पूस माह की वह सन्ध्या बेला कितनी शीघ्रता से सूर्य नारायण की लालिमा को देखते ही देखते काली चादर में समेट ले गई और चारों ओर पसरा गई घुप अंधेरा।पाँच माह के राजन को दूध पिलाते -पिलाते सुरभि सात वर्षीय बड़ी बिटिया झुनकू को हिदायत देते हुए बोली।"लाडो !लालटेन की हाँडी ठीक से साफ करके लालटेन जला दो और चूल्हे पर आग सुलगा दो ।राजन को बिस्तर पर सुला कर मैं रसोई घर मेंआ रही हूँ।तुम गुल्लू को लेकर ऊपर आजो और दोनों अपनी-अपनी पढ़ाई करो। जब खाना बन जाएगा तो नीचे रसोई में बुला लूँगी।"
नन्हें दीपक को बिस्तर पर सुलाने के क्रम में पहाड़ की हाड़ कम्पा देने वाली ठण्ड को उलाहना देते हुए बड़बड़ाती है, वर्ष भर से ऊपर बीत गया झुनकू के पिता को बॉर्डर पर गए हुए ।न जाने कैसे होंगे,कब मिलना होगा,पिछले मिलन की सौगात आज पाँच माह की हो चली है, कितने ख़ुश होंगे अपने कुलदीपक को देखकर,बिल्कुल अपने पापा पर गया है। सुरभि के गदराए यौवन की गर्मी से अब बर्फ़ की सिल्ली जैसा बिस्तर गर्म हो चुका था,इत्मीनान से नन्हे दीपक को बिस्तर पर लिटा ही पाई थी कि किसी अजनबी आवाज़ ने दस्तक दे डाली। इस समय कौन हो सकता है, मन शंका से भर उठा। अमावस्या की रात का अँधेरा अपना पूर्ण विस्तार ले चुका था। रात की रानी की भीनी- भीनी सुगन्ध पूरे वातावरण में आनंद घोल रही थी लेकिन सुरभि का मन किसी अनहोनी घटना को न जाने क्यों भाँप रहा था।
"भाभीजी मैं हवलदार कुंवर सिंह का साथी, छुट्टी पर घर आ रहा था तो भैया ने आपसे मिलते हुए ,सबकी कुशल क्षेम लेते हुए आने की हिदायत दी सो मैं चला आया आप सबसे मिलने।"
पहाड़ी बालूशाही का डिब्बा थमाते हुए अज़नबी ने अपना नाम हीरासिंह बताया।पहाड़ों में घर बहुत दूर -दूर होने के कारण रात के समय सम्पर्क साधना मुश्किल हो जाता है। अत्यधिक ठण्ड के कारण साँझ होते ही लोग घरों के अंदर दुबक जाते हैं।
मन में कई तरह के सवालों के उठने के बावज़ूद सुरभि स्वयं को इत्मीनान दिलाने की कोशिश में जुट गई, अवश्य ही हीरा सिंह उसके प्रियतम से मिलकर आ रहा होगा ,नहीं तो उसे कैसे मालूम कि हवलदार कुँवर सिंह की प्रियतमा को बालूशाही कितना भाता है ?पहाड़ों की " अतिथि देवोभव" वाले संस्कार आवाभगत में सुरभि को कहाँ पीछे रखने वाले थे।आननफानन में पैर धोने के लिए गुसलखाने में गर्म पानी रख जल्दी से गर्मागर्म चाय और प्याज के पकौड़े परोस दिए मेहमान के आगे।
हीरा सिंह के मुँह से पकोड़े और मसालेदार चाय की तारीफ़ सुनने में सुरभि को ऐसे जान पड़ता था जैसे साक्षात उसके प्रियतम कुँवरसिंह की ही शब्दावली की बौछार हो रही हो लेकिन हीरा सिंह की उसके यौवन को घूरती नज़रें मन ही मन सुरभि को आशंका से भर रही थी।
