सड़कछाप संस्कृति


बन्दर अब करेले और भिन्डियां भी नहीं छोड़ते, यहां तक कि बन्दर अब अन्डे भी फोड़कर खाने लगे हैं। बस्ती के पास ही जो शाल का जंगल है, उसकी दृश्यावली राजपुर रोड की जमीन की कीमत भले ही बढ़़ा रही हो, उन दृश्यों से पशु-पक्षियों के पेट नहीं भरते और इसलिये बन्दरों का आतंक छोटे-बड़े शहरों-कस्बों में बढ़ रहा है। पेट की आग से आग बबूला हो रहे, यह भोले जानवर पानी की टंकी ऐन्टीना यानि जो भी चीज हिलायी, तोड़ी जा सके उसे हिला तोड़कर समाज की बदलती जा रही दृष्टि और निष्ठुर जीवन शैली पर अपना गुस्सा उतारते हैं।
मुझे अपने गांव में बिताये बचपन की याद आती है। हमारी चाची जब जंगल से घास का गट्ठर लेकर आती थी तो सारे बच्चे उसे घेर लेते थे। घास के बीच में मालू की टांटी फली लेकर बच्चे उसे तलवार की तरह भांजते थे, मालू का पत्ता दोने-पत्तल के काम आता है तथा इसका लैग्यूम (टांटी) जो कि चप्पल जितने आकार की चपटी फली होती है, उसके कोट'बटन आकार के बीज भूनकर और भी स्वादिष्ट होते है। चाची अपनी कमर में कभी आंवले करौंदे किनगोड़ मेलू अनेक लंगूर के अलावा कई वन्य प्राणी पक्षी आश्रित होते हैं। परन्तु अब राम मलिक हैं...एक नये तरह के विकास के लिये हमने अपने ग्राम्य जीवन और प्रकृति के साथ जो छेड़-छाड़ की है, वह दूसरे ढंग से हमारे जीवन को बाधित करेगी-जैसे चित्र-विचित्र पेड़ जंगलों में नजर आने लगे हैं वे न ग्रामीणों के मतलब के है न वन्य जीवों के ऐसे निकम्मे पेड़ हमारे नीति-निर्धारकों ने केवल अपनी फाइलों को हरा-भरा करने के लिये हमारे जीवन में रोप दिये हैं-दूसरा नुकसान लैन्टाना झाड़ी कर रही है, जो यदि इसी गति से पसरती रही तो तूंगा काफल किनगोड़ करौंदा हीसर जैसी प्रजातियां लुप्त हो जायेंगी।
सड़के जो कि सुविधा के नाम पर पहाड़ों में बिछाई जा रही है, वह गांवों को एक लंगटी संस्कृति की ओर ले जा रही है। हमारे रमणीक सीढ़ीनुमा केदारों की छाती पर रेंगता सड़कों का सर्प आंचलिकता को डसता है। देवप्रयाग से पौड़ी जाती सड़क के बीच पड़ते अपने गांव पिछले दिनों मैं गया, तो बस से उतरकर मैं यह नहीं पहचान सका कि मैं गांव के किस भाग पर खड़ा हूं। चारो तरफ जो बच्चे बस से उतरती सवारियों को ताक रहे थे, वे हमारे समय के अधनंगे संतराज बहती नाकवाले भोले बाल-गोपाल नहीं थे। उनके हाथ में क्रिकेट के बल्ले थे, सिर पर सदर बाजार वाली नाइकी की टोपियां चुंधियाते जूते...सभी बच्चे बस के जाने के इंतजार कर रहे थे, ताकि उनका अधूरा ओवर पूरा हो सके। मुझे जब चाचा जी के लड़के ने बताया कि मैं अपने मकान के ठीक पीछे खड़ा हूं तो मैं आश्चर्य में पड़ गया जिस जगह पालक राई मूली की काली क्यारियां होती थी वहाँ सड़क का मलवा पड़ा था, दशहरी के दो पेड़ गेंठी आडू के स्थान पर ईंट सरिया पड़ा हुआ था। विशाल डबरी का वह भूखण्ड जिस पर हम गाय चुगाते थे, उसे सड़क के मोड़ निगल चुके थे। नीम्बू डाली वाला पूरा खेत अदृश्य हो चुका था। गांवों में सड़क एक लुच्ची किस्म की राजनीति का भी सूत्रपात करती है। छुटर्भये नेता सड़कों को ऐसे घुमाते हैं कि उनकी जमीने खेत सड़क के किनारे पड़कर मंहगे हो जायें और जिसका पूछने वाला न हो उसकी जमीन सड़क में दबा दी जाती है। लिम्बै-डाली वाले उस खेत को जोतने में दो दिन लगते थे- हलिया भाई के 'रा-रा ढांगी बच-बच' के श्रम स्वर बचपन से मेरे कानों को मीठे लगते थे....