गढ़वाली की चिंता


(हलन्त दिसंबर २०१०)


पिछले दिनों रमाकांत बंेजवाल की पुस्तक 'गढ़वाली भाषा की शब्द संपदा' का विमोचन हुआ। पुस्तक देखने को तो नहीं मिली परन्तु जैसा कि वक्ताओं के वक्तव्यों से पता चला, यह शब्दकोष से अलग एक ऐसी पुस्तक है जिसमें गढ़वाली समाज और उसकी दिनचर्या से जुड़े ऐसे अनेक बहुआयामी शब्द पुंज, मुहावरे, लोकोक्तियां और एतिहासिक घटनाक्रम से जुड़े शब्दों का संकलन है...होगा...कई लोगों को आज भी लगता है कि बहुत पुस्तक लिख देने से, भाषा के दायें-बायें बैसाखियां खड़ी करने से गढ़वाली भागने लगेगी...यह भ्रम है, सपने इसीलिये अच्छे लगते है...संस्कृत में इतना विपुल साहित्य था, संस्कृत अब पुस्तकालयों के आईसीयू में सरकारी आक्सीजन पर किसी तरह जीवित है। कई कर्मकाण्ड वाले तक, गलत ज्योतिष गणना और अशुद्ध संस्कृत बोलकर पूजा करवाते हैं।
गढ़वाली भाषा से जब तक पैसा, प्रसिद्धि, पुरस्कार नहीं जुड़ेगा, वह खड़ी नहीं होगी। देश की जितनी भी प्रान्तीय भाषायें हैं, उनमें अधिकतर उन प्रदेशों की राजकीय भाषायें हैं। इन क्षेत्रीय भाषाओं का अपना एक ऐसा तन्त्र है कि वह अपने लोगों को रोजगार, पैसा  और स्टार भी बना सकता है। नरेन्द्र नेगी और देखा-देखी अनेक छोटे-बड़े जो भी गायक आज गढ़वाली के अपरिहार्य अंग बनकर एक-दूसरे के सहायक बन रहे हैं, वह पुस्तकों से नहीं हो सकता...शब्दकोष आदि से तो बिल्कुल भी नहीं, हां, जैसा नरेन्द्र नेगी ने कहा कि इन पुस्तकांे की संख्या का बल दिखाकर हम साहित्य अकादमियों को विवश कर सकते हैं कि वे गढ़वाली बोलने-लिखने वालों को भी पुरस्कृत करे, पुरस्कार के लालच से अवश्य ही सृजन की कोंपल जमीन पकड़ेगी, जो कार्य राज्य सरकार को करना चाहिये था उसे नेगी जैसे लोग अपने बलबूते कर रहे हैं।
शब्द जीवन से आता है, दिनचर्या से जैसे स्वभाव बनता है, उसी से शब्द भी बनता है। पहाड़ के लोगों ने अपनी दिनचर्या छोड़ दी, जीवन छोड़ दिया, घर-चैंरियां छोड़ दिये और अब वे देहरादून-मुम्बई के स्टडी रूम्स में बैठकर गढ़वाली शब्दों की लिस्ट बना रहे हैं। इतिहास हो चुके गढ़वाली जीवन को अपने ड्रांइंग रूम का शो-पीस बनाना चाहते हंै। अपने अंगे्रज हो चुके बिगड़ैल बेटों के लिये गढ़वाल की अनुछुई बहु जैसा स्वप्न देखना चाहते हैैं क्योंकि महानगरों की दैत्य संस्कृति में अपने अहंकार को बचाने के लिये आज भी कई लोग पहाड़ की उपत्यकाओं में भाषा के गेस्ट हाउस बनाकर, अपने अहंकार की ठसक दिखाकर, गढ़वाली बोली को आक्रांत करना चाहते हैं। गढ़वाली भाषा की जितनी चिन्ता महानगरों की सभा मंडलियों में देखने को मिलती है, उतनी पहाड़ के गांवों में नहीं। जिनके बच्चे गढ़वाली बोली-जीवन से बाहर हो चुके हैं, चिन्ता वे कर रहे हंै...क्यों? क्या तुम्हारे इंगरेज बेटे को गढ़वाली फिल्मांें का हीरो बनना है? या शादी-ब्याह की गैदरिंग में बड़े-बूढ़ों के सामने तुम्हें शर्म आती है? क्या करंेंगे गढ़वाली सीखकर? आत्मग्लानि से उबरना चाहते हैं न? तो पहले उन पहाड़ों के बारे में सोचो, लिखकर नहीं, नरेन्द्र भाई और गणी जैसे बुद्धिजीवियों की तरह, पहाड़ के साथ जीकर...भाषा तो अपने आप फूटेगी...