उत्तराखंड के रणबांकुरे..


 

भारत की आजादी में उत्तराखंड का योगदान कोई नही भुला सकता है। भले पहाड़ों में आज रणबांकुरों के इतिहास को संजो कर नही रखा हो मगर इतिहासकारों ने इस के लिए अनेकों बार लेख लिखे है। स्वाधीनता संग्राम में उत्तराखंड के अनेकों लालों ने अपना बलिदान दिया था जिस में अनेकों को शहादत मिली और कुछ खुस क़िस्मत वालों को आजाद भारत में सांस लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हम आज उन्हीं के जीवन पर प्रकाश डालने की कोशिश कर रहे है ।ब्रिटिश हुकूमत के खिलाप पहाड़ों में आज़ादी की आग अगर किसी ने सुलगाई रखी तो वो उत्तराखंड के नोजवान थे। 1856 का दौर ब्रिटिश हुकूमत का उत्तराखंड में शक्तिशाली होना लडक़ी की तस्करी से सुरु हुआ था। यह दौर बंधवा बजदूरों के लिए भी जाना जाता है। उस दौर में यहां के मंदिरों मठों को लूटा गया और हर धार्मिक प्रतिष्ठान पर कर लगाया गया। उत्तराखंड की पहाड़ियों में कर 7 गुना बढ़ा दिया गया। यह हेनरी रैमजे का शासन काल था। वही हेनरी रैमजे जिन्होंने जशुलि शौक्याणी के खजाने के लोककल्याण में लगाया था। वही हेनरी रैमजे जिन्हें दया की मूर्ति कहा जाता था। 

कर वसूली का दौर अल्मोड़ा से सुरु हुआ था जंगली जानवरों की तस्करी दुर्लभ पौधों की तस्करी व मंदिरों पर कर लगाया गया। भू कर जल कर व हर फसल पर लगान की कीमत 7 गुना इस दौर की उपब्धि थी। इस के खिलाप 1887 में विनोद अखबार ने अल्मोड़ा से आवाज उठाई। दु-गड्डा खबर ने कोटद्वार से व लोक आवाज दे देहरादून से आवाज उठाई। उत्तर भारत,स्वर्गभूमि,गढ़प्रकाशन ,कर्मभूमि जैसे अखबारों ने उत्तराखंड की आवाज को बुलंद किया। ब्रिटिश सरकार ने समाचार पत्रों के दबाव में आकर मंदिरों के कर को खत्म किया।

समय बीता और शासक बदलते गए देश में ब्रिटिश शासन के खिलाप आंदोलन उग्र होने लगे जहाँ पंजाब लाहौर करांची बंगाल आजादी की आग में सुलग रहे थे वहीं गढ़वाल मंडल व कुमाव मंडल आंदोलन के लिए संगठित हो रहे थे। वर्ष 1905 में नेशनल कोंग्रेश का बंगाल अधिवेशन हुआ और इसी के साथ अल्मोड़ा नंदा देवी क्रांतिकारियों ने आजादी का विगुल फूंक दिया। जिस में हरिगोबिन्द पंत मुकुंदी लाल गोविंद बल्लभ पंत श्रीधर पाठक गब्बर सिंह नेगी गणेश मुंडेपी झालू राम दास बद्री दत्त पांडेय हरि राम त्रिपाठी भैरव सिंह रावत जैसे बड़े क्रांतिकारी सामिल हुए। ये सब युवा 20 से 35 वर्ष की उम्र के थे। इन सब ने उसी वर्ष बनारस में अधिवेशन करने की ठानी। जिस में हजारों संगठनों ने उत्तराखंड के क्रांतिकारियों के नेतृत्व स्वीकारा। राजद्रोह के मुकदमें के साथ बनारस अधिवेशन भी हुआ। इस अधिवेशन ने उत्तराखंड में नेशनल कोंग्रेश को मजबूत ही नही किया ब्रिटिश हुकूमत को पुनः सोचने पर मजबूर किया।

