हिमालय पर भाषण


छिपकली को लगता है कि छत उसने ही संभाल रखी है। उसी भूमिका में कुछ लोग, संगठन, सरकारें अब हिमालय को थामने की सोच रहे  हैं। वे सोचते हैं कि यदि साल में एक बार हिमालय दिवस के दिन सेमिनार करके हम सरकारी पैसों को नहीं पचायेंगे तो हिमालय भरभराकर गिर जायेगा। सिर में कफन बांधे कुछ मुफ्तखोर वामपंथी कांग्रेसी शासन में सालों से ये तमाशे करते रहे हैं। पर्यावरण माफियाओं का यह ड्रामा भाजपा सरकारों में भी चालू है। इस संजाल को तोड़ना इतना आसान भी नहीं है।
क्या हुआ है हिमालय को? हिमालय है क्या? एक पहाड़, यही न? साल भर देश-विदेश के कुछ सनकी, कांटे-त्रिपाल लेकर इन चोटियों पर उत्पात करते हैं, गंद फेकते हैं, और फिर उसी उच्छिष्ठ  को हटाने के लिये हिमालय दिवस पर मंहगे कमरों में बैठकर  इसी दर्शन के सहोदर कुछ लम्पट लोग, हिमालय पर लेक्चर पेलते हैं। प्रकृति को भोग्या मानने वाली बाइबिली देशनायें पढ़कर इन मुल्कों ने वैसे भी जल, थल, नभ सब जगह उत्पात मचाया है, पृथ्वी को रौंदने वाली जीवन शैली को हम भारतीयों ने शायद गुलामी के कालखंड में अपना लिया, इसीलिये अब हम भी एवरेस्ट को फतह करने का जश्न मनाते हंै और उसमें कालीदास की 'अस्युतरास्याम...' का तड़का लगा पर्यावरण की काॅकटेल पार्टी करते हैं। अजीब दुनिया हो चुकी है। इन्हें कोई पहाड़  सीधा खड़ा अच्छा नहीं लगता जब तक कि उसके सिर को कुचल कर न आ जायें, फूलों को खिलने नहीं देते, चलो एक फूल तो ठीक है, भाई लोगों को बुके चाहिये।  हिमालय पर चढ़ना भी धंधा बना लिया है, कभी पेड़ों, समन्दरों, पहाड़ों और पुष्पों पर कवि लोग सौदर्य ढूंढ़ते थे, आज फूलों की खेती होती है। अब जब सब कुछ धंधा ही है तो सेमिनारों में बिसूरते क्यों हो प्रभु! हिमालय पर ये गंद डालने की संस्कृति उन्हीं लोगों ने दी है जिन्होंने पैसे हजम करने के ये नये मेले, ये 'दिवस' बनाये हैं।
वेदों में हिमालय का नाम इसलिये नहीं है क्योंकि हिमालय जिस भौगोलिक उथल-पुथल के बाद अस्तित्व में आया वह बहुत बाद की घटना है। वैदिक काल में हरिद्वार से ऊपर समुद्र था, जिस कालखण्ड में आस्टेªलिया अलग हुआ, उसी समय भारतीय द्वीप एशिया से जुड़ा जिसके दबाव के कारण हिमालय उठा। हरिद्वार के ऊपर का समुद्र लुप्त हुआ, सरस्वती लुप्त हुई, बंगाल के आसपास का क्षेत्र समुद्र से ऊपर उठकर प्रकट हुआ, बाद में भगीरथ के प्रयास से गंगा का मार्ग प्रशस्त हुआ वरना उत्तरप्रदेश और समस्त उत्तरापथ रेगिस्तान ही रहता। पौराणिक काल के लिक्खाड़ों ने तो हिमालय के अक्षत सौंदर्य से अभिभूत होकर उसे महायोगी शिव का प्रतीकात्मक घर ही बना दिया। कालीदास भी हिमालय के मुरीद थे। पर पश्चिम के लोग इस कारण हिमालय पर लट्टू नहीं हैं, उन्हें गौरीशंकर की ऊँचाई दग्ध करती है, इस कारण हर कोई उस पर विजय चाहता है। ये जो दिवस मनाने वाले एन.जी.