक्ति से इस शव रूपी पुरूष को शिव बनाया, इस संसार को गतिमान रखने का कारण दिया...शिव उस दिन सती के मृत होने पर इसीलिये बिलख रहे थे कि उनकी गृहस्थी बिखर गई थी। तभी तो संसार अपने शिव के साथ रो पड़ा...जहाँ-जहाँ माँ-सती के अंग गिरे लोगों ने अपने शरीर तोड़कर आत्मा की चादरें तान दी...उस शक्ति की स्मृति में चौसठ शक्ति पीठों का निर्माण हुआ...संसार के उन शक्ति केन्द्रों से ऊर्जायें उठकर पुनः अपने शिव से मिलकर पूर्ण हो गयीं...उसका पुनर्जन्म हुआ...वह पार्वती बनकर शिव के वामांग में बैठ भारतीय परिवारों का आदर्श बनी...भेलेनाथ एक आदर्श पति हैं...अनुशासन प्रिय हैं, क्रुद्ध हो जायं तो त्राहि-त्राहि और भोलापन देखिये कि लोग धतूरा जैसे गुणहीन पुष्प चढ़ाते हैं तो भेलेबाबा उनके आकार के कारण ही तृप्त। रावणों, असुरों तक को रिद्धि-सिद्धियां बांट दी और अपने लिये एक छत तक नहीं। समस्त सत्ता के स्वामी का एक मृगछाला से ही ओढ़ना बिछाना करना असल में भारत राष्ट्र का असली स्वभाव था इसीलिये विज्ञापनों सामानों को जीवन समझने वाले कालेजिया बच्चे इन कांवड़ों को चिड़ियाघर के जन्तुओं की तरह आश्चर्य से देखते हैं। शिव मन्दिर के लिये क्या चाहिये...चार-पठाल एक गंगलोड़ा, त्रिशूल के नाम पर लोहे की तीन फांक वाली आकृति है। हां, भरी गगरी अवश्य चाहिये। इसीलिये यहां पहाड़ों में जहां से सदा सलिला मां गंगा का अवतरण हुआ, वहां जल-संकट के कारण लोगों ने शिवालयों को धारे नौलों के निकट ही बनाया है...पहाड़ का प्रत्येक छोया, गंगा ही है। बचपन से देखता था स्त्रियां मुंह अंधेरे नहाकर बाबा को जलाभिषेक कर के ही चूल्हे में प्रवेश करती थीं। आज की स्त्री साइबर इंटरनेट की दुनिया में गहरे उतर चुकी है, वह अधिकार और आवश्यकता जानती है, आस्था को भूल चुकी है, इसीलिये गृहस्थियां उजड़ रही हैं...भोलेनाथ जिनकी पार्वती है, जिसके कार्तिकेय और गणेश है, नन्दी है, सर्प है, मूसक है, उनकी गृहस्थी के पीछे पड़कर जिस सभ्यता और जिस विचार धारा ने हमारे भैंरों, हमारे ग्रामदेवता को वीरान-उजाड़ करने की बीड़ा उठा रखा है....कांवड़ उन्हीं लोगों की आंखों में चुभते हैं। सावन के महीने में लगता है कि शिव बाबा जैसे कहीं विदेश से कमा-धमा के घर लौट रहे हों, यह हर्षोल्लास उस रूद्र का है जो भय का भी पर्याय है, जो मंगल का अधिपति है, जो साधारण संसारी की तरह अपनी गृहस्थी में रमा हुआ है जो जीवन और मृत्यु के बीच तने हुये तार पर हमारी तरह डर-डर कर नहीं बल्कि कुशल नर्तक की तरह नटराज बन नाच रहा है, नचा रहा है। अन्य देवी-देवताओं पर लोग धूप बत्ती, अर्ध्य-आरती, पंचगव्य, चरणामृत चढ़ाते हैं। साड़ी, मुकुट और न जाने कैसे-कैसे विग्रह रचे संवारे जाते हैं। एक अपना शशि धर...नल से ठंडेपानी का लोटा लिया और सीधे कपाल में...पर वह करूणानिधान, इतना सरल, ऐसा ऋजुमन...उतने से ही तृप्त प्रसन्न होता रहा है। जल, काम का प्रतीक है, मनुष्य की देह में काम का यह जल ही कामना का जन्मभूमि है, इसी को शिव ने उस समय भस्म किया जब वह समाज को उन्मादित कर अराजक बना रहा था। शिव ने पार्वती को वामांग में स्थापित कर काम को शरीर का उपकरण बनाया, पार्वती नन्दी और तिर्यक वर्ग को शामिल कर गृहस्थी का रोल माडल प्रस्तुत किया। काम और उसके उन्मादित जल को अपने श्री चरणों का दास बनाकर मर्यादा स्थापित की। काम और  कामना रूपी जल शिव के आशीर्वाद से गंगाजल बनकर