विज्ञान अध्यात्म और ज्योतिष का परस्पर संबंध


 विज्ञान,अध्यात्म और ज्योतिष का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे से संबंध है l विज्ञान के अनुसार यह ब्रह्मांड अणुओं से निर्मित है l एक अणु परमाणु से मिलकर बना है इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन और न्यूट्रॉन जो क्रमशः ऋण आत्मक, धनात्मक तथा न्यूट्रल( स्थिर )होता है l यह तो थी विज्ञान की बात एक वैज्ञानिक इससे ही संसार का जन्म मानता है उसके लिए यही सत्य है l वास्तव में यह सत्य है परंतु इसके अलावा सत्य और भी है l अब अध्यात्म की बात करते हैं अध्यात्म में श्रीमद् भागवत गीता सर्वो परी है इसमें आत्मा संबंधी विषयों की जानकारी है इसमें भी 3 शब्द प्रयोग हुए हैं तत्व ज्ञान , ब्रह्म और परम तत्व l श्री कृष्ण ने गीता में जब अर्जुन को आत्मा का ज्ञान दिया उसके स्वरूप के विषय में बताते हुए उन्होंने उसे अति सूक्ष्म अणु रूप में बताया है l इसमें उन्होंने आत्मा के मूल स्वभाव को शांत चित्त बताया है l परंतु व्यक्ति के  कर्मानुसार इस आत्मा पर नकारात्मक और सकारात्मक जिस तरह के कर्म हो उन कर्मों द्वारा जिस तरह की ऊर्जा उत्पन्न होती है का प्रभाव प्रबल होता है यह सब प्रकृति के कारण होता है जो इस शरीर को चलाने वाली होती है सारे मनोभाव प्रकृति के दबाव के कारण ही विकसित होते हैं नकारात्मक ऊर्जा और सकारात्मक ऊर्जा यह भी प्रकृति के पाँच तत्व के कारण होता है l सभी तरह की भावनाएं यह भी प्रकृति के पंच तत्वों की देन है l अगर व्यक्ति अपने विचारों में सकारात्मक रहे और उस ईश्वरीय सत्ता को समझे अपना हर कार्य बिना किसी प्रतिफल की इच्छा से करें ऐसा व्यक्ति उस परम तत्व में   एकाकार हो जाता है विज्ञान की भाषा में न्यूट्रल होना या बुद्धि की चेतना द्वारा  स्थिर होना l  मेरा विषय ना विज्ञान है और ना ही अध्यात्म बस इन विषयों के माध्यम से उदाहरण देकर ज्योतिष को समझाना चाहती थी l अब आपको ज्योतिष का महत्व समझ आऊंगी l कई लोग बिना ज्योतिष के ज्ञान को समझे हुए इस विषय को अकर्मण्यता की ओर ले जाने वाला विषय समझते हैं l अभी आपको विज्ञान और अध्यात्म का ज्ञान इसलिए दिया ताकि आपके समझ में यह विषय स्पष्ट रूप से आ जाए l कुंडली में भी पाप ग्रह और शुभ ग्रह होते हैं उदाहरणार्थ पाप ग्रह जीवन में कठिनाइयां पैदा करते हैं और शुभ ग्रह जीवन को सुगमता से जीने में मदद करते हैं यह भी व्यक्ति के कर्मों की ऊर्जा ही है l कर्म चाहे प्रारब्ध हो या वर्तमान उनके द्वारा जो भी ऊर्जा पैदा होती है वही कुंडली में पाप ग्रह और शुभ ग्रह के रूप में देखने को मिलती है किसी की कुंडली में पाप ग्रह ज्यादा हो तो कठिनाइयां खत्म नहीं होती है l जिस भी तरह के कर्म होते हैं वैसी ही एनर्जी उत्पन्न  होती है l पाप ग्रहों के प्रभाव से मुक्ति के लिए ज्योतिष में बहुत से उपाय हैं पर श्रीमद् भगवत गीता का जो ज्ञान है वह अद्भुत है यह कहूंगी की स्वयं श्री कृष्ण महान दार्शनिक थे गीता में जो भी ज्ञान है वह एक यथार्थवादी विचारधारा को दर्शाता है l गीता के लगभग सारे अध्याय ज्योतिष में किसी न किसी ग्रह या ग्रहों की युति से जो व्यक्ति की मनोदशा होती है उस से संबंध रखते हैं और इन्हीं अध्याय में श्री कृष्ण के गीता ज्ञान द्वारा उन समस्याओं का निदान भी है उदाहरणार्थ यदि कुंडली में राहु ग्रहण योग बनाता है या नीच का राहु हो तो यह ना व्यक्ति के मन को स्थिर रहने देता है और ना ही कार्यों को स्थित रहने देता है l यह व्यक्ति को अज्ञात डरो से ग्रसित रखता है जो नहीं है व्यक्ति को उसका आभास होता है राहु एक नकारात्मक ऊर्जा l जब यह शरीर को प्रभावित करता है तो हर तरह से भ्रम पैदा होता है इसके लिए श्रीमद भगवत गीता के नवम अध्याय का पाठ निरंतर करना चाहिए इससे शरीर में नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है और सकारात्मक उर्जा उत्पन्न हो जाती है अज्ञान और भ्रम मिट जाता है l विज्ञान की भाषा में यह एक मानसिक बीमारी है , जो Harmonal imbalance के कारण होता है l इन्हें हिंदी में अंतः स्रावी ग्रंथियां कहते हैं जिनसे एक तरह के रस का स्राव का अनियमित मात्रा में होना इसका कारण होता है l हम जो देखते हैं , सुनते हैं ,पढ़ते हैं ,समझते हैं इस सब का इन अंतः स्रावी ग्रंथियों पर प्रभाव पड़ता है यही कारण होता है l यदि हम अपने ज्ञान में वृद्धि नहीं करते हैं तो यह क्रम चलता रहता है l