फिट है तो हिट है


मानव इतिहास के सबसे बड़े वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन को सन १८३१ में बीगल नाम के जहाज़ से दूर यात्रा कर दुनिया को जानने-समझने का मौका मिला। जगह-जगह के जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, कीट-पतंगों को जाँचतेदृपरखते हुए और उनके नमूने जमा करते हुए अपने अवलोकनों और विश्लेषणों से वे इस निष्पत्ति पर पहुँचे कि सभी प्रजातियाँ मूलरूप से एक ही जाति की उत्पत्ति हैं। इन मूल जीवों की परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को ढालने की विवशता ने ही प्रजाति-विविधता को जन्म दिया है। डार्विन की 'ओरिजिन आॅफ द स्पेसीज' के मुताबिक क्रमिक विकास में एक प्रजाति के बीच जीवन संघर्ष में कुछ जमीन पर रहने लगे, कुछ पेड़ों पर बस गए तो कुछ पानी में, जिसके चलते उनके अंग उसी हिसाब से विकसित होते गए और लाखों वर्षों में ये अंतर इतना बढ़ गया कि प्रजातियां एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हो गईं। इसी से संबंधित एक प्रसि( कहावत, 'सर्वाइवल आॅफ द फिट्टेस्ट' अर्थात 'सबसे योग्य ही जिंदा रहता है', को भी डार्विन के सिद्धान्त के रूप में जाना गया, मगर असल में यह फ्रेज प्रसि( समाजशास्त्री तथा दार्शनिक हरबर्ट स्पेन्सर ने मुख्यतः भौतिक दुनिया के प्रगतिशील विकास, मानव संस्कृति और समाज के विकास की अवधारणा के लिए दिया था। डार्विन की नजर में 'फिट्टेस्ट' का मतलब तंदुरुस्त या ताकतवर होने से नहीं था बल्कि प्रतिकूल वातावरण में भी अपने को प्रकृति के सुविधानुसार ढालकर जीवित रहने के लिए भोजन प्राप्त करने और फिर प्रचुर मात्रा में अपने वंश को आगे बढाने की क्षमताओं से था। कहने का तात्पर्य है कि जीव हो या वनस्पति, जो अपने आप को परस्थितियों के अनुसार ढालने में निपुण होता है, प्रकृति उसी का संरक्षण करती है, इस प्रक्रिया को डार्विन ने 'प्राकृतिक वरण' या 'प्राकृतिक चयन' से परिभाषित किया हैं। इस लेख का उद्देश्य जीव विज्ञान की गहराईई में न जाकर डार्विन के 'नेचुरल सिलेक्शन' और हरबर्ट स्पेन्सर  के 'सर्वाइवल आॅफ दी फिट्टेस्ट' के कथन को मध्यनजर रखते हुए, मानव जीवन के अनेक कार्यकलापों विशेषतः आर्थिक  और सामाजिक जगत में व्याप्त प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता का विश्लेषण करना है। यह स्पष्ट है कि प्राकृतिक क्रमिक विकास और मानवकृत विकास दोनों एकदम अलग-अलग परिणाम हासिल करते हैं। ये जानना भी जरुरी है की इंसान द्वारा किया गया कृत्रिम विकास अगर प्रकृति के साथ ताल मेल नहीं खाता है तो उस परिस्थिति में 'प्राकृतिक चयन' के सि(ांत के अनुसार विनाश की सम्भावना अधिक हो जाती है। 
