उत्तराखंडी ढोल की पोल


रंगमंच पर स्वांग करते वामपंथी विचारक ढोल की तो बहुत करते हैं परन्तु जिस आदिशक्ति के लिये वह ढोल बजाया जाता है, उसका प्रसंग आते ही उसके हाथ-पांव फूलने लगते हैं....अब सुना है कि चीन के तानाशाह भी चर्च और टूटे हुये बौद्ध मन्दिरों को संवारने में लग गये हैं उसी तर्ज पर भारतीय तोते अपने कामरेड भी अब धर्म की बात करने लगे हैं, लेकिन एक राजनीतिक हथियार की तरह--- धर्म को जो बर्हिग है, पूजा माला मंदिर व्रत वे उस तक ही सीमित रहते हैं अर्थात् वामंपथी यह जानते हैं कि धर्म के स्थूल रूप को भजने पर मार्क्स महाराज नाराज नहीं होंगे परन्तु धर्म जिन शाश्वत मूल्यों जिस चेतना के अदृश्य पिंजर पर अपना आकार ग्रहण करता है उसको छूने मात्र से ही इन सेकुलरो को झटका लगता है। इसीलिये उन्होंने संस्कृति को अपना मुख्य रणक्षेत्र बनाया हुआ है क्योंकि संस्कृति और उसके शरीर के साथ सत्य दया शुचिता जैसे लफड़ों को स्यापा नहीं है वही ढोल वाली बात पत्र-पत्रिकाओं से लेकर रंगमंच तक ढोलियों-औजियों से लेकर ढोल की ताल तक तो वे खूब गाल बजाते हैं परन्तु उस देवी के विग्रह को गोल कर जाते हैं जिसके लिये उस लोक शास्त्र उस ढोल सागर की स्थानीय गायकी का निर्माण हुआ होगा.
एक बार मैंने पहाड़ी संस्था द्वारा आयोजित जिन लोकनाटकों का मंचन देखा, उनमें एक दो नाटकों को छोड़कर कोई भी लोकनाटक नहीं बल्कि लिखित नाटकों के मंचन थे...इन्हीं में से सुवर्ण रावत द्वारा निर्देशित ढोल के बोल कहानी का मंचन देखा। जिसे महावीर रवाल्ठा ने लिखा था। ढ़ोल वादक परिवार पर केन्द्रित कहानी के चारों ओर बुनी इस कहानी में कितनी कल्पना रवाल्टा की थी और कितना रेत-मसाला सुवर्ण रावत ने भरा, कहना मुश्किल है। कुल मिलाकर नाटक से गढ़वाल के एक ऐसे गांव के दर्शन होते हैं जहां छुआछूत है, विकृति है, शराब-शबाब है, लंगटे लड़के लड़कियां हैं और ऊपर से यह नाटक हिन्दी में था, जिससे नाटक का यह मन्तव्य तो साफ है कि पहाड़ की निष्कलंक जीवनचर्या को विकृत कर इन ढोल के बोलों को शेष भारत के दर्शकों तक पहुँचा रहा है। ढोल वादन की कला और उससे जुड़ी अनेक समस्याओं को उठाकर कहानी अपने चरम पर भटक कर उस लंगटे संसार में पहुंचा दी गई जहां लोक संस्कृतियों के कपड़े उतारे जाते हैं। महानगरों के लम्पट संसार से अभिभूत रवाल्टा ने पहाड़ की ढोल कला को नग्न जंघाओं की ढलान में उतार दिया। लोक कलाओं पर समाधान के ऐसे सन्निपात भरे आख्यान वाम-विद्यार्थी ही दे सकते थे जब यह नाटक दिल्ली में खेला गया था तो रवाल्टा ने उसकी समीक्षा हलन्त के लिये भेजी थी मैने शक के आधार पर उसे हलन्त में नहीं छापा। मेरा शक उस दिन नगर-निगम हाल में सच निकला...ढोल के विषय में सर्वाधिक विश्वसनीय जानकारी देवप्रयाग के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य श्री चक्रधर जोशी को थी...जहां से अधिकतर मसाला टीपकर कइयों ने इकट्ठा कर विशेषज्ञता हासिल की है, चन्द्र सिंह राही भी अनेकानेक मंचों पर ढोल सागर के बारे में दी गई जानकारी को विश्वसनीय नहीं मानते हैं। बचपन के नवरात्रों की स्मृति में गढ़वाल के प्रसिद्ध औजी ढिन्डू-बिस्सू की जोड़ी का गायन- वादन और ढोल पर बजती उनकी सिद्धहस्त लाकुण कहीं लुप्त हो गयी है। इन विधाओं को पैसे के तराजू से तोलना ही सभी विचारकों की चिंता रही है जबकि यह दलित कहे जाने वाले लोगों का ऐसा हुनर है जिसकी ताल पर पूरा समाज नाचता था। मैने उन औजियों के मुख से धाराप्रवाह संस्कृत भी सुनी थी तथा देवी-पूजन के सभी कर्मकान्ड उन्होंने ही सम्पूर्ण किये थे। इस अनुठी परम्परा की पुनर्समीक्षा होनी चाहिये...यह उत्तराखण्ड के सामाजिक स्वरूप को नई परिभाषा दे सकता है। ढोल के अन्दर औजियों का समृद्ध सांस्कृतिक नाद छुपा हुआ था जिसके आगे समस्त समाज नतमस्तक होता था। ढोल पुराने जमाने में संचार का प्रबलतम माध्यम था, उनके बोलों की एक समृद्ध लिपि थी जो कि अब विलुप्त होने के कगार पर है। यदि रवाल्टा अपनी कहानी को एक ऐसे मोड़ पर छोड़ते जहां से लोगों को ढोल छूटने का दुख होता....दर्शकों में इस वाद्य और उनके वादकों के प्रति एक जिज्ञासा पैदा होती, जबकि रवाल्टा-रावत ने उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांव जैसे वर्ग-संघर्ष के सर्वहारा चरित्रों में ढालकर पहाड़ की शुचितापूर्ण मानसिकता को ही गाली दी है। लेखक इस कहानी के बहाने आचंलिक बिम्ब खींचकर हमारे सांस्कृतिक धार्मिक वैभव का रेखांकन कर सकते थे। परन्तु सेकुलर लेखक इतने सतर्क होते हैं कि उनका एक-एक अक्षर पोलित ब्यूरो के सेंसर बोर्ड से धुला-मंजा दिखाई देता है। यदि देवी-देवताओं के नाम पर लेखक के शरीर में पित्त उभरते हैं तो कम से कम इन लोक संस्कृतियों को जत्था जनगीत तो मत बनाइये। ढोल बजाने की लाकुण को गांव से उठाकर जिस तरह लेखक ने पॉप-संस्कृति के हवाले किया और चलो यदि लोक संस्कृतियों को इस तरह लील दिये जाने का दुख भी नाटक का चरम होता, नायक के मां-बाप यदि अपनी कला के इस तरह बड़े हॉल में अपमानित होने पर दुख व्यक्त करते तो कहानी कालजयी रचना बनती परन्तु रवाल्टा को भी शायद अपने लोगों से ज्यादा चिंता साम्यवाद को परिभाषित करने की रही होगी।