मैं नरेंन्द्र जी का मात्र इसलिये सम्मान नहीं करता कि वे अच्छा गढ़वाली गीत गाते, लिखते हैं...नहीं...बल्कि इसलिये कि उन्होंने इतनी प्रतिष्ठा, धन प्राप्त करने के बाद भी अपना गांव नहीं छोड़ा है। वे भी पलायन के पक्ष में अनेक तर्क गढ़ सकते थे...नरेन्द्र जी जानते हंै कि यदि उनसे गांवों का जीवन छूटेगा तो शब्द भी छूट जायेगा। फिर आने वाले दिनों में उन्हें भी ऐसे शब्द संपदाओं से आखर टीपकर एक नकली गीत लिखना पड़ेगा...जो लोग नेगी जैसा होना चाहते हैं, उन्हें पहाड़ की कांख में बसेरा बनाना होगा, अपने शब्दों की आंच में तपना होगा। शब्दकोष से क्या होगा भाई? थोड़ा गढ़वाली भाईयों का 'जब वी मेट' हो जायेगा... 
दो सुझाव स्त्रियों की ओर से भी आये। पहला भारती पाण्डे ने दिया कि हमें गढ़वाली-कुमाऊंनी को रला-मिला कर उत्तराखण्डी भाषा विकसित करनी चाहिये...हालांकि बाद में नरेन्द्र नेगी ने बहुत सटीक शब्दों में इस सुझाव को गोष्ठी से बाहर का रास्ता दिखाया। इन 'एकता' वाले लोगों से सारा देश दुखी है। कभी वे धर्म को रलाते हंै, कभी भाषा और कभी प्रान्तीय जीवन की विविधताओं को ...ऐसे राष्ट्रीय लोग, इस देश में जो राजरोग फैला रहे हैं उसका विरोध होना चाहिये। दूसरा प्रस्ताव किसी भाषा समिति की कोई पदाधिकारी (?) डा0 सविता मोहन की ओर से आया कि हमें 'रैपिडैक्स' की तरह गढ़वाली सीखने की जादुई किताब बनानी चाहिये। यह पुराना कांग्रेसी दिमाग है। भाषा समिति में कुछ पैसा पड़ा होगा, मार्च तक उसका सदुपयोग चाहती होंगी तो 'रैपिडैक्स गढ़वाली स्पीकिंग' ही सही। भाषा की कमान निशंक ने 'रैपिडैक्स' वाले  कांग्रेसी हाथों में सौंपी है। गोष्ठी का संचालन गणी भाई ने किया। उनके बोलने से ही गढ़वाली की मिठास का पता चलता है। गणी भाई शब्द सम्पदा और मुहावरों के जीवंत भण्डार खंगालकर गढ़वांिलयों की स्मृति पर चोट करते हैं। ऐसे ही लोगों का उठना, बैठना, बोलना ही गढ़वाली का इन्साइक्लोपीडिया बन सकता है।
जब नेगी जी की पहली कैसेट आई थी तो उनके 'ढेबरे' (भेड़) वाले प्रसिद्ध गीत पर हम दोस्त झूमते थे। उनके गीतों-बोलों की मीमांसा  करते थे। इस गीत में एक पंक्ति थी 'माना डून्डू बखरू भागी अर जु बन्ध्यू छौ सु कागी' हमंें इस पंक्ति का मर्म ही समझ में नहीं आया...नरेन्द्र भाई की ढूंढ में मैं पौड़ी गया, वे नहींे मिले, उनके एक पान की दुकान वाले रसिक से पता चला कि जब भेड़ों के झुंड में कोई भेड़ चोटिल या रोगग्रस्त हो जाती है तो उसे झुंड से अलग रखा जाता है ताकि अन्य भेड़ें उस बीमारी की चपेट में न आयंे, नेगी कहते है माना वह लंगड़ी भेड़़ भाग गई परन्तु जो बन्धी थी, वह कहां गई? कहने का अर्थ है कि मात्र शब्दों के झुंड खड़े करके गढ़वाली समृद्ध नहीं हो सकती। जब तक पहाड़ी जीवन की दिनचर्या से हम विज्ञ न हों तब तक रैपिडैक्स और शब्द कोषों का अर्थ क्या है? दृष्टिहीन व्यक्ति को आप सूर्योपासना के कितने ही धांसू मन्त्र सिखा दें, वह सूर्योदय और प्रकाश का आनंद या  अर्थ नहीं जान सकता...जब तक आपके बच्चों ने पहाड़ में सूर्योदय का जीवन नहीं देखा, पनघट नहीं देख,े वे ''पितल्यणा मुखड़ि सोना कि ह्वे गेनि'' जैसी गहरी पंक्तियों का क्या आनंद ले सकते हैं? वे गढ़वाली का क्या भला कर सकते हैं?
