मोहन लखेड़ा हाज़िर हो


कई बार चमत्कार देखने को मिलते हैं। मै जिस ठेली पर खरबूजे खरीद रहा था, उसके सामने मोटर साइकिल  रुकी। दो स्टार वाली वर्दी पहने एक सज्जन गाड़ी को स्टैण्ड पर लगाकर ठेली की ओर मुड़े/ठेली वाले का हलक सूख गया--उसने झटपट आधे तुले खरबूजे फेंके और ठेली सरकाने लगा। 'सुनो भाईजी....रुको...खरबूजे क्या भाव है' ठेली वाले के साथ मैं भी आश्चर्य से इंस्पेक्टर को देखने लगा... यह बोली पुलिस की बाउन्सर-शैली से मेल नहीं खाती थी। वर्दी पहनते ही व्यक्ति जब आदमी से पुलिस बनता है तो वह आम जनता को ढोर-डंगर समझने लगता है, जिसे कि उसे हांकना है। ठेली, खोखे-खोमचे वाले जिप्सी व्यवसायी और पुलिस का यह रिश्ता, हमारे प्रशासनिक अन्तर्रंचना की पोल खोलता है। रोजगार की भागम-भाग में जहां छोटे व्यवसायी अनधिकृत रुप से अपने पांडाल लगाते हैं, वहीं इन्हें हटाने की जगह पुलिस उन्हे उल्टे दुधारु गाय समझती रहती है। हफ्ता देने के कारण ठेली, खोमचे वाले प्रशासनिक प्रबन्धन को ठेंगा बताकर जहां-तहां अपनी दुकान खोलते हैं, जिससे अराजकता और गुण्डागर्दी बढ़ती है। यातायात में अवरोध पैदा होने का मुख्य कारण पुलिस और ठेली व्यवसाय की यह अवैध रिश्तेदारी भी है। इसी स्खलित समीकरण के कारण पुलिस वाले जिस ठेली पर डंडा बजाते हैं, उसमें से धड़-धड़ किलो दो किलो सब्जी-फल, उनकी झोली में गिर जाते हैं। पुलिस जन जिस शब्दावली और व्यवहार के अभ्यस्थ होते हैं, उसका रियाज वे अक्सर इसी गरीब तबके के आस-पास करते हैं/परन्तु उस दिन ऐसा नहीं हुआ।
मैंने बर्दी की दायीं तरफ टंगी नेम प्लेट पढ़ी। मोहन लखेड़ा.....खैर...लखेड़ा जी ने उसी भाव से खरबूजे खरीदे, और तीन रुपये जो कि ठेली वाले ने उन्हें लौटाने थे, वे भी नहीं लौटाये....क्योंकि उसके पास चिल्लर नहीं थी, फिर ले जाना साब! और लखेड़ा जी मान गये...मुझे विश्वास नहीं हुआ...क्या कोई पुलिसमैन इतना सहृदय भी हो सकता है/आश्चर्य ठेली वाले को भी हुआ। और वह विस्मय से दूर जाती उस मोटर साइकिल को देखता रहा, जो अक्सर यमदूत की तरह आम जनता को रौंदती रही है।
पुलिस बल का यह चरित्र सारे ग्लोब में एक जैसा है। हांलाकि लार्ड काण्डन जैसे अधिकारी भी हुए जिन्होंने इग्लैण्ड की पुलिस में व्यापक परिवर्तन किये और वहां के बदनाम 'बौबी' को सहायता कर्मी का पर्याय बनाया...काण्डन ने खतरनाक अपराधियों, उग्रवादियों के विरूद्ध  पुलिस की नव-सज्जा तो की ही, साथ ही उन्होंने उसकी शुचिता और चरित्र की ओर विशेष ध्यान दिया। पुलिस, जो हमारे ही बीच के मनुष्य हैं, वे सामाजिक प्राणी होने के नाते अपनी अच्छाई और बुराई के गुणों को पुलिस क्वार्टर तक पहुँचाते हैं। इसीलिये भर्ती के समय सरकार को पुलिस-भर्ती के मानक गढते समय उसकी लम्बाई चौड़ाई नहीं बल्कि उसकी चारित्रिक गहराई भी देखनी चाहिये....कोई अभ्यर्थी यदि कद में छोटा हो लेकिन चारित्रिक दृढ़ता में वह वटवृक्ष की तरह हो, जिसे कोई हिला न सके, तो उसे पुलिसबल में प्राथमिकता दी जानी चाहिये। व्यक्ति का चरित्र एवं उसके अन्य गुण नापने के आजकल बहुत उपाय खोजे जा चुके हैं। पुलिस बल में यदि चरित्रवान लोगों की भर्ती को प्राथमिकता दी जायेगी तो अपराधों का ग्राफ घटेगा, पुलिस की विश्वसनीयता बढ़ेगी।
