बरसा विगत सरद रितु आई


शरद ऋतु आ चुकी है...बसन्त का सब लोग गाजे-बाजे के साथ स्वागत करते हैं...राजभवनों से लेकर साहित्य के सर चढ़कर कर बोलता है बसन्त...पर अपन की प्रिय ऋतु तो शरद है। शरद सयानी है, बसन्त में यौवन का उन्माद है, शरद में गाम्भीर्य है...शरद शान्त है, घाघ है। शरद स्वास्थ्य की निरीक्षक है, यह पित्त उभार के दिन हैं। इसलिये यह दिलवालों की नहीं दिमाग वालों की ऋतु है। भादों के सूरज की तपिश अभी गई नहीं है और रातों को ठंडी हवाओं की आरियां अपने दांत पैने कर रही होती हैं, यानि जिसने शरद पार कर लिया उसका साल भर निरोग रहेगा। शरद का अलार्म सुनकर सब कीट-पतंगे तो जैसे साधक-योगियों की तरह भूगर्भ में समाधि ले लेते हैं। शायद इसी गुण के कारण आदमी के लम्बे उम्र की कामना हमने बसन्त में नहीं, शरद में की है...देखें शत शरदों की शोभा, जियें सुखी सौ वर्ष।
शरद ऋतु का काल आश्विन से शुरू होकर कार्तिक तक है, लगभग आधे सितम्बर से लेकर आधे नवम्बर तक...पृथ्वी के घूर्णन काल में साल में दो बार सूर्य का प्रकाश दोनों गोलार्धों पर बराबर होता है, यानि दिन-रात करीब बराबर होते हैं। जिनको कि बसन्त सम्पात और शरद सम्पात भी कहते हैं...दोनों ऋतुओं का आरम्भ नवरात्रों से होता है...ये नौ दिन पृथ्वी के सगर्भा होने के दिन हैं...हम भारतीयों ने पृथ्वी को ही आद्यशक्ति मां का रूप मानकर इन नौ दिनों का विनम्र स्मरण किया है। बसन्त में जहां काम का विस्फोट होता है, वहीं शरद  की बांह में वर्षाकाल के विप्लव के बाद लाल-पीले बादलों की खाली गागर होती है, शान्त, संयम और प्रेम भरे दिनों की गुनगुनी चादर का महाविस्तार होता है...
जब शहर इतने बड़े नहीं थे, या जब हम लोग ग्रामीण थे, तब शरद की पदचाप सबको सुनाई देती थी। जब सीमेंन्ट के इन दैत्याकार भवनों की जगह विशालकाय पेड़ थे, तालाब थे, पोखर थे, सूर्योदय और सूर्यास्त के तन्मय दिन थे, पकी हुई फसलों को चुगने वाले पक्षियों के कर्णप्रिय गीत थे...तुलसी सूचना देते हैं...जानि सरद रितु खंजन आये...तब शरद दिखाई देता था, वे शरद के ठाठ भरे दिन थे। अब तो बार्निश और पेन्ट की गन्ध से ही शरद के आने की सूचना मिलती है और सच कहूं...अब शरद की खुशखबरी लाने के कारण मुझे पेन्ट की यह गंध भी प्रिय लगने लगी है। शहर की सड़कों-गलियों के दोनों ओर खड़े मकानों की देह किसी षोडसी की जंघाओं की तरह स्फटिक हो जाती है। नवरात्रे, रामलीला में चलने वाली हारमोनियम की धुनें और फिर दशहरा आयोजन...यह उस राजा की विजय का दिवस है जिसने समाज में मर्यादा की स्थापना की। दैत्य-दानवों की अराजक और पशुता भरी जीवन शैली को निर्मूल कर एक समरस, न्यायप्रिय समाज की स्थापना का स्मरण इस शालीन शरद में ही हो सकता था। पकी हुई धान काटकर शस्य श्यामला के प्रति अहोभाव व्यक्त करने का इससे बढ़िया दिन और भला क्या हो सकते थे? मेले-कौथीग, गंगा स्नानों की झड़ियां...और फिर शरद की पूर्णिमा.. जिस के सौंदर्य से तो साहित्य के पृष्ठ आकंठ भरे हैं। इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है। कहते हैं एक ऐसी ही पूर्णिमा को कृष्ण ने गोपियों को रास और प्रेम का रहस्य बताया था। पुरातन भारत में कौमुदी महोत्सव ही शरद का मुख्य उत्सव था। नर-नारी तालाबों में खिली कुमुदनियों को चांदनी रात में निहारते हुये महीने भर तक उल्लास करते थे...दीपावली बहुत बाद में समाज में प्रचलित हुआ। दीवाली को भी हमने प्रकाश का त्योहार कहां रहने दिया है...यह पटाखों के शोर में दबकर धन-प्रदर्शन का खेल बन गया है। आज की यह पीढ़ी जो 'वेलेन्टाईन डे' पर कार्ड बांटकर प्रेम का हुल्लड़ करती है, क्या वह कभी शरद की पूर्णिमा में शान्तचित्त होकर कृष्ण के उदात्त दर्शन का मनन करेगी? प्रेम के महासागर से परिचित हो सकेगी? दैहिकता की हाट में इस मांसल सभ्यता से उठने वाली दुर्गन्ध से बाहर आकर उस वेणुगोपाल केे प्रेम का अमर स्वर सुन सकेगी? या फिर रातों का मतलब उसके लिये पब-डिस्को और शराबखोरी का अंधकार ही बना रहेगा? महानगरों ने शरद के भी प्रतीक बदल दिये हैं...