मुकुंदी लाल इस अधिवेशन के कानूनी जानकार रहे जब कि गोविंद बल्लभ पंत मुख्य वक्ता व प्रचारक रहे। आज़ादी की इस लड़ाई ने उत्तराखंड के पहाड़ी में नेतृत्व की कमी को पूरा किया। सभी युवा जोश से लबरेज़ थे और पढेलिखे थे। सभी का मकसद पूर्ण स्वाधीनता था। उसी दौर में हरिराम त्रिपाठी जी ने वंदे मात्रम का कुमावनी भाषा में अनुवाद किया। उस दौर में बंदे मात्रम का उच्चारण भी देश द्रोह था। हरिराम त्रिपाठी व उन के सभी सदस्यों पर देश द्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ जो आंदोलन में घी का काम कर गया।

वर्ष 1910 के पंजाब अधिवेशन में इन सभी क्रांतिकारियों को बुलाया गया और पहाड़ों में आंदोलन को कैसे चलाया जाए इस पर विचार हुआ। मुकुंदी लाल व पंत जी के सटीक विचारों को अन्य आंदोलनकारियों ने माना और हिमांचल सिक्किम असम नागालैंड मिजोरम मणिपुर मेघवाल लद्दाख इस्लामाबाद पेशावर जैसे क्षेत्र में आंदोलन की रूपरेखा बनी। 

वर्ष 1913 के कोंग्रेश अधिवेशन में उत्तराखंड के हजारों प्रतिनिधि सामिल हुए उत्तराखंड आजादी की।लड़ाई में पूर्णतः कूद चुका था। यही वो दौर था जब उत्तराखंड में नेशनल कोंग्रेश ने शिल्पकार समाज के उत्थान के लिए कार्य सुरु किया। टम्टा सुधार समिति व हरिजन समाज कल्याण का गठन इसी दौर में हुआ जिस से शिल्पकार समाज को आरथिक लाभ हुआ मगर दुष्प्रभाव यह रहा कि इस का लाभ अन्य जातियों ने उठाया। शिल्पकार समाज का इस कमेटी के गठन के बाद समाज से बहिष्कार बढ़ने लगा। जिन दूरियों को कम करने के प्रयास हो रहे थे उन्हीं दूरियों में समाज बंट गया।

उत्तराखंड का समाज दो धड़ों में बंट गया था मगर स्वाधीनता के।लिए सभी एक झंडे के नीचे खड़े थे। टिहरी राजवंश व कुमाव थोकदारों ने इस आंदोलन का खुले मन से समर्थन नही किया। हर गाँव का मुंसी व मालगुजार इस आंदोलन के पक्ष में नही था। देश में अंग्रेजों ने विकास कार्य को बल दिया जिस के छींटे उत्तराखंड में स्कूल हॉस्पिटल के रूप में पड़े मगर क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की इस चाल को समझ लिया और ग्रामीणों को झांसे में न आने को कहा। वर्ष 1916 के 05 सितंबर बद्री दत्त पांडेय हरिगोविंद साह मोहन सिंह दड़मवाल भोला दत्त पांडेय कीर्ति सिंह नेगी विजय सिंह धोनी चन्द्र लाल साह प्रेम भल्लभ पांडे लक्ष्मी दत्त शास्त्री तोता राम नोटियाल फूल दास खत्री चमन मंमगाई देवकी नंदन ध्यानी अनसूया प्रसाद मरण ध्यानी हेमसा नंद थपलियाल उद्धव चमोली बालकृष्ण भट्ट मनोहर पटवाल ने कुमाव परिषद की स्थापना किया। भले आधुनिक इतिहासकारों ने इस लिस्ट से कुछ नाम हटा दिए है। इस का मुख्य उद्देश्य उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में आर्थिक समाजिक चेतना को लाना था। ग्राम विकास योजनाओं पर कार्य करना व लोगों को सामाजिक मदद देना था। इस सगठन ने उत्तराखंड में लोगों के दिलों में राजनीतिक सोच को पैदा किया। लोगों को अपने हक़ के लिए लड़ने का जज्बा पैदा किया। इस संगठन से जुड़ने उत्तराखंड के अनेकों जिलों से लोग आए। सन् 1921 में जब अनुसूया प्रसाद ने ककोड़ाखाल में डिप्टी कमिश्नर की बर्दायश का विरोध करने पर जनता ने उन्हें 'गढ़केसरी' की उपाधी दे दी. यह बहिष्कार आग की तरह फैला व पहाड़ों में ब्रिटिश सरकार को बैकफुट पर धकेल दिया। विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे लोग स्वाधीनता संग्राम में आहुति देने लोग कुमाव परिषद से जुड़ने लगे। वर्ष 1926 तक यह संगठन इतना मजबूत हो गया किस हर किसी संगठन को कुमाव परिषद से मिलने इन के कार्यालय आना पड़ता था। यह संगठन युवाओं से भरा था जिन के पास कानूनी ज्ञान के साथ साथ पत्रकारिता का अनुभव तकनीकी ज्ञान व प्रखर वक्ताओं की कमी नही थी। देहरादून मसूरी श्रीनगर अल्मोड़ा हल्द्वानी रामनगर रुद्रप्रयाग में परिषद ने अपने ऑफिस खोले और देखते ही देखते संगठन से बच्चे बूढ़े महिलाएं जुड़ने लगी यह वो दौर था जब अंग्रेजों को लगा उत्तराखंड अब हमें छोड़ देना चाहिए। और तभी पेशावर पाकिस्तान में वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने निहत्थे लोगों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया जिस की खबर उत्तराखंड में पंहुचते ही आग बन गई।