मनुष्य एक बु(िमान प्राणी है जो अपने खुद के संरक्षण के लिए अपनी बु(ि का प्रयोग कर कृकृत्रिम विकास करता है, भले ही वह कुदरत को मंजूर हो या नहीं। इसलिए प्रत्यक्षतः मानव पर डार्विनवाद कम और हर्बर्ट स्पेंसर की फ्रेज अधिक लागू होती दिखाईई देती है। क्योंकि अगर मनुष्य प्रजातियों पर डार्विन का सि(ांत लागू होता तो संभवतः दीन-हीन, कमजोर, बीमार, कामचोर, आलसी इन्सान समय के साथ स्वतः ही लुप्त होते जाते लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि मानवकृत सामाजिक आथर््िाक विकास मनुष्य का कृत्रिम संरक्षण करती है, जिसका प्रतिफल प्राकृतिक संरक्षण के विपरीत होता है। डार्विन के क्रमिक विकास में प्रकृति योग्यतम का चयन करती है जबकि मैनमैड विकास में कमजोर और अयोग्य को भी जीने के काबिल बनाने के प्रयास होते हैं। बिना मेहनत के खाने वाले के लिए धर्म, मानवता, दान-पुण्य जैसी कपट-प्रबंधों के अंदर भोजन की सुविधा दी जाती है। हमारे देश में सत्ता प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के प्रलोभन देने की व्यवस्था भी इसी कृकृत्रिम विकास में शामिल है। सबसे प्राचीन सामाजिक विकास की बात करें तो पूरे विश्व में हिंदुस्तान का नाम सबसे पहले आता है। परन्तु पांच हजार साल के सामाजिक मानवीय गुणवत्ता का अवलोकन करें तो देख सकते हैं कि इसमें लगातार गिरावट दर्ज हुईई है। भीष्म, कर्ण अर्जुन से लेकर पृथ्वीराज, महाराणा और शिवाजी, मंगल, लक्ष्मी बाईई, भगत सिंह.. जैसे मानव कम होते चले गये क्योंकि बाहरी दुश्मनों से व्यवस्थाओं का संरक्षण योग्यतम ही कर सकता है और इस संघर्ष में अधिक तर वीर योद्धा  अपने देश और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देते हैं, परिणामस्वरूप समाज से ऐसे लोगों की आबादी कम होती जाती है, जबकि कायर और भीरु गिरगिट की तरह रंग बदल बदल कर जिन्दा रहते हुए अपने वंश को आगे बढाते रहते हैं। हमारे पूर्वज अपने प्राकृतिक संसाधनों को देवतुल्य समझते थे ताकि उनका संरक्षण होता रहे लेकिन समय के साथ इन स्रोतों को दूषित करने वालों की तादात बढती चली गयी। इस तरह मैन मैड विकास में मानव वस्तियों और उनकी जरूरतों में सतत बढ़ोतरी से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता जाता है जबकि प्राकृतिक विकास संतुलन और गुणवत्ता दोनों के संरक्षण का नाम है। मनुष्य के पक्ष में कृकृत्रिम विकास के फायदे तो हैं मगर प्रकृति के लिए नुक्सान भी कम नहीं हैं।    
आदिकाल से ही मानव विकास का इतिहास संसाधनों पर कब्ज़ा करने से लेकर वैचारिक मतभेदों के चलते खून खराबों से भरा पड़ा है, लेकिन जीवन और संघर्ष कभी ख़त्म नहीं हुआ है। आज वही इन्सान कामयाब है, जो शारीरिक, मानसिक और आर्थिक  तौर पर कुशल हो। हर साल दो लाख से भी ज्यादा छात्र आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा में बैठते हैं और आठ लाख से ज्यादा इन्जीनियरिंिंग के छात्र 'गेट' की परीक्षा में भाग लेते हैं। मगर इन सभी में मोटे तौर पर समानता होते हुए भी कुछ अपना नाम तालिका के प्रथम दस में दर्ज कराते हैं तो कुछ अंतिम दस में स्थान प्राप्त करते हैं। इसका विश्लेषण अलग-अलग तरीके से किया जा सकता है। क्या श्रेष्ठता तालिका में अंतिम स्थान प्राप्त करने वाले छात्र मेहनत करने में पीछे रहे और समय की मांग के अनुसार अपने आप को प्रतियोगिता के