वैसे तो पशु-पक्षियों के पास भी भाषा है, परासंकेत हैं और मनुष्य से इतर जितना भी जीव-जगत है, वह मजे से अपना काम चला रहा है। न वहांँ भाषाओं के झगड़े हैं और न भाषागत राजनीति। दो विभिन्न प्रदेशों के जीवों के बीच कम से कम भाषा को लेकर कोई झगड़ा नहीं है। हम सभ्य हैं, भाषा हमारे लिए झगडे़ का विषय बन गई है। मनुष्य पहला प्राणी था, जिसने शरीर के अन्दर और महाविस्तार में फैली चेतना का अनुभव किया, उसने समझा कि वह मात्र शरीर नहीं है बल्कि शरीर तो कपड़ा है, पहनने वाला असली खिलाड़ी, चेतना का वह चैम्पियन तो कोई और है....वह जैसे-जैसे अन्दर और बाहर झांकता गया, अभिव्यक्ति सम्बन्धी उसकी आवश्यकतायें बढ़ती गई...वह संकेतों से बाहर निकलकर चित्रों पर आया। उसने लिपियां गढ़ी ताकि वह अपने अनुभव को संजो सके, भावी पीढ़ी को हस्तान्तरण कर सके...ज्यों-ज्यों उसके अनुसंधान चाहे वे भौतिक हों अथवा आध्यात्मिक रहे हों, बढ़ते गये...उसकी भाषा भी उसके ज्ञान का प्रतिबिम्ब बनने लगी.... आज संसार में जितनी भी भाषायें हैं, उनकी लिपि उसकी ध्वनि, उसका शब्द भंडार उस स्थान विशेष की मिट्टी में पलकर ही वृक्ष बना होता है। जिस तरह एक वृक्ष की प्रजाति दूसरे से न तो हीन और न ही श्रेष्ठ है, उसी तरह भाषाओं के तुलनात्मक नारे गढ़ना बेकार का काम है। छोटी-बड़ी उपलब्धियों के कारण ही भाषा को समाज में छोटा-बड़ा स्थान मिलता है। तुलसी की अवधी और सूर की ब्रज जैसी बोलियों ने क्षेत्रीय होकर भी हिंदी का शरीर बनाया। उनकी साहित्यिक-विलक्षणता के कारण हिन्दी को भी उन्हें प्रणाम करना पड़ा, अपने मुकुट में धारण करना पड़ा। भारत की अधिकतर भाषाओं का जीन-विन्यास संस्कृत से निकला है, इसलिये उन्नीस-बीस का फर्क होने पर भी सबमें एक समानता है।
देश पर आक्रमण हुये, अरबी, फारसी, उर्दू के साथ अनजान भू-भागों ग्रन्थों की संस्कृति, इस मिट्टी में मिलाई गई। शासकों ने शोषितों का वांग्मय, ज्ञान और आत्मिक अनुसंधान राख में बदला, हमारी भाषाओं के हाथ-पैर काटकर, उन पर विदेशी शब्दावली आरोपित की....परन्तु भारत की उर्वरा मिट्टी ने विषपान करके भी उल्टे विदेशी भाषाओं को ही समृद्ध बनाया, उन्हें अपनाया, उन पर अपना रंग चढ़ाकर एक नई संस्कृति को पलने-बढ़ने दिया... मोमिन, गालिब, फिराक जैसे शायर भारतीय संस्कारों के कारण उर्दू साहित्य के माणिक्य बने, उसी हिरण्यगर्भा भाषा को हम वर्षों से अपमानित कर रहे हैं वरना हमारे स्वागत पट्ट के पीछे 'एवं' 'को एंव' नहीं लिखा जाता। यही लोग कुंती को 'कुती' भी लिख देते हैं। हिन्दी की बिन्दी को वे साहित्य का फैशन शो समझते हैं। संस्कृत वांग्मय आज भी हिन्दी के कारण ही जीवित है। भारतीय भाषाओं की नेत्री हिन्दी ने उस परम-चेतना को अनुवादित करने वाली संस्कृत का ध्यान नहीं छोड़ा, हिन्दी इसलिये भी संस्कृत की एकमात्र उत्तराधिकारी है, क्योंकि दोनों भाषाओं का व्याकरण भले ही जरा सा दायें-बायें हो, पर उनकी लिपि एक है। सहोदर होने के कारण उनका दार्शनिक तेवर एक जैसा है।
अंग्रेजी ने तीन सौ साल तक देश में राज किया। मुगल शासकों के जहाँ मात्र धार्मिक आग्रह थे, पर अंग्रेजों ने और ज्यादा गहरी चाल चली...उन्होंने बलात् धर्म परिर्वतन की जगह ऐसे हिंदू में अधिक दिलचस्पी दिखाई जो कि मजहबी रूप से भले ही हिन्दू हो परन्तु उसकी भाषा, उसकी प्रतिष्ठा, उसका गौरव अंग्रेजी-संस्कृति से जुड़ जाय...