पलायन की चिंता


उत्तराखण्ड राज्य बनने से पहले लोगों की सोच थी कि राज्य बनेगा तो हमें पलायन नही करना पडे़गा, लोगों को जीवन यापन के साधन अपने ही राज्य में मुहैया होंगे। पहाड़ की विकट समस्याओं में से एक स्वास्थ्य एवं शिक्षा की दिक्कतों से भी निजात मिलेगी। इसी आधार पर लोगों ने संघर्ष किया, गोली खाई और दर्जनों लोगों ने अपनी शहादत दी। पलायन रूकने के सपने भी लोगों की आंखों में थे। लेकिन राज्य बनने के सोलह वर्ष बीत जाने के बाद भी समस्यायें जस की तस हैं बल्कि पलायन और तेजी से बढा और मैदान और पहाड़ में एक खाई जैसे हालात बन गये हैं। लोग कह रहे हैं कि उत्तराखण्ड को हिमाचल की तर्ज पर कोई यशवन्त सिंह परमार नहीं मिला जो प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों की समस्याओं और जीवन की विकटता पर चिंतन करता, मनन करता और उनका समाधान तय समयावधि में खोज निकालता। 
उत्तराखण्ड के मामले में और खासकर पहाड़ी क्षेत्रों के लिए उत्तराखण्ड का कोई भी मुखिया इन सोलह वर्षों में विकास पुरूष क्या विकास की अवधारणा सोच तक नहीं बन पाया। नारे सबने लगाये, भाषण सबने दिये, लोगों को सब्जबाग सबने दिखाये लेकिन कोई भी उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में एक अदद स्वास्थ्य जांच सुविधा, ब्लाक मुख्यालयों में ही सही एक अस्पताल जो कि अस्तबल न होकर अस्पताल हों, कुछ अच्छे शिक्षण संस्थान जिनमें स्तरीय शिक्षा दी जा सके यह सब नहीं जुटा पाया। या तो हमारे नेता पहाड़ के बारे में कुछ सोच नहीं रखते और अगर सोच रखते भी हैं तो वे वोट बैंक तक ही अपने को सीमित किये हुए हैं। ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि अगर इनमें जरा भी सोच और समझ होती तो पलायन कैसे रूके, इस पर आज चिन्तन की बजाय लोग उसका हल ढूंढकर पलायन रूक रहा है, गांव आबाद हैं और पहाड़ बीरान नही होंगे, ऐसा समझते और ऐसा दिखता। लेकिन राज्य बनने के बाद पलायन भयावह रूप से बढा है। 
हाल ही की घटना को लीजिये उत्तरकाशी के दुर्गम क्षेत्र से देहरादून आई गर्भवती महिला पुष्पा देवी ने इसलिए दम तोड दिया कि उत्तरकाशी में उचित स्वास्थ्य सुविधा नहीं हैं और देहरादून में संवेदना शून्य सिस्टम उस महिला को इधर से  उधर नचाता रहा, डाॅक्टर जश्ने आजादी में डूबे हुए थे और सत्ता के मद में चूर नेताओं को कहां फुरसत किसी असहाय की सुध लेने की, और अन्त में उस बेचारी ने दम तोड़ दिया। अब आप ही विचार करो कि प्रदेश के सीमान्त जिले में क्या हाल है। यही हाल कमोवेश समूचे पहाड़ का है लेकिन हमारे नेता कहां इस ओर ध्यान देते हैं। 
अब बात करते हैं शिक्षा की...तो हालात यह हैं कि प्रदेश सरकार का कहना है कि जिस स्कूल में अधिक से अधिक बच्चे पढ रहे होंगे उस स्कूल को आदर्श स्कूल बनाकर उसमें रंग रोगन करके अंग्रेजी माध्यम से पढाई शुरू की जायेगी। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि क्यों सबसे अधिक बच्चों वाले स्कूलों को ही आदर्श स्कूल बनाया जा रहा है? सभी स्कूलों की दशा सुधारने का प्रयास क्यों नही किया जा रहा? सरकारी आदेश जो भी हो लेकिन आज हालात यह हैं कि गावों के अधिसंख्य स्कूलों में सेवारत अध्यापक नजदीकी शहरों में अपने परिवार के साथ रह रहे हैं और रोज सत्तर-अस्सी किलोमीटर की यात्रा मोटर साईकिल सहित अन्य साधनों से तय कर रहे हैं। इनमें से अधिसंख्य हफ्ते में दो तीन दिन स्कूल आते हैं। क्यों कि उनकी सेटिंग होती है इसलिए उनको कोई कुछ नहीं कहता। रोजगार गांव में होने के बाद भी जब लोग यहां नही रहना चाहते हैं तो फिर क्या किया जाये? 
