मौसमी सरोकार

स कौशल्या अग्रवाल
जून की पहली ही बारिश में मुम्बई की सड़कों में पानी भर गया। बहुमंजिला बिल्डिगें गिर गई। आंध्र में बाढ़ से इकतालिस लोग मर गये, बंगलौर में जहाज डूब गया। बरसात में देश की हर साल की यही कहानी है। कभी हम पानी की कमी से प्यासे मरते हैं तो कभी पानी की अधिकता हमारे जी का जंजाल बनती है। किंतु हम फिर भी बेफिक्र रहते हैं। हम सोचना नहीं चाहते कि बरसात में आई इस बदहाली के पीछे क्या है? और उन्हें दूर करने के लिये हम क्या कर रहे हैं? थोड़ा सा मस्तिष्क पर जोर डालें तो कारण समझना कठिन न होगा। सफाई व्यवस्था में आई कमियाँ, अपने कचरे या अन्य वेस्ट का सही प्रबंधन न होना, सही सड़क निर्माण न होना, पोलीथीन के बैग के अधिक प्रयोग से स्थान-स्थान पर पानी रूकना, नालियों का बंद होना, सफाई कर्मियों का नक्कारापन, सफाई अधिकारियों की सफाई के निरीक्षण में काहिली, लोगों में नागरिकता का अभाव, सरकारी संपत्ति की स्वच्छता और देखरेख के प्रति संकुचित लापरवाह नजरिया, सरकारी कर्मियों का सजग सक्रिय लोगों के साथ भ्रष्टाचारी असहयोगात्मक दृष्टिकोण जैसे अनेक कारण इसके लिये उत्तरदायी है। पहले तो सत्ता में आने वालों में समाज और देश के प्रति उत्तरदायित्व की भावना है ही नहीं। स्वार्थ की पूर्ति के लिये सब सत्ता की चाबी अपने हाथ में चाहते हैं। इस कारण जो भी सत्ता में आते हैं, कभी बनी बनाई सड़क दुबारा बनवाते हैं या सड़क के दोनों ओर बनी बनाई पुरानी नालियाँ को तोड़ कर दुबारा बनवाने लगते हैं या उन्हीं में थोड़ा सा सिमेंट बजरी डाल कर उन्हें सुधरवाने के नाम पर जनता से मिलने वाली टैक्स के रूप में इकट्ठा की गई उनकी गाढ़ी कमाई को डकार जाते हैं। यों ही पूरे पाँच साल गुजर जाते हैं। जनता की शिकायतें वहीं की वहीं रह जाती है। समझ में नहीं आता कि नया बनवाया भी जब टिकाउ नहीं है तो उसमें हम जनता का धन बरबाद क्यों करते हैं। उससे पहले यह अधिक जरूरी है कि हम बनी हुई व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करने में ध्यान लगायें। सफाई कर्मचारियों की लम्बी फौज के होते हुये भी जब नालियाँ कचरे से अटी पड़ी हों तो उनको दण्डित क्यों नहीं किया जाता। थोड़ी सी बरसात में भी सड़कों पर पानी भर आये तो उसके लिये जिम्मेदार वर्ग को क्यों नहीं आर्थिक रूप से दण्ड दिया जाता। यह सत्य जानते हुये भी कि पालीथीन बैग हमारे पर्यावरण और पानी के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है फिर भी इसको नियंत्रित न कर इसे व्यापारी समाज की कमजोरी बना दिया गया है। यह कचरे के प्रबंधन और निकास की सबसे बड़ा रोड़ा हैं फिर भी इन पर प्रतिबंध न लगाया जाना हमारी सरकार की अदूरदर्शिता और उसकी पर्यावरण के प्रति अनदेखी व उपेक्षा का प्रमाण है।
एक ओर हमारे भूजल स्रोत सूखते जा रहे हैं दूसरी ओर हर साल बाढ़ से खेती और गांव बर्बाद हो रहे हैं। न ही घरों से निकले कचरे का सही प्रबंधन किया जा रहा है। जिस पानी को साफ सुरक्षित रख हम पीने योग्य बनाकर अपनी पानी की कमी का समस्या के समाधान निकाल सकते हैं, हमारी लापरवाहियों के कारण वही पानी यों ही बह कर कभी बाढ़ के रूप में हमारी ही बरबादी का कारण बनता है तो कभी सागर में मिल जाता है। दुख तो इस बात का भी है कि हमने अपनी जीवन धारा रूपी गंगा यमुना जैसी पावन नदियों को भी फैक्ट्ररियों के कचरे और पोलीथीन से प्रदूषित कर उनके अस्तित्व पर भी संकट खड़ा कर दिया है। सरकार को चाहिये कि वह एक ओर पोलीथीन के प्रयोग को नियंत्रित करे दूसरी ओर नदियों में कचरा फेंकने वाली औद्योगिक इकाइयों के साथ जनमानस को भी दण्डित करने का कुछ दिन तक अवश्य प्रावधान करे।
विशाल जनसंख्या वाले देश भारत को जागरूक और अनुशासित करने के लिये सफाई के लिये आर्थिक दण्ड जैसे प्रावधान करने ही पड़ेंगे और उससे प्राप्त होने वाली राशि को सड़कों के रखरखाव और उसके किनारे हरियाली रोपने के लिये बेरोजगार युवाओं को रोजगार की व्यवस्था की जा सकती है। अन्यथा पानी हवा को साफ रखने की संस्कृति यहाँ विकसित नहीं की जा सकती। आजादी के नाम पर देश के जल, जंगल और जमीन को हर कहीं गंदा कर बरबाद करने की किसी हो भी इजाजत नहीं दी जा सकती। जब तक औद्योगिक कचरा और पोलिथीन को नदी नालों में जाने से रोका नहीं जायेगा, सड़कों व नालों में पानी जमा हो सड़ता रहेगा, नालियाँ बंद होती रहेंगी, सड़के टूटती रहेंगी, घरों की नीवें कच्ची हो इमारतें गिरती रहेगी। लोग मरते रहेंगे। त