मुझे एक सड़क दुर्घटना की याद है जिसमें एक पुलिस कर्मी भी गम्भीर रुप से घायल हुआ था....'अबे इसे फेंकों, औरों को बचाओ' जैसे वाक्य सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। आम जनता के मन में पुलिस के प्रति जैसी घृणा, और हिंसा है, वह अकारण भी नहीं हैं। उस घृणा के बीज स्वयं पुलिस ने बोये हैं। चरित्रहीन व्यक्तियों का गिरोह यदि शक्तिवान हो जाय, उसे व्यापक प्रशासनिक अधिकार दिये जायं तो इसके परिणाम अच्छे कैसे निकल सकते हैं? पुलिस बल या तो स्वयं अपराध में लिप्त पाये जाते हैं या वे सुनियोजित ढंग से अपराधियों का इस्तेमाल कर जनता को हड़काते रहे हैं। उसे लूटते रहे हैं। और शायद यही कारण था कि 'तेरी सौं"  नामक गढ़वाली फिल्म में जब दरोगा पिट रहे थे तो पूरा हाॅल तालियों और सीटियों से गूंज रहा था.......मुझे इस घृणा से सिहरन होती है। लेकिन जिस तरह मुजफ्फरनगर कांड में मुलायम सरकार के शासन में सुनियोजित ढंग से पुलिस ने जिस तरह जनता पर बलात्कार किया, वह पूरा काण्ड हमारी पुलिस की खौफनाक शक्ल बनाता है। और मजा देखिये कि यह भयंकर क्रूर दैत्य जनता की कमाई पर पाला जाता है, और शायद यही जनता के गुस्से का कारण भी है।
उत्तरांचल बनने के बाद जिस तरह एक क्षेत्र विशेष के पुलिस मैन राज्य से बाहर किये गये उससे हमारे राज्य और बड़े शहरों में चैन लौटने की उम्मीद है। क्षेत्रीयतां और उसके प्रति स्नेह, मानव का स्वाभाविक गुण है। आपराधिक पृष्ठभूमि पर पले-बढ़े लोग जब शान्त पहाड़ी इलाकों में सरकारी डन्डा लेकर घुसते हैं तो क्षेत्र के प्रति उनके मन में दायित्वबोध नहीं होता। वह मित्रता की जगह 'दमन' की शैली अपनाता है। अराजकता को प्रश्रय देता है। जिसका जीता जागता नमूना उत्तरांचल की राजधानी है। सज्जनों और विद्यार्थियों का यह शहर जिसमें कि होली पर भी आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई रंग नहीं लगाता था, उस शहर का शिल्प यदि खराब हुआ तो उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी पुलिस बल की है। जिन्होंने प्रशासन को तबेला बना दिया। पहाड़ी लोगों के त्रस्त होने और उबल कर भाप बनने का एक मुख्य कारण पुलिस-बल का पक्षपात पूर्ण रवैया भी रहा है। जिसका प्रमाण उत्तराखण्ड आन्दोलन है। जिसमें शान्तिपूर्ण जुलूसों पर अकारण लाठीचार्ज किया गया। भोली-भाली जनता को गोली से उड़ा दिया गया और प्रशासन की धूर्तता देखिये, मुलायम और मायावती ने ऐसे अधिकारियों की न सिर्फ पीठ ठोंकी बल्कि उनकी पदोन्नति भी की ।
मोहन लखेड़ा का मित्र चेहरा, नये राज्य में आक्सीजन का प्रतीक है। चैराहों पर खड़ी ट्रैफिक पुलिस बनी पहाड़ी लड़कियां जब शाम को पैसों की ऐंठ में बिदक रहे वणिक्-पुत्रों को रोकती हैं, तो वे उसे 'कट' मारकर हंसते हुए निकल जाते हैं....पहाड़ी उन्हें पुलिस वेश में भी इस स्तर के नही लगते कि उनसे डरा जाय....ठेली वाला, एक पहाड़ी इन्सपेक्टर के तीन रुपये मार देता है, कोई बात नहीं....ऐसी बातों पर मोहन लखेड़ा को गुस्सा नहीं आना चाहिये। इस नये राज्य की नींव पर जिन शहीदों ने अपने रक्त का टीका लगाया था, उसे विकास के मार्ग पर ले जाने में मोहन लखेड़ाओं की बहुत सार्थक भूमिका हो सकती है। इन छोटी-छोटी बातों को नजर अन्दाज कर यदि हमारा नया पुलिस बल अपराध के विरुद्ध  कड़क हो जाय, अपनी ईमानदारी को राज्य का लक्ष्य समझे तो हम इस भूमि को सचमुच देवभूमि बना सकते हैं। वैसे हर अपराध के साथ राज्य के बडे़ जुड़वां अखबार, जिस तरह 'देवभूमि' का मजाक नत्थी करते हैं, उसे पहाड़ का आदमी बहुत गम्भीरता से समझ रहा है। (२००५ का एक लेख )