गढ़वाल हिमालय की वीरांगना
गाँव कांडा मल्ला.... बीरोंखाल।
जहाँ वीरों के घर वीर पुत्री ने जन्म लिया। पिता भूप सिँह गढ़वाल नरेश की सेना में एक जँगजू थे। सन 1661 का दौर था। वीर बाला का बचपन इसी गाँव मे बीता। जीवन दूर से 'फूल संग्रान्द' मेला सी दिखती हो, पास से निरंतर एक जीवन-युद्ध के कष्टकारी अभ्यास सा ही रहा था, तिलोत्तमा देवी के लिए। ... यही असली नाम। ... और ऐसा ही असली जीवन भी।
बहार आई। खाल-पट्टी सब फूलों से आच्छादित हो गई। ऐसे पन्द्रह बसन्त पार कर तीलू रौतेली के जीवन में एक मोड़ आया। उसकी सगाई इडा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के भुप्पा सिंह नेगी के पुत्र के साथ हो गई।
कन्त्युरों के सतत हमलों को झेल रहा था गढ़वाल। छल से आक्रमण। हमलावरों के छल। रक्षार्थ लड़ना एक ही उपाय। ... और फिर लड़ते लड़ते पिता भूप सिँह वीरगति को प्राप्त हुए। इसके प्रतिशोध में तीलू के मंगेतर और दोनों भाइयों (भग्तू और पथ्वा) ने भी युद्धभूमि में अप्रतिम बलिदान दिया। ... बलिदान से गढ़वाल का सनातन नाता जो ठहरा।
संसार है । आकर्षित करता ही है। कौथिंग यानी मेला। यही देखने को था मन उसका।
कुछ ही दिनों में कांडा गाँव में कौथीग (मेला) लगा और बालिका तीलू इन सभी मृत्यु की घटनाओं से पर कौथीग में जाने की जिद करने लगी तो माँ रो पड़ी। माँ ने रोते हुये ताना मारा- "तीलू तू कैसी है, रे! तुझे अपने भाइयों की याद नहीं आती। तेरे पिता का प्रतिशोध कौन लेगा रे! जा रणभूमि में जा और अपने भाइयों की मौत का बदला ले। ले सकती है क्या? फिर खेलना कौथीग!"
तीलू रौतेली के संवेदनशील मन को माँ की बातें चुभ गई और उसने कौथीग जाने का ध्यान तो छोड़ ही दिया।... प्रतिशोध की धुन मन मे धार ली। उसने अपनी सहेलियों के साथ मिलकर एक सेना बनानी आरंभ कर दी और पुरानी बिखरी हुई सेना को एकत्र करना भी शुरू कर दिया। प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को घायल शेरनी बना दिया था। शास्त्रों से लैस सैनिकों तथा "बिंदुली" नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि की ओर चल पड़ी।
पहले ही अभियान में तीलू रौतेली ने खैरागढ़ (वर्तमान कालागढ़ के समीप) को कन्त्यूरों से मुक्त करवाया । यह पहली जीत थी।
उसके बाद उमटागढ़ी पर आक्रमण किया। विजय हासिल की। फिर तीलू अपने सैन्य दल के साथ "सल्ड महादेव" पंहुची और उसे भी शत्रु कन्त्युरों की सेना के चंगुल से मुक्त कराया।
राज्य का सामरिक महत्व के नाते सीमांकन भी किया। चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर देने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट वापस आयी.
समरांगण बना कालिंका खाल। कालिंका खाल में तीलू का शत्रु से घमासान संग्राम हुआ। सराईखेत में कन्त्यूरों को परास्त करके तीलू ने अपने पिता के बलिदान का बदला लिया । यहीं पर तीलू की घोड़ी "बिंदुली" भी शत्रु दल के वारों से घायल हो गई। तीलू का साथ छोड़ गई।
वह इस अभियान में विजयी रही थी। उसके संकल्प की विजय थी। आज भी यह विजय बावन गढ़ों वाले गढ़वाल में गूंजती है।
इस विजय के बाद कांडा गाँव लौटते समय पास के जल स्रोत से जल पीने के दौरान रामू रजवार नामक कन्त्युरी सैनिक ने धोखे से खत लगाकर तलवार से आघात किया। इस प्रकार तीलू रौतेली ने वीरगति प्राप्त की।
तीलू रौतेली दन्तकथाओं में है। लोक गीतों में है। वह गढ़वाल के मन को परिभाषित करती है।... तीलू रौतेली।