चाय -पकोड़ों का दौर समाप्त होते ही हीरा सिंह रसोई से लगे कमरे में छोटे राजन को अपनी छाती से सटाकर गहरी निंद्रा में डूब गया और सुरभि प्रियतम के मित्र के लिए स्वादिष्ट पकवान बनाने में मशगूल हो गई। छोटे राजन को भी पिता सदृश्य पुरुष से मिलने वाली गर्मी पूस की ठिठुरती ठण्ड में अमृत के समान लगते ही बेखबर सुला दी ।भोजन तैयार होते ही सुरभि मेहमान को जगाने के ख़्याल से खटिया के नज़दीक गई कि आचानक उसका पैर किसी तेज़ धार वाले हथियार (जो किसी कपड़े में अच्छी तरह से लपेट कर थैले में ऐसे रखा गया था कि आसानी से उसके होने का अंदाज़ा न लगाया जा सके)से टकरा गया।
उसे तो काटो तो ख़ून नहीं,समझते देर नहीं लगी कि यह मित्र नहीं कोई बहरूपिया है जो न जाने किस इरादे से धावा बोल दिया है।
सुरभि का ध्यान अनायास ही तरुणाई से परिपूर्ण अपने गले में शोभायमान गुलबन्द और सुडौल वक्षःस्थल तक लटकती मटरमाला और तीखे नाक पर शोभायमान टेहरी गढ़त की नथ पर चला गया।वैसे भी उसके रूप -लावण्य पर पुरुष क्या स्त्रियाँ भी फ़िदा रहती थी। साथ ही उसके बेदाग चरित्र की भी चर्चा अक़्सर होती रहती थी। आज उसे पैरों तले की ज़मीन खिसकती महसूस होने लगी।इतना सम्भाल कर रखा है सब कुछ ...क्या आज.......नहीं-नहीं..ऐसा नहीं हो सकता....और उसने आनन - फानन में ही फ़ैसला ले लिया।शुक्र था कि झुनकू और गुल्लू ने ऊपर से कोई आवाज़ नहीं दी और दीपक ने भी अभी तक अंगड़ाई नहीं ली।शायद उसके प्रियतम के प्यार की सकारात्मक ऊर्जा बॉर्डर से सीधे घर तक पहुँच कर सुरक्षा कवच बन रही है, ऐसा सोचते ही वह अपने दिल पर पत्थर रख दबे पाँव प्रथम तल्ले पर दोनों बेटियों के पास पहुँच गई।अन्दर से दरवाजे पर कुण्डी चढ़ाने के साथ ही उसने गहरी साँस भरी लेकिन उसकी आत्मा विलखने लगी।अपने ज़िगर के टुकड़े को उठा कर लाने का मतलब था कि अजनबी की आँख खुलना और फिर.....न जाने उसके मन में कितने सवाल उठते -गिरते चले गए।
ख़ून जमा देने वाली ठण्ड में भी सुरभि के माथे से पसीने की बूंदें लुढ़क कर गालों को छू गई।माँ को चिन्तित देख दोनों बिटिया माँ से लिपट कर छोटे भाई को ऊपर लाने की ज़िद करने लगी। रसोईघर से पहाड़ी खुशबूदार मसाले की सब्ज़ी की सुगंध ने दोनों की भूख बढ़ा दी थी लेकिन माँ को ऐसी अवस्था में देख किस मुँह से भोजन की फरियाद कर सकती थी बेचारी।
रात्रि के ग्यारह बजने ही वाले थे कि अचानक ज़ोर की आवाज़ ने तीनों को अन्दर तक हिला कर रख दिया।"भाभीजी कहाँ चली गईं,आँख लग गई थी मेरी ,जगाया क्यों नहीं।"सुरभि के मुँह से इतना ही निकल पाया कि भूख लगी है तो खाना बना है ,खालें निकाल कर ,पेट में आचानक दर्द हो जाने से वह खाना परोसने में असमर्थ है। यह सुनते ही हीरा सिंह की दहाड़ और तेज हो गई ।
"नीचे आओ ,मेरे पास पेट दर्द की दवा है, ठीक हो जाएगा।"