उत्तराखंड में जितने भी फौजी अंग्रेजों के लिए लड़ रहे थे सब ने बगावत कर दिया। पहाड़ों में अंग्रेजों ने अपनी हार कबुलनी सुरु कर दिया। 9 नवम्बर 1928 को कोटद्वार में हुए संगठन की बैठक ने पौड़ी टिहरी,कमिशनरी व कुमाव कमिशनरी को 1 साल तक चुप रहने पर मजबूर कर दिया। कोटद्वार बैठने गुपचुप रही मगर यहां से हथियारों के बल पर लड़ने की बात सर्वसम्मति से स्वीकारी गई। सभी ने निर्णय लिया कि अगर गोरिल्ला लड़ाई करने का मौका आया तो कोई पीछे नही हटेगा। पेशावर कांड के नायक रहे वीर चंद्र सिंह गढवाली को नोकरी से निकला गया और यही अंग्रेजों की भूल थी। वीर चंद्र सिंह गढवाली ने गाँव घूम घूम कर आजादी के नारे लगाए अनेकों तख्तियों पर आजादी के स्लोगन लिखे जिस ने लोगों को जागृत किया।

इसी दौरान भानु प्रसाद पैन्यूली जगदीश नेगी झबर सिंह थापा बैभव कांडपाल ताराचंद राठी प्रताप सिंह झालान धर्मबीर रावत टिका सिंह कन्याल सीमानन्द नरसिंग धानक बीर पाल सिंह पदम् सिंह गंगा दत्त चड़ामणि भैरव सिंह झालू राम कांता प्रसाद प्रेमानंद दयाधर सिंह होशियार सिंह बहादुर सिंह जैसे अनेकों लोगों को जेल में डाला या चुपके चुपके फांसी देदिया। कुछ लोगों को इनकाउंटर में मारा गया और जो बचे रहे उन्हें जेलों में यातनाएं दिए गए। यह दौर उत्तराखंड के उदय का था जिस में बद्री दत्त मुकुंदी लाल जैसे क्रांतिकारियों के अभूतपूर्व योगदान रहा। भैरव सिंह शंकर लाल केदार सिंह तोता राम बीर सिंह नेगी चंद्र सिंह गढवाली जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान के बिना हमें आजादी की कल्पना नही करनी चाहिए। इन लोगों के बलिदान का देश की आजादी में उतना ही योगदान रहा जितना शुभाष चन्द्र बोस व महत्मा गाँधी का रहा। देश इन बलिदानियों का ऋण नही चुका सकता है।

 

देवेश आदमी

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