‘न दैन्यम् न पलायनम्’


(स्वामी सत्यमित्रानंद जी  का वह भाषण )


पहले मैं बैठा था आप खड़े थे। अब थोड़ी देर आप बैठिये... मैं खड़ा रहूँगा..क्योंकि जब तक सन्यासी और संत समाज खड़ा नहीं होगा... यह राष्ट्र जागृत नहीं होगा' स्वामी सत्यमित्रानन्द के इन्हीं शब्दों पर देहरादून का विराट जन-समूह देर तक करतल ध्वनि करता रहा....भाषा के प्रखर शिल्प पर वाणी का वैसा निष्णात आरोह लोगों को चकित करता रहा। कथा-प्रसंगों, उदाहरणों के साथ अपने सुसंस्कृत उच्चारण से सम्भाषण को सम्मेलन की उपलब्धि बनाते, इस गैरिक सन्यासी के चरणों में मन बार-बार झुकता था। राजनीति से लेकर आतंकवाद और भ्रष्ट आचरण के अनियंत्रित अश्व को चाबुक मारती उनकी चुटीली भाषा साधु-समाज के नये तेवर को रेखांकित करती थी। दूसरे ही पल देववाणी संस्कृत के श्लोकों की पुष्पवर्षा सम्पूर्ण जनसमूह को प्राचीनता के उस विहंगम संसार में ले जाती थी.... जब भारत का प्रत्येक क्षण मणिखचित था।
भारतीय संस्कृति की मेरुदण्ड बनकर राष्ट्र के प्राण को सदा जीवंत रखने वाली 'मातृशक्ति' के आभार से सम्भाषण आरम्भ करते स्वामी सत्यमित्रानन्द ने देहरादून के विराट हिन्दू सम्मेलन को नये अर्थ दिये। विभिन्न धार्मिक-त्यौहारिक अवसरों पर मातृशक्ति द्वारा जिस अन्न, धन का दानपुण्य होता है उसे ही सत्यमित्रानन्द जी भारतीय-संस्कृति का आधार मानते हैं, जो नैवेद्य भगवान को अर्पित होता है उसे प्रभु नहीं लेता, परन्तु संसार पर अपनी कृकृपा करता है, दूसरा प्रतिनिधि देवता होता है जो यज्ञ की 'हवि' लेता है, परन्तु बदले में पर्जन्य, वर्षा और अन्नधन के चक्र को चलाकर दस गुना वापिस कर सकता है। स्वामी जी ने हास्य किया कि सन् सैंतालिस के बाद देवताओं की जगह नेताओं ने हथिया ली...यह 'नेता' सिर्फ लेता है, देता कुछ नहीं...स्वामी जी ने गर्जना की कि अब लक्ष्मीनारायण, बद्रीनारायण के अतिरिक्त उस दरिद्रनारायण की भी चिन्ता होनी चाहिए, ताकि 'नारायण' प्रसन्न हो सकंे। भारतीय समाज की समरसता को विखंडित करती शक्तियों को चीह्नने के साथ समाज के स्वभाव और आचरण में अपेक्षित परिवर्तन की आवश्यकता पर उन्होंने बल दिया। अनेक ऐतिहासिक भूलों, छल-छद्मों के प्रसंग पर उनके व्यथित स्वर में राष्ट्र की चिन्तायें थीं...उन्होंने कहा कि हिन्दुओं ने कभी किसी भू-भाग पर आक्रमण नहीं किया  / किसी सभ्यता, किसी मान्यता का अतिक्रमण नहीं किया...और हिन्दू राजाओं पर जब आक्रमण हुआ तो उन्होंने पलट कर जोरदार आक्रमण किये। स्वामी जी ने व्यंग्य किया कि हमें झूठे इतिहास लेखन द्वारा विजित जाति बनाया गया...हम पर अपनों ने आक्रमण किये/कर रहे हैं...प्रगतिशील कहे जाने वाले आत्मघाती वामचिन्तन के दूरगामी परिणामों पर सत्यमित्रानन्द जी अधिक चिन्तित थे क्योंकि पाखण्डपूर्ण और पूर्वाग्रह से लिखा गया षडयन्त्रकारी इतिहास, साहित्य, रंगमंच किस तरह सामाजिक समरसता को भंग करता रहा है, किस तरह इन धूर्त लोगों ने भारतीय समाज के बहुस्तरीय शिल्प को कचरे के ढेर में बदला है...उन सभी प्रश्नों को देहरादून के श्रोताओं के सम्मुख रखकर स्वामी जी ने आ“वान किया कि फ्मित्रों! इन सभी प्रश्नों के 'उत्तर' यह 'उत्तर दिशा' ही देगी... क्योंकि इसी उत्तराखण्ड ने सदा सलिला गंगा-यमुनायें दी हैं। ज्ञानियों, ध्यानियों, ऋषियों, तापसों को समाधान दिये हैं इसलिए राष्ट्र की समस्त चिन्ताओं के उत्तर भी उत्तराखण्ड से आयेंगे।
