गुरू, संत और भगवान


गुरू, संत और भगवान, इनसे इंगित सत्तायें हमारी चिर-परिचित हैं। सनातन धर्मियों में इनका अधिक बोलबाला है। तात्त्विक दृष्टि से गुरू और संत को एक ओर रखा जा सकता है और भगवान को दूसरी ओर। आधुनिक युग में अधिकतम हिन्दुओं ने इन तीनों सत्ताओं का घालमेल कर दिया है। जिसे गुरू मान लिया वह परम संत भी है और एकमात्र भगवान भी। इसीलिये आज के तथाकथित सभी गुरू, संत व भगवान दोनों बन गये हैं। प्रायः एक गुरू का दूसरे गुरू से मतभेद तो है ही, शाश्वत विरोध भी दृष्टिगत होता है। इन गुरूओं के कारण अनगिनत पंथ बन गये हैं। और एक पंथ दूसरे पंथ को दिग्भ्रमित मानता है। घनघोर गुरूभक्त अपने गुरू को सभी सनातनी देवों से श्रेष्ठ मानकर सभी पौराणिक दिव्य सत्ताओं में अपने गुरू को केन्द्रिय सत्ता मान कर उनके अंश स्वीकार करता है। इस प्रकार आज हिन्दु समाज सैकड़ों पंथों में विभक्त होकर अपनी सामुहिक शक्ति व कर्तव्य खो चुका है। जाति, उपजाति व्यवस्था से जर्जरित हिन्दु समाज अब एक ही जाति में नाना पंथिक समूहों में विभक्त हो गया है। हर गुरू अपने अनुयायियों की पृथक टोली, वेष-भूषा और कर्मकाण्डों का निर्धारण कर देता है। इन पंथिकों के धार्मिक ;?द्ध सम्मेलनों में भगवान के सिंहासन पर गुरूदेव को स्थापित किया जाता है। भक्तों से अधिक भक्तिमती नारियां सत्संग समागमों में नृत्य करती हैं और गुरू के कहने पर अपना सर्वस्व अर्पण करने को सन्न( हो जाती हैं। अंधश्र(ा के तिमिर में यदा-कदा वे गुरू की कामुकता की भी शिकार हो जाती हंै।
गुरूभक्त तर्क देते हैं कि उपनिषद युग से ही गुरू की महत्ता का बखान होता आया है। जिसकी देव में जैसी पराभक्ति है वैसी ही यदि गुरू में भी है तो उस अधिकारी को ही यह उपनिषद ज्ञान दिया जाना चाहिये। जो गुरू स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश है, साक्षात उस परब्रह्म गुरू को प्रणाम है। गुरू बिनु भवानिधि तरहिं कि कोई, जो बिरंचि संकर सम होई। बिना गुरू के निस्तार नहीं। महान भक्त कवियों-लेखकों ने सदैव ही 'वंदऊँ गुरूपद पदमु परागा' की भावना से ही अपनी कालजयी कृतियों का आरंभ किया है। कुछ अपवादों को छोड़ कर जितने भी महापुरूष हुये हैं, सब गुरू प्रसाद से ही आगे बढ़े हैं। जिस प्रकार भौतिक उन्नति में एक सच्चे मार्गदर्शक का होना आवश्यक माना गया है उसी प्रकार    आध्यात्मिक उन्नति भी बिना गुरू के नहीं हो सकती। प्राचीन भारत में गुरू आश्रम ही शिक्षा के केन्द्र थे और राजकाज में भी राजगुरू राजाओं का मार्गदर्शन करते थे। प्रतापी नरेश चन्द्रगुप्त मौर्य के मार्गदर्शक जिस प्रकार चाणक्य थे, उसी प्रकार छत्रपति शिवाजी की कीर्तिपताका में समर्थ गुरू रामदास का ही आशीर्वाद था। आज भी सभी आश्रमों, मठों में गुरूगद्दी विराजमान होती है। बालक नरेन्द्र को रामकृष्ण परमहंस का संस्पर्श नहीं मिला होता तो वे स्वामी विवेकानंद नहीं बन पाते, यह अब विश्व सत्य बन चुका है। मराठी भाषी स्वामी प्रज्ञानानंद हिन्दी ;या अवधीद्ध से पूर्णतः अनजान होते हुये भी बावन वर्ष की प्रौढ़ अवस्था में गुरू का वरद हस्त सिर पर पड़ते ही रामचरित मानस के सर्वश्रेष्ठ व्याख्याकार बन