लिप्सा के शूल मुझे नहीं चुभते---


 


हर ईंट जतन से संजोयी 
कण कण सीमेंट का घोला 
अट्टालिकाएं खड़ी कर भी 
स्व जीवन में ढेला 
 
यह कैसा मर्म कर्मो का 
जीवन संदीप्त पा नहीं सकता 
नीली छतरी के नीचे कभी 
छत खुद की डाल नहीं सकता 
 
मुठ्ठी भर मजदूरी से 
उदर आग बुझ जाती 
चूं चूं करते चूजों देख 
तपिस विपन्नता की बड़ जाती 
 
चिकना पथ बनाते बनाते 
खुरदरी देह दुखने लगी है 
पथ के कंकर नगें पावों को 
फूल जैसे लगने लगी है 
 
हाँ खुदनशीब हूँ 
लिप्सा के शूल मुझे नही चुभते 
टाट के इस बिछावन में 
फूल सकून के हम चुनते। 
 
@ बलबीर राणा 'अडिग'