पूज्य बन गया। सावन भादों की उफानमयी वर्षाऋतु जब कि समस्त सृष्टि में काम व्यापार अपने चरम पर होता है, असंख्य जीव जन्तु वनस्पतियां धरती की कोख से कामोत्पादन का जयघोष करती हुयी वातावरण को आकुल करती हैं, तब भला मनुष्य कैसे शांत रह सकता है। इसी कारण गंगा का दृष्टान्त रचा गया है। मनीषियों ने समाज को आदेश दिया कि अपने अन्दर के उस काम जल को यदि मर्यादित कर अपने अश्व को शिव मार्ग पर चलने की ट्रेनिंग करवाये, तभी यह शरीर प्रकृति के साथ लय मिलायेगा...और आप कांवड़ों के उस जयघोष पर आपत्ति कर रहे हैं। आप शिवभक्तों की लय पर ताक-घिन करने की बजाय उन्हें साब लोगों की विदेशी गाड़ियों से बचने की सलाह दे रहे हैं। मां-गंगा के पवित्र जल को बिना जमीन पर रखे गांव-गांव तक पहुँचाने वाले इन गैरिक भगीरथों को यातायात के नियम सिखा रहे हैं। तो बन्धु! अराजक आप हैं जो भारतीय समाज की इस नियमबद्ध धर्मयात्रा पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। वैसे कांवड़ियों के जत्थों को भी गाजरूक रहना होगा क्योंकि उग्रवाद और विधर्मी विनाशक बुद्धिजीवी शिवभक्तों को बदनाम करने के कई कार्यक्रम तैयार करते हैं। शिव महाराज भले ही कैलाश में हों, कई भूत प्रेत इस देश में हैं, जो शिवभक्तों की इस विशाल ऊर्जा का अर्थ जानकर इस यात्रापथ की दृढ़ता और संयम से डरे हुये हैं। वैसे यह भी सच है कि गंगा को कंधों पर उठाये कुछ युवक अपने इन धार्मिक विशेषाधिकारों की धौंस में पूरे यात्रा-विचार को प्रदूषित करते हैं और कुछ असामाजिक तत्व भी भोले-भंडारी की आड़ में अभद्रतायें कर रहे हैं, उनकी शल्य चिकित्सा हमारे व्यवस्थापक स्वयं करेंगे।
हिन्दू धर्म की ऊर्जा से भरी इन युवा धमनियों का सदुपयोग करने की योग्यता आज की व्यवस्थाओं में नहीं है। यही ऊर्जा यह शक्ति यह जयघोष यदि राष्ट्र निर्माण की ओर मोड़ा जाय तो हम पुनः बंजर हो रहे खेतों को सोने की बालियों में बदल सकते हैं। ये मुट्ठियां धातुयें पिघलाकर कर्मयोग का महालय स्थापित कर सकती हैं। यदि आप दूसरे धर्म के लोगों को हवाई जहाज में बकरे सप्लाई करवा सकते हो, उनकी संख्या को भक्ति चित्र बनाकर अपने अखबारों के पृष्ठ रंग सकते हो, उनकी यात्राओं के लिये आठों-याम चौकीदार की तरह अपने सूचना तन्त्र को थोबड़ा खुला रख सकते हो....तो कावंड़ों के लिये कम से कम एक माह इस सावन के महीने अपने घोड़े-गाड़ी जरा दूसरे रास्तों को तो मोड़ सकते हो। अरे चतुर्मास है...घर में बैठे रहो...बिना शासन की सहायता के शिव सहारे चलने वाली इस कांवड़ यात्रा में यदि दो चार-झड़पें होती भी हैं...तो इसे शिव का ही प्रसाद समझो...शिव की तरंग में यदि कोई अलख निरंजन आपका रास्ता रोकता है....तो कौन बड़ी बात है...अपने देश में तो निरपराध लोगों के परखचे उड़ाने वालों को भी जब शासन का आतिथ्य मिलता था...तो आखिर कांवड़ की अकड़ इतना बड़ा अपराध तो नहीं, कोई राष्ट्रद्रोह तो नहीं....उसे अपने रास्ते जाने दो...उसके कंधे पर गंगा बैठी है। वह अपने शिव को नहलाने आर्यावर्त के घर-घर जाने का उद्यम कर रही है। हमें इस प्रचंड शक्ति का प्रवाह कश्मीर जैसी शैव-दर्शन की उर्वरा भमि की ओर भी मोड़ना चाहिये, वहां के अनेक शिव मन्दिर गंगाजल की प्रतीक्षा में सदियों से बैठे हैं। करोड़ों कांवड़िये जिस दिन शैव-आार्यो की इस घाटी में प्रवेश करेंगे...उस दिन संविधान की सभी धारायें...गंगा की धारायें बन जायेंगी।