और शायद यही कारण है कि अयोध्या में राम मन्दिर के कई पक्षधर अपने बेटों-बेटियों को ऐसी फैक्ट्रियों में भेजते हैं जहां उन्हें अंग्रेजी की जूठन घुट्टी की तरह पिलाई जाती है। ये वही बच्चे हैं जो आने वाले उस भारत की जनसंख्या के असली कर्ता-धर्ता होंगे जिस भारत में देश की भाषायें 'दासी' बनी होगी। विज्ञान के जितने आविष्कार हुये हैं, वे सभी अंग्रेजी भाषा-भाषियों ने नहीं किये। जर्मन, फ़्रांस, रूस, चीन, जापान जितने भी ताकतवर मुल्क हैं उन्होंने अपने देश की भाषा में अपने बच्चों के लिए विज्ञान, कला, साहित्य का एक आधारभूत ढांचा तैयार किया है। वैज्ञानिक शब्दों और कम्प्यूटर-तकनीक को उन्होंने अपने देश की सुगम सुबोध भाषा में ढालकर और भी कमाल पैदा किया है। जापान जैसा पिद्दा सा मुल्क जिसके पास न खनिज सम्पदा है न 'मैन-पावर' और न ही उन्होंने अपने देश में अनुसंधान का ऐसा टंटा-बंटा खड़ा किया है जैसा कि हमारे देश में है। लेकिन जापान ने अमरीकी टेक्नोलोजी से बने उत्पादों को जापानी दिमाग के पहिये लगाकर जब अमेरिका के बाजारों में ही 'जापानी बूम' पैदा किया तो गोरों के भी हाथ-पांव फूल गये। राष्ट्रीय अस्मिता को पहचान कर जब देशी बोली-भाषा में शिक्षा का ढांचा तैयार होगा तो भारत में भी जापान जैसी आर्थिक क्रान्ति होगी।
पर अपने बच्चे 'हैरी पाॅटर' के मीडिया-हाइप में चक्कर घिन्नी की तरह घूम रहे हैं। साहित्य की आत्मघाती विदेशी चासनी चाट रहे हैं। यह गोरखधंधा अंग्रेजों ने सारी दुनिया में किया। गुलाम जनता पर आर्थिक ओर राजनैतिक नियन्त्रण के लिये उन्होंने हमारी सांस्कृतिक विरासतों को सहेजने का नाटक किया, हमें पढ़ा, समझा और फिर उसमें सेंध लगाने के लिये उन्होंने शिक्षा तंत्र को छेनी की तरह इस्तेमाल किया। शेक्सपियर, मिल्टन, वर्ड्सवर्थ, किपलिंग को भारतीय बच्चे आज भी रट रहे हैं। प्रीस्टले, माइकल जैक्सन उनके आदर्श हैं। वे ऐसे भारतीय हैं जिनकी आंखे तो भारतीय हैं परन्तु उनकी दृष्टि, उनका दृष्टिकोण यूरोपीय हो चुका है। इसी सांस्कृतिक विकृति से सोच बदलती है, सोच भाषा में ढलती है। आज बड़ी कम्पनियाँ गांव-कस्बों तक पहुँचने के लिये, हिन्दी के साथ जो बलात्कार कर रही हैं, उसके कर्ता-धर्ता वही भारतीय-अधिकारी हैं जो इलियट और कीट्स को भजकर सत्ता के महंत बने हैं। यही तुर्रम-खां लोग 'हिन्दी' के गौरव को देख उबकाई करते हैं। परन्तु हिन्दी सबको निगलेगी, देश के प्रत्येक प्रान्त में पहुँकर इस भाषा ने बहुरूप धारण किये हैं। हिन्दी असल में भारतीय स्वभाव का शब्दमय रूप है। इसीलिये उसकी छवि, उसके व्याकरण उसकी सत्ता से छेड़-छाड़ करने वालों को वह सह-सुन रही है। अपने आत्मिक व्यवहार, अपनी गहराई और अपनी जड़ों के कारण कोई भी 'चाल' उसे निर्मूल नहीं कर पायेगी।
भारतीय वैज्ञानिक जो कि कम्प्यूटर साइंस में विश्वभर में अपनी धाक जमाये हुये हैं, यदि बचपन से अपनी बोली-भाषा में पले-बढ़े होेते, तो हो सकता है कि पतंजलि और पाणिनी की संतानें विज्ञान में भी देशी आवश्यकताओं को उबारने के लिए आगे आतीं, नये-नये विचार, आविष्कार करतीं तो भारत भी आज विश्व के अग्रणी देशों में होता, सौ करोड़ की जनसंख्या वाले देश को सुरक्षा परिषद में जगह पाने के लिए ऐसी याचनायें नहीं करनी पड़ती। अपने देश में 'हिन्दी-दिवस' मनाया जाता है। ढूंढ़-ढूंढकर ऐसी फाॅसिल-शब्दावली सरकारी संस्थानों में परोसी जाती है कि जिस व्यक्ति में हिन्दी सीखने की ललक हो, वह भी बिदक जाये...फाइलों की भाषा वैसे भी कोई अर्थ नहीं रखती। उसमें परिवर्तन करके, मात्र हिन्दी के नाम पर निकला 'बजट' पचाया जाता है। प्राथमिक शिक्षा से ही यदि विज्ञान, तकनीक की हिन्दी शब्दावली तैयार कर पढ़ायी जाय और अंग्रेजी साम्राज्य की स्वर्णिम संस्कृति में खोये इन 'काले-अंगे्रजों' के कान उमेठे जायें, मैकाले के मानस पुत्रों को पैसे की धमक में देशी-स्वभाव के साथ दुराचार करने की स्वतंत्राता न दी जाय,.. तब शायद हिन्दी-भाषा की पौध हरी-भरी हो सकती है। मदारियों की तरह 14 सितम्बर को हिन्दी की डफली बजाने से वह और भी हास्यापद हो रही है...हिन्दी की दुश्मन अंग्रेजी नहीं 'अंग्रेजियत' है, जिसका वायरस हमारे ही रक्त में है। उसका इलाज किसी के पास हो तो उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिये।
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