परन्तु फिर भी अपनी बोली का एक आकर्षण होता है...उसकी शब्द संपदा के कारण नहीं बल्कि आपकी बोली को मान मिलने से आप भी सम्मानित अनुभव करते हैं। जब ओबामा हमारी संसद में 'धनबाद' बोले तो पूरी संसद ने तालियां बजाईं...इससे हमारा अहंकार संतुष्ट होता है..जब नरेन्द्रजी की पहली कैसेट आई थी तो सभी को वैसी ही खुशी हुई थी...जब मैं बड़े शीशे वाली दुकानों में नेगी की कैसेट सजी देखता था तो मन ही मन तालियां बजाता था...जो लोग भी इधर गढ़वाली के किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं...वे अपनी पहचान के लिये ही छटपटा रहे हैं...उत्तराखण्ड आन्दोलन इसी छटपटाहट से उपजा था...अपनी और अपने समाज की पहचान को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करवाना असल में एक तरह का सात्विक और सूक्ष्म अहंकार ही है, भाषा उनमें सर्वाधिक प्रबल माना जाती है। प्रकृति और यह संसार बिना अहंकार के नहीं चलता...संस्कृत आज भी हमारी स्मृति को छूकर हमारे गौरवमयी अतीत का दर्शन कराती है...मैकाले ने यही किया...उसने भारतीयों की स्मृति पोंछने के लिये एक विस्तृत जाल बिछाया...उसी जाल में पले-बढ़े अपने ही चूजे आज पुरानी पीढी को संस्कृति और धर्म की बात करने पर आँखें दिखाते हैं...हैरान हूँ कि देहरादून, मुम्बई जैसे महानगरों के बूढ़े गढ़वाली तोते एसएमएस वाली हिंगरेजी बोलने वाले आने वाली पीढ़ी को गढ़वाली के पक्ष में क्या तर्क देने वाले हैं कि वे गढ़वाली जैसी बेचारी बोली को सीखेंगे...फायदा क्या है? जाॅब मिलेगा? इस धन्धे वाली पीढ़ी का पहला प्रश्न यही होगा। क्या उत्तर देंगे आप?
जब तक सरकारें पहाड़ों में जीवन को नहीं लौटायेंगी, रोजगार के साधन पैदा नहीं करेंगी, जब तक पलायन नहीं रूकेगा, जब तक हमारे युवा पहाड़ों में रहने के लिये बाध्य नहीं होंगे, जब तक गढ़वाली को आर्थिकी से नहीं जोड़ा जायेगा, राज्य स्तर पर ही सही...कोई पुरस्कार-पद़ का लालच नहीं होगा, तो कोई गढ़वाली कैसे और क्यों सीखेगा? बम्बई, लुधियाना, देहरादून में बैठकर जो भाई लोग गढ़वाली में लिख रहे हैं, उसकी चिन्ता कर रहे हैं, क्या वे जानते हैं कि आने वाले पचास वर्षों बाद उनके बच्चे गढ़वाली कैसे बोलेंगे? क्यों बोलेंगे? आप विद्वान लोगों के पोथड़े वे क्यों कर पढ़ेंगे? नरेन्द्र नेगी के गीतों का आनन्द कैसे ले पायेंगे? परन्तु इन सब तर्काें के बाद भी रमाकान्त जी का अथक श्रम अपनी बोली के कठिन दौर में लालटेन बनेगा...आने वाली नस्लें उनके श्रम के फल अवश्य चखेंगीं। यदि उनमें फल खाने की इच्छा बची रही तो!