ओ. माफिया ;वामपंथीद्ध हैं, वे पश्चिम के दर्शन को अहोभाव से देखते हुये हिमालय को वैसा ही पहाड़ मानते हैं, ग्लेशियर पीछे सरकने के लिये हिन्दुओं के कर्मकाण्ड को दोषी ठहराया जाता है, हरिद्वार के संतो, हिमालय में बसे जोगियों की कुटियाओं को गरियाया जाता है...पर एवरेस्ट को रौंदते इन पर्वतारोही बूटों की प्रशस्ति पूरे मीडिया में चलती है। क्या होगा चोटी पर चढ़कर?अब तो औरतों को भी इस ताड़ पर चढ़ाया जाता है। भाई लोगों! इससे बढ़िया चार खेत खोदते, घर, आंगन, गलियों की सफाई करते तो मोदी को इस तरह  स्वच्छता अभियान पर अपना गला नहीं थकाना पड़ता।
हिमालय पृथ्वी का अप्रतिम सौंदर्य है। हमारे जितने )षि-मुनि इस उपत्यका में बसे तो या तो वे पृथु, जमदग्नि, भगीरथ की तरह लोक कल्याण के लिये पानी की संभावना के लिये हिमालय की ऊँचाई चढ़े या फिर शांत होकर आत्मिक आनंद में डूबने के लिये हिमालय को हाथ जोड़े रहे। क्या भारतीय एवरेस्ट नहीं चढ़ सकते थे? पर इस तमाशे में समाज का क्या भला होगा, यही हमारे चिंतकों की बरीयता रही, इस कारण हिमालय शिव का पवित्र धाम बन सका। अमरनाथ भी तो पर्यटन है, पर वहां भारत के लोग विजेता के अहंकार में नहीं, श्र(ालु की विनम्रता लेकर जाते हैं। पर पश्चिम की गुलामी के कारण भारतीयों के मन में जो विजेता का कीड़ा घुसा उसी के कारण हिमालय में गंद फैल रहा है। एक जमाना था जब लोग केदारनाथ दर्शन से पूर्व दो दिन अनाज खाना बंद कर देते थे कि कहीं उस पवित्र भूमि में शौच न जाना पड़े। क्या इससे बड़ी पर्यावरण बचाने की विराट दृष्टि किसी सभ्यता के पास है? हिमालय को खतरा आप से  है...आप सबसे...हिमालय मात्र चट्टान से नहीं बनता। पेड़, पशु, पक्षी और हम सब हिमालयी आदमी जिनके जीवन को आप धर्मशाला समझ निर्विरोध घुसते रहे हो, भी हिमालय है। पहाड़ियों के पलायन से हिमालय आधा मर ही चुका है। कस्तूरी मृग, काखड़, घुरेड़ सब खा चुके। और जो पैसा नगाधिराज के नाम आ रहा है, उसे आप पचा लोगे...अब क्या बचाना भाई! हिमालय को सबसे बड़ा खतरा इन पर्वतारोहियों से है। ये फालतू की बहादुरी बंद करो और हम भारतीयों की तरह हाथ जोड़ो हिमालय को। हिमालय एक संस्कृति है...उस को समझे बिना, वहां के लोगों का दर्द समझे बिना ऐसे दिवस, ऐसे सेमिनार किस काम के हैं? बड़े शहरों में बैठकर हिमालय की स्लाइडें देखकर, ग्लीसरीन के आंसू बहा कर क्या ग्लेशियर गलना बंद हो जायेगा? हिमालय के चरणों में बैठे लोग जब पेड़ लगाते थे,  )तुचक्रों से आत्मीयता रख प्रकृति के प्रति अहोभाव रखते थे, तब हिमालय ठीक-ठाक था, पश्चिमी सभ्यता में रंगा आपका पर्यटन विभाग, गंगा के ऊपर भी दौड़ लगा रहा है, आचमन करने वाले श्र(ालु समझ नहीं पा रहे हैं कि संगम में डुबकी लगायें या बोट में बैठकर रोमांच का चप्पू चलायें, अब गंगा में भी नई सोच का गंद बढ़ रहा है, हिमालय को रौंदो, गंगा पर कूदो, फिर सेमिनार करके यहां भी पैसा बनाओ, ये तमाशा अब तो बंद करो भाई!