हीरा सिंह को समझते देर न लगी कि वह आँख लगने के कारण अपने हथियार का थैला ठीक से छुपा नहीं पाया और सुरभि उसकी सच्चाई जान गई। अब तो वह ज़ोर -ज़ोर से चिल्लाने लगा कि जल्दी से प्रथमतल्ला का दरवाज़ा खोले नहीं तो उससे बुरा कोई न होगा। सुरभि को डर संताने लगा कि कहीं उसे रसोई घर में बने दादरे(पहाड़ों में जंगली जानवरों के डर सेनीचे से ऊपर आने के लिए आदमी के निकलने भर का छेद जिसमें छोटी सीढ़ी लगाकर ऊपर आया जाता है)का पता न चल जाए।हीरा सिंह कामुकता में अंधा होता जा रहा था। दरवाज़ा न खोलने पर बार -बार छोटे दीपक की बोटी- बोटी कर देने की धमकी से सुरभि का कलेजा फटा जा रहा था लेकिन न जाने कौन सी शक्ति उसे अपने ज़िगर के टुकड़े से भी विमुख किए जा रही थी।एक नन्हीं ज़िंदगी के आगे तीन -तीन ज़िंदगियों का पलड़ा शायद भारी पड़ रहा था। इसी बीच नन्हा दीपक अपनी करुण रुलाई से माँ का सीना छलनी किए जा रहा था।उसकी कारुणिक पुकार और भूख के एहसास से माँ की छाती से दूध बहने लगा।
इधर हीरा सिंह की कामुकता उग्र रूप धारण कर चुकी थी ,वह हर हाल में सुरभि के स्वर्ण से दमकते यौवन को छिन्न-भिन्न करने के लिए आतुर था। दीपक को उठाकर फाड़ डालने की धमकी देने पर भी वह समझ चुका था कि वह तरुणी बेटे के बलिदान के लिए तत्पर हो चुकी है। बेरहम ने पूरी ताक़त से बच्चे को पटक डाला । प्राणों से भी प्रिय अपने प्यारे भाई को पटकने की आवाज़ से दोनों बहनों की चीख से गहन रात्रि का अन्धकार फट पड़ा। माचिस की तीली जला कर वह रसोई घर का मुआयना करने लगा कि कहीं कुछ सुराग हाथ लग जाए उस तरुणी तक पहुँचने के लिए और वही हुआ जिसका माँ को डर था।रसोई में मौजूद डिब्बों को एक के ऊपर एक रखते हुए आख़िर लकड़ी के बने दादरे तक वह पहुँचने में कामयाब हो गया और आरी से दादरे की लकड़ी को काटने लगा। इधर ज़ोर से पटकने के कारण अब नन्हें राजकुमार की करुण पुकार शांत हो चली थी,शायद यह उसकी अंतिम करुणामय पुकार रही हो,सोचकर माँ विह्वल हुए जा रही थी।अब उसके सामने कठिन चुनौतीथी ।हीरा सिंह ने लकड़ी लगभग काट ही डाली थी, अब वह किसी भी क्षण ऊपर घुस सकता था।
लालटेन की रोशनी को मध्यम कर अपने दोनों कलेजे के टुकड़ों को चारपाई के नीचे छुपा कर वह शेरनी दराँती हाथ में लिए साड़ी के आँचल से कमर कस कर हीरा की गर्दन ऊपर आने का इंतज़ार करने लगी।जिसने आजतक एक चींटी को भी नहीं मसला था अचानक वह कैसे रणचण्डी बन गई कि लालटेन की मध्यम रोशनी में दिखाई पड़ी मोटी गर्दन ऊपर आते ही छपाक से दराँती से अलग कर डाली। उसके धड़ के नीचे गिरने से ज़ोर के धमाके की आवाज़ से पूरा घर भूकम्प के झटके की तरह हिल उठा। गर्म ख़ून के छींटे उसके सुन्दर चेहरे को भिगो कर कभी न मिटने वाली असह्य पीड़ा बनकर उभर गए थे।
पागलों की तरह दौड़ती हुई दरवाज़ा खोल अपने कुलदीपक को सीने से लगाने उतरी।अंधकार मिट चुका था और पूरब दिशा में लालिमा फैल चुकी थी।शायद उस पतिव्रता के धर्म की रक्षा करने स्वयं सूर्यदेव पधारे थे ।तभी तो अपने ही मुँहके झाग में ढके हुए अपने कलेजे के टुकड़े को सीने से लगाते ही उसकी साँस चलने लगी ।दोनों बहनें मां से लिपट कर ख़ुशी के मारे लगातार रोये जा रही थी।नन्हें शिशु को सीने से लगाकर दोनों का माथा चूमते हुए वह शेरनी बॉर्डर पर दुश्मनों का सफ़ाया करते हुए कुँवर सिंह सी जान पड़ती थी।