और अन्त में हम बात करते हैं अपने समाज के लोगों की। हम सब परेशान हैं, हैरान हैं कि पहाड़ से पलायन क्यों बढ रहा है। दर्जनों गांव क्यों वीरान हो गये हैं? इसी बात को लेकर आये दिन कई चिंतक बैठकें होती हैं जो कि इस ओर ध्यान खींचने को कुछ हद तक उचित माध्यम भी बनती हैं और सरकार से लेकर समाज तक इस ओर अल्प समय के लिए ही सही, आकृष्ट करती हैं लेकिन क्या सच में सिर्फ चिन्तन करने से पलायन रूकेगा? 
हमारे समाज के वे लोग जो सेवा से निवृत्त हो चुके हैं और नगरों-महानगरों में निवास कर रहे हैं उनमें से कितने लोगों ने अपने गांव जाने का विचार किया? विकासखण्ड नैनीडांडा के ग्राम सभा भौन इस बात को एक अपवाद है जहां सेवा निवृत्त होने के बाद कई परिवार वापस गये हैं। लेकिन सभी जगह ऐसा नहीं है। बल्कि हालात यह हंै कि पहाड़ में पूरा जीवन सेवा देने के बाद अधिसंख्य लोग बुढापे में शहरों की ओर लौट गये। और जब वे ही लोग जौनसार, दिल्ली में 'पलायन एक चिन्तन' बैठक में अपने विचार देते हैं तो हैरानी के साथ-साथ दुःख भी होता है कि ये लोग किसे शिक्षा दे रहे हैं? कहने का मतलब यह है कि हम पहले खुद पहल करें, अपने गांव में पुस्तैनी मकान बनायें और वहां कुछ न कुछ निर्माण करवाकर रहने का ठिकाना बनायें। साल में दो चार बार घूमने के लिए गांव जाने से पलायन पर क्या असर पडेगा? बात यह हो कि हम वहां स्थाई निवास कैसे करें? लोग अपने गांवों में कैसे रूकें? और मूलभूत आवश्यकताओं को कैसे यहां पर नियोजन हो। सरकार किसी भी दल की हो उसे आज उत्तराखण्ड के पहाडों की सुध लेनी ही होगी नहीं तो कल यहां कोई नहीं बचेगा और फिर मैदानी इलाकों के लोग यहां आकर बसेंगे और तब हम और आप पलायन और पहाड़ पर चिन्तन करने लायक भी नहीं बचेंगे। 
सरकारी योजनाओं में पहाड़ के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगारपरक योजनाओं को बनाकर गांवों की ओर   ध्यान दिया जाना चाहिए। पलयान कर चुके हमारे नेताओं को भी समझना होगा कि अगर पहाड़ बचेंगे तो प्रदेश सुरक्षित रहेगा और अगर पहाड़ों से इसी प्रकार पलायन होगा तो फिर एक दिन धीरे- धीरे बाहरी लोगों सहित देश के पडा़ेसी देशों की नजर भी इस क्षेत्र पर है और तब उनका अधिपत्य होते देर नहीं लगेगी। इसलिए अभी वक्त हैं हम चिन्तन अवश्य करें हर पहलू पर गौर करें लेकिन    आत्मावलोकन एवं खुद किसी चीज को अमल में लाने की आदत भी अपने अन्दर पालें। खालिस भाषणों से किसी को विकास नहीं होता। आज आवश्यकता है कि गांव कैसे आबाद रहें? इस ओर ठोस योजनायें बने और गांवों से पलायन कैसे रूके इस पर धरातल पर काम हो। कम से कम अब तो हमारे हुक्मरानों को जाग जाना चाहिए और जो हमारे अग्रज हैं जिनके पास उचित समय है, वे गांवों में रहें तो अच्छा होगा। उनकी देखादेखी हम जैसे लोग भी अग्रसर हांेगे ऐसी उम्मीद है।