गये। आज भी सभी प्रख्यात गुरू अपने अन्तेवासी शिष्य की कठोर परीक्षा लेकर उसे गहरे अनुशासन में रखकर ज्ञानदान देते हैं और अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हैं। सच्चा शिष्य अपने प्राणों से भी अधिक गुरू को मानता है। उनकी आज्ञा पर सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार रहता है। दशकों तक गुरू सेवा करनी होती है, उनका लंगोटा धोना पड़ता है, तब कहीं गुरूप्रसाद का अधिकारी बनता है। सच्चे शिष्य का गुरू के सिवाय संसार में और कोई नहीं होता। बिना पूर्ण समर्पण के गुरूकृपा नहीं होती। शिष्य के लिये गुरू, ईश्वर का साक्षात विग्रह है, वही सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। इस प्रकार की ध्येय वाली निष्ठा और सेवा सुश्रुषा के बाद गुरू के दिवंगत होने पर जब शिष्य को गुरूगद्दी मिलती हे तो निश्चय ही वह भी अपने शिष्य-प्रशिष्यों से ऐसे ही ऐकान्तिक समर्पण की अपेक्षा रखता है। अपने गुरू द्वारा प्रयुक्त ध्यानप(ति, पूजाविधि और आचार-विचारों को आगे बढ़ाते हुये वह जाने-अनजाने एक विशिष्ठ पंथ का शुभारंभ कर देता है। गुरूभक्तों की एक मंडली बन जाती है, गुरू गद्दी, गुरू समाधि और निर्वाण तिथि के अनुरूप आयोजन होने लगते हैं। पत्र-पत्रिकाओं द्वारा गुरूमत का प्रचार- प्रसार होता है। गुरू की मूर्ति, छायाचित्र, कलैण्डर, धूप-अगरबत्ती, माला, दुपट्टा आदि सामग्री द्वारा अपने विशिष्ठ पंथ का जहां विस्तार होता है, वहीं दूसरे गुरू, संत, यहां तक कि सनातनी देव-देवियों की अवमानना भी होने लगती है। जो अपने गुरूमत के हैं, वे सच्चे, बाकी सब अज्ञान तिमिरांध में भटकने वाले हत भागी जीव जिनकी संगति भी घातक मानी जाती है। गुरू युग पुरूष, युग संत, युगावतार से बढ़ते-बढ़ते साक्षात परब्रह्म परमेश्वर का सिंहासन पा जाता है।
हर गुरू का शरीर सामान्य मनुष्यों की भांति पंचतत्वों से बना होता है। गुरू एक बालक के रूप में जन्म लेकर सामान्यतः शिक्षा ग्रहण करता है। यदि वह उद्दण्ड होता है तो भ्रमण, सत्संगति, से ज्ञानार्जन करता है। कुछ अपवाद छोड़ भी दें तो गुरू विवाह कर संतान पैदा करता है। उसमें बालपन से युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापा आता है। शरीर में रोग भी लगते हैं, उसमें आम पुरूषों की भांति दाढ़ी-मूंछे भी उगती हैं। कभी- कभार कैंसर जैसे भंयकर रोग से गुरू की मृत्यु होती है, उसकी अंत्येष्टी की जाती है, देह को जलाया, गाड़ा जाता है, जल     समाधि दी जाती है, उसकी काया भौतिक होती है जो विधिवत अंत्येष्टि न किये जाने की स्थिति में गलित होने लगती है। गुरू को जंगली जानवर भी मार सकता है। वह अल्पजीवी, दीर्घजीवी दोनों हो सकता है।
गुरू के ये सारे लक्षण संत में भी पाये जाते हैं। संत प्रायः कठोर, ऐकान्तिक  साधना से सि(ि लाभ करते हैं। सच्चा संत अपरिग्राही होता है, वह शिष्य भी नहीं बनाता है। ऊँचे संत त्रिकालदर्शी होते हैं। वे शरीर को छोटा या बड़ा बना सकते हैं, अदृश्य हो सकते हैं, एक साथ कई स्थानों पर प्रकट हो सकते हैंै। उन्हें प्रकृति पर विजय भी प्राप्त हो जाती है। संत की काया भी पंच भौतिक होती है, उसका अंतिम संस्कार किया जाता है। भक्तों की मान्यता है कि देह त्याग के बाद भी संत प्रत्यक्ष, परोक्ष रूप में मदद करते हैं। संतों और गुरूओं के स्थूल शरीरों में सूक्ष्म व कारण शरीर या पंचकोश विद्यमान होते हैं। प्रत्यक्ष अन्नमय कोश के भीतर मनोमय कोश, प्राणकोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश अवस्थित होते हंै।