माधुरी भट्ट
सच कहूँ तो मेरी असली गुरु मेरी माँ हैं जिन्होंने अपने गर्भ में ही मुझे सभी रसों का पान करा दिया।नौ महीने गर्भ में रहने में माँ का प्यार- दुलार , किसी के कष्ट को देख उनकी संवेदना ,सबके प्रति सौहार्दपूर्ण व्यवहार विरासत में मिलता रहा। धरती पर आते ही उनके आँचल में सिमट कर ज्ञान की अविरल धारा हर पल मिलती रही। कभी गोद में बिठा कर,कभी पीठ पर चढ़ा कर अपने कार्यों को पूर्ण करते हुए शिक्षा प्रद कहानियाँ सुनाना उनकी दिनचर्या में शामिल रहता।उन कहानियों का इतना गहरा असर पड़ा कि मेरे व्यवहारिक जीवन में आज भी प्रासङ्गिक है।
इसी क्रम में बचपन की एक घटना याद आती है।बचपन तो होता ही है चञ्चल हिरणी जैसा बिंदास ।अपनी चञ्चलता के कारण पढ़ाई,खेलकूद ,नृत्य, अभिनय आदि क्षेत्रों में सदा आगे रहने के बावज़ूद अक़्सर लम्बी कद काठी ,बड़ी- बड़ी मूँछे कड़कदार आवाज़ के धनी परम आदरणीय कुँवरसिंह गुरुजी की छड़ी पड़ ही
जायाकरती थी ।
चैत्र माह की वह सुबह ज़्यादा ही सुहानी लग रही थी।पहाड़ों की खिली धूप और शिवालय के चारों ओर खिले पुष्पों की सुगंध और अपनी प्रिय सखी का संग, न चाहते हुए भी बेमानी पर उतार दिया। पाठशाला जाने के बदले मैं और विजया अपना बस्ता खोल हरे रंग की रबड़ की गेंद और बट्टी(गोल- गोल पत्थर की पाँच छोटी- छोटी गोटियाँ)निकाल खेत के बीचोंबीच बैठ ऎसे खेल में रमे कि यह होश ही न रहा कि हमारे मुच्छड़ वाले प्रिय गुरुदेव अपनी कक्षा की दोनों नटखट छात्राओं को न देख चारों ओर नज़रें घुमा रहे होंगे।लगभग तीन वादन बीते होंगे कि अपनी कक्षा के दो शरारती कर्णधारों शिवम और त्रिलोक की नजरें कैसे उतने ऊपर से खेत के बीचों बीच आ टकराई।आनन -फ़ानन में गुरुदेव को ख़बर हो गई कि दो शरारती मुर्गियाँ पकड़ा गईं। अब क्या था!गुरुदेव ने आव देखा न ताव,कक्षा की कमान दोनों शेरों को थमा अपने प्राणों से भी प्रिय छड़ी लिए चल पड़े हवलदार की तरह चोरों को हथकड़ी पहनाने।
इधर दोनों आज़ाद पंछी अपने खेल में इस तरह मशगूल थे कि सामने मूंछों पर ताव देते हुए छड़ी घुमाते हुए गुरुदेव तब नज़र आए जब छटाक से आवाज़ करती हुई छड़ी दोनों खेल प्रेमियों को अंदर तक बिलबिला गई।ओह!ऐसा जान पड़ा मानो सामने साक्षात यमराज प्राण लेने खड़े हों।अब तो समर्पण के सिवा कोई और चारा न था।
शायद भोले नाथ को हमारी यह बाल लीला भली लगी थी,इसीलिये यमराज रूपी गुरुदेव ने यह कहते हुए छड़ी दुबारा नहीं घुमाई "जल्दी बस्ता उठाओ और सीधे चलो पाठशाला"।
आज भी गुरुदेव जीवन्त हो जाते हैं जब ऐसे नटखट बच्चों से पाला पड़ जाता है।🙏🙏🙏💝🙏🙏🙏🌷🥀🌷