भारत की गौरवमयी स्मृतियों, थातियों और वांग्मय के विराट संसार में विचरण कराते सत्यमित्रानन्द जी गैरिक रुद्र की आभा से आवेशित लगते थे...हल्दीघाटी के प्रसंग पर राष्ट्र के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले 'चेतक' जिसे आज की व्यापारिक सभ्यता ने स्कूटर बना दिया है, के प्रसंग पर उनकी करुणा छलक उठी...और रामकथा से एकमेक होकर उन्होंने जब घायल जटायु का प्रसंग छेड़ा तो पूरा वातावरण आद्र हो उठा..सीता रूपी संस्कृति के अपहरणकत्र्ता से भिड़कर आत्मोत्सर्ग करते वीर के रिसते घावों को देख जब वनवासी राम विवश हो उठे... राम के पास कोई उत्तरीय नहीं था तो उन्होंने अपनी धूल-धूसरित जटाओं को खोल जटायु का रक्त पोंछकर तिर्यक वर्ग को जो सम्मान दिया, वह अभूतपूर्व था। मातृशक्ति की रक्षा के लिए तिर्यक वर्ग तक ने बलिदान दिये...परन्तु कांग्रेस शासन निर्लज्ज होकर किस तरह असामाजिक तत्वों को संरक्षण दे रहा है। उससे पूरा समाज हताश है... रामकथा की करुणा के सागर को 'गंगा' अवतरण की तरह धारा प्रवाह करते स्वामी सत्यमित्रानन्द जनसमूह को कुंभस्नान जैसा तीर्थ कराते रहे... उन्होंने मंच पर ही करुणा का ऐसा स्तूप खड़ा किया कि मन का मोम पिघलकर उनके श्री चरणों में गिरता रहा... परन्तु भावुकता की इसी गीली जमीन से उठकर स्वामी जी ने उन्नत होकर मनमोहन सिंह और अर्जुन सिंह जैसे नेताओं के गरिमाहीन वक्तव्यों की ओर जनसमूूह का ध्यान खींचा और यहीं से वे गीता के ठीक मध्य मेें बैठे कुन्तीपुत्रा अर्जुन के समक्ष खड़े होकर पूरे जनसमुदाय को कुरुक्षेत्रा में ले आये...उन्होंने कुन्तीपुत्रा की प्रतिज्ञाओं को दोहराते हुए हिन्दु समाज को ललकारा 'न दैन्यम् न पलायनम्' न मैं भारतीय संस्कृति की आत्मा अर्थात् ओजस्विता को छोडूँगा चाहे कुछ भी कष्ट क्यों न आ जाय और न मैं पलायन करुंगा...भारतीय समाज जब तक अपनी पुस्तकों, प्रतीकों से अलग खड़ा होकर उसके मूल सन्देश को नहीं पढ़ेगा, तब तक वह अपनी पुरातन मुखाकृति नहीं पा सकता...हिन्दू किसी पर अनावश्यक आक्रमण न करे लेकिन वह घोड़े-गधों में चढ़कर आये रेतीले डाकुओं से डरकर जैसा भागता रहा, वह शर्मनाक है... समाज में यदि हनुमान की तरह 'यदि तुम मुझे एक मारोगे तो मैं चार मारुंगा' जैसी ओजस्विता नहीं होगी तो न उसे देवताओं को पूजने का अधिकार है और न इस तरह साधु-सन्तों का राष्ट्र के लिए कोई अर्थ है। उन्होंने चेताया कि तब ऐसे हिन्दू के पास हिन्द महासागर में आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
पुष्पवर्षा के मध्य लोकप्रियता के मंगल कलशोें, उद्घोषों का आचमन करते हुए तैंतीस वर्षों तक राष्ट्र का जागरण करते श्री गुरुजी के वैचारिक उत्तराधिकारी  सत्यमित्रानन्द ने मंच से उतरने के पूर्व पूरे भारतीय समाज का आ“वान किया... कि हम क्लान्त क्यों है? हजारों संकटों, कष्टों और विपदाओं के पश्चात् भी जब हमारे राम सदा मुस्कराते हैं तो उनको पूजने वाला लोकमानस इतना हताश क्यों है? न दैन्यम् न पलायनम् की प्रतिज्ञा करने वाले नरश्रेष्ठ अर्जुन का गांडीव जब सत्य के लिये अपने बन्धु-बान्धवों की गर्दन तक नापता रहा उस देश का छात्रा तेज आज अपनी दैनन्दिनी में व्यापारिक भाषायें क्यों बोलता है? और हमारे कृष्णलला... जिन्होंने ज्ञान की सघनता को भी लोकवस्त्रों की तरह ओढ़कर शास्त्रों को पठनीय बनाया, जिन्होंने प्रेम के इन्द्रधनुष को जीवन भर तानकर इस संसार में मानवीय मूल्यों को सावन-भादों की तरह बरसाया जिस कृष्ण ने भक्ति और दर्शन के गूढ़ रहस्यों को गो-पालकों के खेल में बदलकर जीवन को त्योहार बनाया, जिस कृष्ण का स्मित स्वयं उत्सव है....उसको पूजने वाला समाज दुखी क्यों है? वह कुछ विक्षिप्त लोगों के धमाकों को सुनकर भयभीत क्यों है? वह ऐसे कायर हत्यारों के सम्मुख नतमस्तक क्यों है? उसके ओंठों पर आंेकार की हुंकार क्यों नहीं है? स्वामी सत्यमित्रानन्द ने हाथ उठाकर ललकारा...यदि आत्मगौरव से भरपूर समाज की स्थापना करनी है तो पार्थ की तरह प्रतिज्ञा करो 'न दैन्यम् न पलायनम्' न मैं दीनता दिखाऊँगा और न पलायन करुंगा...इत्यलम्।