पहाड़ का दर्द

 


उत्तराखण्ड की भूमि पूज्य भूमि है, जो मनुष्य इस भूमि में जन्म लेता है वह धन्य है। इस भूमि में सैकड़ों देवालय स्थापित हैं। यहां स्थातिप देवालयों में देवताओं के गुणों के समान मनुष्य निवास करता है। यहां निवास करने वाले मनुष्य की भावनाएं कोमल एवं मधुर तथा उसके दिल में दया व पीड़ा का गहरा सम्बन्ध है। इस उत्तराखण्ड का मानव इन सुन्दर-सुन्दर वनों, पहाड़ों, घाटियों, नदियों और रमणिक कन्दराओं को छोड़ कर चाहे वह कहीं भी निवास करने लग जाय, वहां की रीति-रिवाजांे को स्वीकार कर ले, किन्तु पहाड़ की पीड़ा, पहाड़ का रहन-सहन, उतार-चढ़ाव, नदी-नाले, यहां का बचपन सारा कुछ उसके अन्दर जिन्दा रहता है। उसके अन्दर पहाड़ की पीड़ा सदैव जीवित रहती है। वह चाहे कितना भी उसे दबाने की छुपाने की कोशिश करे, किन्तु वह पीड़ा किसी न किसी रूप में उजागर होती रहती है। वर्तमान में मनुष्य अपनी आधुनिकता की भूख में चूर होकर पहाड़ों से पलायन कर रहा है, पलायन के साथ-साथ वह अपनी अतीति मर्यादाओं को भी कोसों दूर छोड़ चुका है, जिसका उसको आन्तरिक रूप से बहुत मलाल होता है। जब वह शहर की चकाचैंद में अपने को ठगा सा महसूस करता है तो उसके दिल के किसी कोने से पुनः आवाज आती है कि चलो लौट चलें अपनी मातृृभूमि, अपनी जन्मभूमि, अपने पहाड़ों की ओर, जहां तेरा बचपन है।


किन्तु उसी वक्त उसके सिर पर सवार आधुनिकता का भूत उसे याद दिलाता है कि तू तो बड़ा आदमी बन गया है, तेरा रहन-सहन बदल गया है, क्या तू रह पायेगा उस कठिनाई भरे जीवन की पहाड़ियों में यहाॅ तेरा रूतबा है, तेरी एक पहचान है, एक वजूद है, क्या तू जी पायेगा इन सुख-सुविधाओं के बगैर, बस उसी क्षण उसका दोहरा चेहरा उसे मजबूर कर देता है और वह मजबूर होकर अपने पहाड़ से दूर रहने लगता है। शहर की चकाचैंद, अनमिलापन जब कभी उसे चोट पहुंचाते है तो उसे चोट लगती है, उस चोट की पीड़ा से तब उसके दिल में छुपे पहाड़ के दर्द की आवाज़ चिल्ला-चिल्लाकर कहती है कि चल उन शान्त वादियों में उन गहरी घाटियों में, उन देवालयों में, उन नदियों की किलकारियों को सुननें, उन घने वनों की छाॅवों में, उन रमणिक बुग्यालों में, ऊॅचे पर्वतों में, उन चमकीली बर्फीली चोटियों में। पर वह तो अपनी दुविधाओं के चलते चलते अपनी भावनाओं को क्षीण कर देता है और एक दिन अपनी आस को छोड़कर हताश और निराश होकर अपने प्राणों को त्याग देता है और तब वापस आता है, उसका मिट्टी रूपी शरीर जिसे जलाने के लिये उसके ओ अपने जिनके लिये उसने अपने पहाड़ का परित्याग किया था उसके पैतृक गांव के उस शमसान घाट पर जहाॅ उसके पूर्वजों का विसरजन किया गया था। उसकी शवयात्रा मंे पहाड़ का जन शैलाब उमड़ पड़ता हैं, किन्तु उसकी शवयात्रा में सम्मिलित होने वाले लोगों को क्या पता कि वह जिसकी मिट्टी में सम्मिलित होने आये है, उसके दिल में पहाड का कितना दर्द था।