अनुसार नहीं ढाल पाए? ठीक इसी तरह खेलों में भी देखा जा सकता है, कईई खिलाड़ी प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए प्रयास करते हैं लेकिन कुछ ही खिलाडी चयन प्रक्रिया के आगे जाने में कामयाब हो पाते हैं। गोल्ड, सिल्वर और ब्रोंज मैडल हासिल करने वाले खिलाडियों के अभ्यास और मेहनत में अधिक अंतर न रहते हुए भी इन तीन स्थानों के मूल्यांकन में बहुत अधिक फर्क आ जाता है। अभ्यास और फिटनेस के संघर्ष में प्रकृति जिस श्रेष्ठतम का चयन करती है वह गोल्ड मैडल विजेता बनता है। जीवन के हर क्षेत्र में जीतने वाले में कुछ ऐसा गुण मौजूद होता है जो उसे विजेता बनाता है और प्रकृति उसका चयन करती है। लेखन के क्षेत्र में सैकड़ों प्रतिभाशाली लेखकों में से एक लेखक की किताब को 'बेस्ट सेलर' का नाम मिलता है तो भले दूसरी किताब पहली की कसौटी पर खरी न उतरती हो फिर भी उस लेखक की किताब अधिक बिकने लगती है। कहने का तात्पर्य है कि जीवन संघर्ष में किसी भी क्षेत्र में योग्यता सिद्ध  होना बहुत मायने रखता है। देश के वर्तमान सुरक्षा सलाहकार श्री अजीत डोभाल के बारे में पूरा देश जानता है कि श्री डोभाल इस पद के लिए योग्यतम व्यक्ति हैं, क्योंकि वे इस क्षेत्र में अपनी योग्यता कईईबार साबित कर चुके हैं। 
अक्सर सुनने में आता है कि देश की ८0 प्रतिशत दौलत सिर्फ २0 प्रतिशत लोगों के पास ही क्यों है? धनवान अधिक धनवान क्यों बन रहा है? इसका जवाब जानने के लिए एक कड़वी सच्चाईई से साक्षात्कार करना आवश्यक है कि अगर पूरी दुनिया की सम्पति का विश्लेषण किया जाय तो आंकड़ा चैंकाने वाला मिलता है। एक सर्वे के अनुसार ७ अरब से अधिक जनसँख्या में से मात्र एक प्रतिशत लोग पूरी दुनियां की आधी सम्पति के मालिक हैं, इनको सुपर रिच कहा जाता है, इनके साथ यदि दूसरी श्रेणी के धनाढ्यों को भी साथ लिया जाय तो कुल मिलाकर२0 प्रतिशत जनसंख्या का दुनिया के ८0 प्रतिशत खजानों पर कब्जा है, बाक़ी अन्य ८0 प्रतिशत जनसँख्या को दुनियां की सम्पूर्ण दौलत का मात्र २0 प्रतिशत पर ही संतोष करना पड़ता है। ये भी कहा जा सकता हैं कि यह ८0 प्रतिशत जनसँख्या उपभोक्ता है और २0 प्रतिशत जनसँख्या आन्ट्रप्रनुर या ठेकेदार हैं। यही अनुपात हर एक स्तर पर देखा जा सकता है, अगर इस अंतर को कम करना है तो अधिक लोगों को उपभोक्ता की श्रेणी से निकल कर उद्यमियों की श्रेणी में आना होगा। विलफ्रेडो पेरेटो नाम के अर्थशास्त्री ने अपने देश इटली के टैक्स का व्योरा लिया तो वे ये जानकार हैरान थे की देश के कुल रेवेन्यू का ८0 प्रतिशत भाग मात्र २0 प्रतिशत  टैक्स दाताओं के द्वारा जमा होता है। इस अनुपात का अवलोकन विश्व के अन्य देशों से किया तो परिणाम कुछ ऐसा ही आया। हरबर्ट स्पेंसर के फ्रेज़ 'सर्वाइवल आॅफ़ द फिट्टेस्ट' के आधार पर पेरेटो ने प्राकृतिक चयन को मानव विकास से जोड़ते हुए एक सि(ांत दिया जिसका नाम है ८0/२0 नियम। इस नियम के अनुसार, जीवन में अधिकांश चीजें जैसे सफलता, उपलब्धि, प्रयास, इनाम, आउटपुट इत्यादि समान रूप से