अब भगवत् तत्व पर विचार करें। भगवान सर्वव्यापी व सर्वशक्तिमान हैं। मूलतः वे निराकार है। वे एक ऐसी सत्ता हैं जिसको जाना नहीं जा सकता। उन्हें अनन्य श्र(ा और भक्ति से मानकर ही अनुभव में लाया जा सकता है। ईश्वर सूक्ष्म से सूक्ष्म व महान से महान है। वे पंच इंन्द्रिय, मन, बु(ि, प्राण और अहंतत्व से परे है अतः इनके द्वारा उनको पकड़ा नहीं जा सकता है। ईश्वर सब कुछ कर सकता है अतः यह कहना कि ईश्वर अवतार नहीं लेता, उसकी सर्वशक्तिमत्ता का अपमान है। )ग्वेद के अनुसार न जन्मने वाला होकर भी बहुत प्रकार से जन्म लेता है। ;अजायमानो बहुधा विजायतेद्ध। जब अपनी इच्छा से ईश्वर प्रकट होना चाहता है तो वह मर्यादा के लिये अपने माता-पिता चुनता है और नर लीला वश सामान्य बालक की भांति दशम मास में अवतरित होता है किन्तु उसका शरीर माता- पिता की देन नहीं है, वह स्वयं ही रचता है। अपनी आत्ममाया का   आधार लेकर, वह जन्मता नहीं अपितु प्रकट होता है। कुमार अवस्था तक ईश्वर का अवतार सामान्य बालक की भांति परिवर्तित होते रहता है किन्तु वह फिर चिर युवा ही रहता है। उसकी दाढ़ी- मूंछे नहीं उगती, न देह पर वृ(ावस्था के चिह्न आते हैं। ईश्वर के शरीर में न तो पंचकोश होते हैं और न स्थूल सूक्ष्म या कारण शरीर ही। ईश्वर की देह में आत्मा नहीं होती, उसका सारा अस्तित्व ही परमात्ममय होता है। इसीलिये ईश्वर की देह का रंग नीलाभ दिखाया जाता है। वस्तुतः ईश्वर की देह की दिव्यता किसी अन्य तत्व से नहीं समझाई जा सकती है। हां शरद )तु के निर्मल, भव्य पूर्ण चन्द्र की आभा से उसकी कुछ-कुछ उपमा दी जा सकती है। बड़भागी )षि-मुनियों के बीच जब प्रभु राम बैठते हैं तो हर दिशा में वे सबको अपने सन्मुख ही दिखते हैं। ईश्वर की मृत्य भी नहीं होती, वे अन्तध्र्यान हो जाते हैंै। ईश्वर अव्यभिचारिणी भक्ति वाले दर्शनातुर भक्त के सामने उसके इच्छित रूप में  कभी भी, कहीं भी प्रकट होकर उसे कृतार्थ करते हंै। ईश्वर समग्र ज्ञान, योग, सांख्य, वेद, शास्त्र व कलाशिल्प का केन्द्र हैै, उद्गम स्थल है। उसकी बराबरी का कोई तत्व नहीं है अतः संत या कोई भी धर्मगुरू उसकी बराबरी कैसे कर सकता है? जो गुरू ईश्वर तत्व का स्वांग रच अपनी देह की उपासना करवाता है, वह अपने आत्मनाश की ही तैयारी करता है। श्र(ावश उसके शिष्य का उ(ार तो कदाचित हो भी जाये किन्तु ऐसे गुरू या संत अपनी ही अधोगति को आमंत्रित करते हंै। किसी भी संत या गुरू की देह तो सामान्य मत्र्य मानव की देह जैसी होती है, अतः उसकी पूजा या उसके चित्र की पूजा तो जड़तत्व की ही पूजा होती है। साधना से मन ऊँचा उठता है, आत्मा परिष्कृत होती है, जिनकी कोई मूर्ति या छवि नहीं बन सकती। अतः ईश्वर को छोड़ अन्य के विग्रह या रूप की उपासना जड़ उपासना है। उससे कुछ उपलब्ध होने वाला नहीं है। गुरू गोविन्द सिंह जी ने मात्र सिख पंथ पर ही नहीं समग्र मानवता पर उपकार किया है कि उन्होंने गुरू पूजा की बजाय सैकड़ों संत-भक्तों की अमृतवाणी से निसृत भक्ति ज्ञानतत्व का मूर्त रूप श्री गुरूग्रंथ साहिब के आगे मत्था टेकने की परंपरा चालू की और मानवी देह पूजा से मुक्ति दिलवाई।