उन स्वरों का स्मरण आते ही बचपन का गांव साकार हो गया। चिचन्डे की बेल, ककड़ी की लम्बाई नापती व्यग्र आंखे, छज्जे पे लटकी तोरी तोमड़ी, खपरैलों मे ंभक्तों की तरह बैठे बड़े-बड़े पीले कद्दू जो कई तरह से उदर-व्यवस्था को चालू रखने के काम आते थे, वे अब लुप्त हो चुके थे। गोबर गोसे की जगह गुटखे खैनी के चमकदार कचड़े ने ले ली है- मैं ऊपर तिमंजिले के रसोई दालान में चढ़ गया, चूल्हा मृत भूत की तरह अंधकार में लेटा था, क्योंकि चचेरा भाई का परिवार नीचे गैस में कुकिंग करने लगा है। मैने टूटी हुई खिड़की से छज्जे में रखे तुलसी बाड़े को सहलाया उसे मरे न जाने कितने बरस हो चुके थे। इसी खिड़की से अर्ध्य देते हुये मां ताई परिवार का संचालन करती थीं, आंखे डबडबा गयी। ग्रामीण अंचलों का वह अनछुआ जीवन, दरांती घिसने के पठाल, धारे पंदेरे की दीवालों में खूंसे हुये घसियारियों के कपड़े छुपाकर रखे हुये दुल्हनों के खुश्बूदार साबुन और अधोवस्त्र और हमारे वे सुरक्षित जंगल जहां पहाड़ों की बहू बेटियां ऐसे गाती घूमती थीं जैसे अपना आंगन हो, उन जंगलों में अब डीजल की गन्ध आने लगी है...बाघ की बध्याण गंध से ज्यादा डरावनी डीजल की गंध है क्योंकि डीजल हमसे हमारी बोली शैली छीनकर हमें सड़क जैस सपाट बनाती है। सड़क-संस्कृति दिन के तारे दिखती है...लोकजीवन से उसका पुरातन कपड़ा छीनकर उसे ग्रामीण से उपभोक्ता बनाती है। शरीरवाद को उन तिबारियों में स्थापित करती है, जहाँ हम ''रूमक'' होते ही ताऊ जी के साथ लालटेन घेरकर ''ओम सुभम भगोती'' गाते थे।सड़के उन ट्रकों की मवाली घरघराहट और शहरों के शोर को हमारे शांत गांवों तक पहुंचा रही है गुजारी के फूल गेंदा फ्यूंली की जगह तम्बाकू शैंम्पू की लड़िया लटकी होती है ढबाड़ी मट्ठे झंगोरे की जगह लोग मैदे के वे लम्बे कीड़े जैसे आहार खाने लगे हैं। ठंगरे लगलों पर शैतानी करता कौवा चौंकता है, ओबरे की लकड़ी में घोंसले बनाने होंगे या फिर उन्हें मनुष्यों की तरह गर्भपात करवाने होंगे क्योंकि सड़कों ने गांव और जंगल का जीवन छीनकर उन्हें मंडी बना दिया है। टीवी सीरियलों के बाजारू चरित्र जीवन में जिन सेटेलाइटी कीटाणुओं को भर रहे हैं, अपराध को दुल्हन की तरह सजाकर जिस तरह चौथरियों चौपालों का चिन्तन बनाया जा रहा है, वह आने वाले वर्षो में विस्फोट करेगा।
परन्तु सड़क और सेटेलाइट सुविधा भी लारे हैं। वह बात अलग है कि चिकित्सा से पहले शैम्पू पहुँच जाता है, शास्त्रीयता से पहले ही लुच्चा लोक अपनी पैठ बन चुका होता है। संभवतः पहाड़ के लोगों का यही गुस्सा उत्तरांखण्ड आन्दोलन का स्थायी भाव था अपना राज्य बनाने के पीछे अपनी निष्कलंक जीवन शैली को बचाने का स्वप्न हमारे मन में था परन्तु तत्कालीन उ0 प्र0 के भाजपा नेताओं ने पहाड़ियों की गर्दन में पैर रखकर ऊधमसिंह नगर और हरिद्वार को राज्य में मिलाकर स्थानीय लोगों को धोखा दिया। चुनाव हुये और लोगों ने भाजपा को उसकी जगह बता दी। कांग्रेस का सत्ता में आना एउक राजनैतिक वमन से अधिके नहीं है-अब हम सड़क से कटें या इस राज्य को उ0 प्र0 समझकर ही दिन काटें या फिर रणसिंहा फूंककर राजनीति के नये ''जागर'' गायें।