गंगा पूजा: देवप्रयाग समाज की देन


उत्तराखंड एवं भारत की भूमि में देवप्रयाग एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। देवप्रयाग का इतिहास गौरवशाली, समृद्धशाली एवं धार्मिक है। मेरा आशय सनातनियों की एक ऐसी पूजा पद्धति से है जिसके बारे में आभाष होता है कि इसका सम्बन्ध व शुरुआत अवश्य ही देवप्रयाग से हुयी है...और वह है 'गंगा पूजा'। इस बात को सत्यनारायण बाबुलकर जी ने भी माना था तथा इस सन्दर्भ में उनका एक लेख गढ़वाल मंडल में भी प्रकाशित हुआ था। बाद में स्वर्गीय भगवती चरण निर्मोही जी के आग्रह पर स्वर्गीय रमाप्रसाद घिल्डियाल जी ने भी एक लेख के द्वारा इस बात को माना था कि गंगा पूजा का सम्बन्ध देवप्रयाग से है। घिल्डियाल जी एक प्रसिद्ध  कथाकार थे, उनका मानना था कि देवप्रयागी समाज ने केदार संस्कृति को बहुत कुछ दिया...जैसे कि संस्कृति, पूजा पद्धति, रीति रिवाज, भोजन, साहित्यिक सेवा इत्यादि देवप्रयागी समाज की देन है, किन्तु इन सब विषयों पर उचित शोध न होने के कारण ये विषय उजागर नहीं हो पाये।
गंगा पूजा की बात की जाए तो देवप्रयाग का स्थान पंचप्रयाग, गया व अन्य तीर्थों से श्रेष्ठ है, देवप्रयाग से ही गंगा अस्तित्व में आती है एवम् यहीं से गंगा नाम पड़ता है। देवप्रयाग गंगा के अन्य तीर्थो, हरिद्वार, काशी, पटना, प्रयाग में भी प्रथम है। भगवान् राम भी तप हेतु गंगा के अन्य तीर्थों को छोड़कर देवप्रयाग ही आते हंै। जगतगुरु शंकराचार्य जी ने विधि विधान से देवप्रयाग में गंगा पूजन की नींव डाली थी। तत्पश्चात बद्री केदार की स्थापना हुयी। कालिदास भी मेघदूतम् में मेघ का मार्ग कनखल, व्यासघाट से जह्नु-सुता देवप्रयाग बताते हंै,जहां से वे देवप्रयाग संगम को प्रणाम कर आगे बढ़ते हंै। ये बातंे भी सिद्ध  करती हैं कि देवप्रयाग से ही गंगा पूजा अन्य तीर्थांे तक पहुँची। देवप्रयाग रघुनाथ मंदिर के पीछे प्राप्त शिलालेखों में भी उन्नीस यात्रियों का जिक्र है जिन्होंने देवप्रयाग संगम में समाधि ली थी, निःसंदेह इस क्षेत्र व यहाँ गंगा की महत्ता ने ही उन यात्रियों को यहां समाधि लेने के लिए आकर्षित किया  होगा, क्योंकि तब ऐसी मान्यता थी की अगर किसी गंगा तीर्थ पर समाधि ली जाए तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
महाभारत में भी व्यास जी ने गंगा के महत्व के बारे में विस्तृत रूप से वर्णन किया है। व्यासघाट जो कि व्यास जी की तपस्थली है, देवप्रयाग संगम से कुछ ही दूर है जो यह सि( करता है कि व्यास जी निःसंदेह इस गंगा तीर्थ से प्रभावित थे। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक, गंगासागर अवश्य ही पौराणिक स्थान हैं लेकिन यहाँ से गंगा पूजा की शरुआत होना पूर्णतया सि( नहीं करता है। इन स्थानों का महत्व तब और बढ़ गया जब अमृत की बूंदे यहाँ पड़ीं...तब तक ये स्थान भी मात्र गंगा नगर से ही प्रसिद्ध  रहे होंगे, अन्य पौराणिक कथायंे भी इनसे अवश्य जुड़ी हंै किन्तु उससे इन क्षेत्रांे का धार्मिक महत्त्व ही सिद्ध  होता है न कि गंगा पूजा का विषय। अब देवप्रयाग भी पौराणिक कथाओं में कम समृद्ध  नहीं है, गंगा अपने अवतरण स्थल गोमुख से गंगासागर तक अपने पड़ाव बनाती गयी तो जिस प्रकार गंगा देवप्रयाग आयी उसी तरह अन्य जगहों को भी प्रवाहित हुयी, इससे यह सि( होता है कि देवप्रयाग सहित अन्य स्थानों का समान रूप से महत्व था। जब तक कुम्भ बूंदे उनमे नहीं पड़ी थीं। उस समय तक देवप्रयाग का स्थान उच्च रहा होगा क्योंकि यहीं से गंगा नाम पड़ा व यही गंगा तीर्थांे का प्रथम पड़ाव था। तो इस कारण गंगा प्रथम पूजन भी यहाँ से होना स्वाभविक ही है। बाद में कुम्भ के होने से अन्य क्षेत्र प्रसिद्ध  हो गए और देवप्रयाग को लोग भूलते गए। तब हिमालयी दुर्गम क्षेत्र होने के कारण भी यहाँ की गंगा पूजन की बात धुंधली होती गयी और वास्तविक बात लोग भूलते गए। साक्ष्य-प्रमाणों के अभाव में गंगा पूजन के विषय में भ्रांतिया बढ़ती गयीं और आधुनिक समय में हरिद्वार, काशी, प्रयाग गंगा पूजन में अग्रणी स्थान होते चले गए। आज निश्चित ही गंगा पूजा के लिए हरिद्वार, ऋषिकेष, काशी व प्रयाग अग्रणी हंै किन्तु मेरा पूर्ण विश्वास है कि गंगा पूजा देवप्रयागी समाज की देन है, आवश्यकता है तो इतिहासकारों व शोधार्थियों को इस विषय में साक्ष्य या प्रमाण समेटने की।
अयोध्य मथुरा काशी द्वारिका सेतुबंधकः। 
कांची गया कुरुक्षेत्रम बद्य्र्यआश्रम एव च।।
गंगा द्वारम् प्रयागश्च माया क्षेत्रम तथैव च।
देवप्रयाग तीर्थं च तीर्थानां तीर्थ मुत्तमम् ।।