जिस व्यक्ति से किसी भी प्रकार का लौकिक या अलौकिक ज्ञान लिया जाता है उसके प्रति श्र(ा होना आवश्यक है, इसमें अनुचित कुछ भी नहीं है। गीता कहती है श्र(ालु तत्पर और संयमी जिज्ञासु ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके लिये अभिमानहीनता, विनम्रता, सेवाभाव और निःसंकोचता अनिवार्य है। कबीर की भाषा में उत्तम शिष्य वह है जो गुरू पर सब कुछ न्यौछावर कर दे। किन्तु गुरू वह है जो शिष्य से कुछ भी न ले। इसीलिये कहा गया है कि गुरू ज्ञानाभिमान के कारण गुड़ ही रह गये जबकि शिष्य निराभिमानता से शक्कर बन गया। शिष्य की अपने गुरू में देवता सदृश श्र(ा होने में कुछ भी खतरा नहीं है। वह गुरू को ब्रह्मा, विष्णु, महेश या परब्रह्म, जो भी माने उससे शिष्य का कोई नुकसान नहीं होगा किन्तु सारी सावधानी गुरू को रखनी होती है। लोकेषणा और देहाभिमान सभी के लिये घातक है, गुरू आरैर संत के लिये तो विशेषतः। संस्कृत की एक सूक्ति के अनुसार किसी भी तरह का अभिमान सुरापान की तरह गर्हित है। गौरव चाहना रौरव नरक की चाहना है और अपनी प्रतिष्ठा करवाना मानों सूकरी की विष्ठा खाना ही है। अतः गौरव, अभिमान व प्रतिष्ठा त्याग कर तिनके से भी अधिक विनम्र होकर हरि का सदैव स्मरण करना चाहिये। सच्चा गुरू या संत न पैर छूने देता है, न किसी की सेवा स्वीकारता है। न माला पहिनने देता है, न जयकारे की अनुमति देता है। वह कामिनी, कांचन से दूर रहता है, वह न शिष्य बनाता है और न चेलों की अलग टोली ही बनाता है। वह आत्मप्रशंसा नहीं सुन सकता हैं वह अपना ज्ञान भी छुपाता है। वह मठ या आश्रम बनाने की अनुमति नहीं देता, फोटो भी नहीं खींचने देता। इसलिये सच्चे साधु भीड़ से या लोकेषणा से बचने के लिये कठोर व्यवहार करते देखे गये हैं। वे चरण उपासकों पर पत्थर या दण्ड से प्रहार कर उन्हें अपने समीप नहीं आने देते। वे कुवेश बनाकर आत्मगोपन करते हैं। इन सबका एक ही उद्देश्य होता है कि अपनी देह और ज्ञान का अभिमान न होने पाये। ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का मार्ग इसलिये आसान है कि भक्त भगवान के हाथ की कठपुतली बनकर अपना सारा व्यक्तित्व ही अपने अराध्य के चरणों में अर्पित कर देता है। जब कि ज्ञानी का ज्ञानाभिमान उसका अहंतत्व या देहाभिमान उसको परमतत्व में पूर्णतः विलीन नहीं होने देता। किसी भी सच्चे गुरूसंत या भक्त के लिये भौतिक प्रलोभन ईश्वर का अभिशाप है। छोटे शिशु को मां आकर्षक खिलौने इसलिये देती है कि स्वयं उससे वह दूर रह सके। जब तक बच्चा इनसे खेलता है, मां निश्ंिचत रहती है। किन्तु जब शिशु इन्हें फेंककर मां-मां चिल्लाकर उसके लिये मचलने लगता हे तो सारे काम छोड़ मां को आकर उसे अपनी गोद में उठाना ही पड़ता है। जगज्जननी के वात्सल्य पाने को सारे खिलौने त्यागने ही होंगे, यहां विकल्प है ही नहीं।