बसन्त में जहां भौरों-कीटों के गुंजन हैं, पराग की निर्मम लूट है, कलियों को विक्षत करने के कामातुर लाईसेन्स हैं...वहीं अपनी शरद शान्ति और संयम से भरी है...वर्षा से धुले नीले आकाश में बड़ी थाली की तरह चमकता चांद, तारों की बारात, हरसिंगार और मालती से भरे वन-प्रान्तर, कमलनियों और कुमुदनियों से भरे तालाब...रीतिकाल के कवि सेनापति आह्लादित होकर कहते हैं-
कातिक की रात थोरी-थोरी सिहरात 
सेनापति को सुहात, सुखी जीवन के गन हैं 
फूली है कुमुद, फूली मालती सघन वन 
मानहुं जगत क्षीर सागर मगन है।
अंग्रेजी साहित्य में इसे ही 'आॅटम' कहते हैं...अपने यहां उसी दासता के कारण आॅटम फेस्टिबिल तो आज तक हैं, पर सेनापति हमें कभी याद नहीं आया, अपने तालाब-तड़ागों में हमने झांका तक नहीं, अपने शरद को चहकाता, अपने प्रिय चंचल नयनों को मटकाता, खंजन पक्षी याद नहीं रहा...पर चलो...शरद है तो सब क्षम्य है। 
नई पीढ़ी प्रकृति की भाषायें भूल चुकी है, वह ऋतुओं के भजन गाना नहीं जानती, वह तापक्रम और मानसून के डरावने आंकड़े जानती है पर अनन्त सत्ताओं के भौगोलिक व्याकरण से वह अनजान होती जा रही है। वह प्राकृतिक दृश्यों से अधिक पोर्न-साइट्स को आनंद का स्रोत मानने लगी है। प्रकृति को आचार्य मानने वाले राष्ट्र की आने वाली पीढ़ी क्या मात्र 'प्लेसमैन्ट' और 'पैकेज' को ही अपना दैनिक जीवन दर्शन बना डालेगी? शरद की चटक चांदनी में कृष्ण के महारास को देखने वाली विराट दृष्टि क्या 'गूगल गुरू' की मोहताज बन जायेगी? शरद का क्या होगा?
बचपन के दिनों गांव में शरद की पूर्णिमा को खीर के कटोरे मकान की छत में रखने का खेल होता था...बुजुर्ग कहते कि आज चन्द्रमा से अमृत बरसेगा, खीर में गिरेगा और हम अमर हो जायेंगे। बिल्ली के डर के कारण बाल-गोपाल तीन-चार घन्टे तक डन्डे लेकर खीर की रखवाली में लगे रहते कि कहीं बिल्ली अमर न हो जाये। चांद के बड़े गोल मुख को देखकर कई गल्प-कथायें चलतीं...इसी बहाने चांदनी की अमृत वर्षा में वे ऊँघते पहाड़ दिखते, उन अनजान-अनाम सफेद फूलों पर चर्चा होती...इस तरह खीर के बहाने शरद परम्पराओं को अमृत मिला करता था। न जाने कितनी पीढ़ियां चलकर यह कथा हम तक पहुंची होगी। यही तो विचारों की अमृत वर्षा है, मानव के अमर होने का यही तो अर्थ हो सकता है।