वितरित नहीं होते हैं। किसान खेत को एक सामान जोतता है, एक सामान बीज बोता है लेकिन २0प्र0 बीज ही ८0प्र0 उत्पादन देते हैं। किसी भी सिस्टम में ८0 प्रतिशत आउटपुट २0 प्रतिशत कर्मचारियों से आता है। रोज की दिनचर्या में भी यही नियम लागू होता है। परीक्षा की तैयारी सभी छात्र करते हैं लेकिन रिज़ल्ट असमान आते हैं, कुछ की ८0 प्रतिशत तैयारी का २0 प्रतिशत ही प्रतिफलित होता है तो कुछ २0 प्रतिशत तैयारी से ही ८0 प्रतिशत रिज़ल्ट हासिल कर लेते हैं। सरल शब्दों में कहें तो एक साधारण इन्सान कई घंटे काम करके दो वक्त के लिए ही कमा पाता है जबकि एक कंपनी का सीईओ दो चार घंटे काम करके भी कम्पनी को लाखों का फायदा पहुंचा सकता है। अभिनव बिंद्रा ओलंपिक खेलों में निशानेबाजी की व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले भारतीय बने तो हम सबने देखा कि उन्हें देश में सम्मान के अलावा ईनाम राशि में बहुत सारा धन भी मिला। एक अमीर घराने से आने वाले अभिनव देखते-देखते धनवान से और अधिक धनवान बने। मध्यम परिवार से आने वाले महेंद्रसिंह धोनी ने अपनी योग्यता का प्रमाण तो खेल में दिया लेकिन कर्मशः धनवान बनने के सारे रास्ते उन तक खुद आते गए। निष्कर्ष ये है कि धन उसी के पास जाता है जो संघर्ष की दौड़ में योग्यतम होता है और योग्यतम वही बनता है जो संघर्ष में खुद को समय के अनुरूप  ढालने में कामयाब हो पाता है। आथर््िाक जगत में हजारों ऐसे व्यवसाय हुए जो कभी बुलंदियों पर थे लेकिन तकनीकी युग के आने से अपने आपको समय के अनुरूप तैयार न कर सके और विलुप्त होते गए तथा उनकी जगह नए उद्योगों ने ले ली।  
आज दुनियाभर में अनगिनत उद्योग और व्यापार से जुडी इकाइयाँ हैं, मगर कुछ ही कंपनियां सम्पूर्ण राजस्व का अधिकतम भाग पर कब्ज़ा करती हैं। सन २0१८ में, दुनियां के १0 सर्वोच्च राजस्व और लाभ कमाने वाले उद्योगों और व्यापार घरानों की सूची में सबसे ऊपर-काॅमर्स कंपनी वालमार्ट का नाम आता है, जिसने पिछले वर्ष करीब ४८५अरब डालर का व्यापार किया। तुलना के हिसाब से देखा जाय तो हमारे देश के पास कुल विदेशी मुद्रा करीब ४२५ अरब डालर ही है और हमारा सालाना बजट करीब २४ लाख करोड़ रुपये यानि ३५0 अरब डालर ही होता है। सिर्फ एक कंपनी द्वारा इतना बड़ा व्यापार सचमुच होश उड़ाने जैसा है। हमारे देश में भी कुछ  कंपनियां जैसे इंडियन आयल कोर्पोरेशन, रिलायंस इंडस्ट्री, स्टेट बैंक आॅफ़ इंडिया, टीसीएस एवम् ओएनजीसी आदि ही अधिकतम लाभ अर्जित करती हैं। अतः ये आभास होना ज़रूरी है कि इस भौतिक जगत में हर व्यक्ति, समाज, उद्योग इकाई, व्यापार संगठन और यहाँ तक कि सम्पूर्ण राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ और योग्यतम बनने के लिए अपने आप को समय और परस्थितियों के हिसाब से ढालने की क्षमता का लगातार विकास करना होगा।  डार्विन और स्पेंसर द्वारा दिए गए जीने के मंत्र हमेशा से ही काल की कसौटी पर खरे उतरे हैं और आगे भी सही साबित होंगे, भले ही समय के साथ योग्यतम कहलाने के मापदंड बदलते रहें।