कलौ काली गृहे गृहे

आम आदमी की तरह मैंने भी कृष्ण को कागजों में ही देखा है, अनेक रूपों में देखा है, कहते हैं कृष्ण द्वारकाधीश होकर विपुल संपदा और पशुधन के साथ आनंदित थे। फिर वे अचानक उठकर हस्तिनापुर में पंगा लेने क्यों पहंुच गये? वही हस्तिनापुर जो कि आज का हरियाणा, दिल्ली और नोएडा का क्षेत्र है, जहां एक-एक गज की कीमत आज लाखों में है...जिस जमीन को बेचकर वहां का साधारण किसान भी गाड़ी-बाड़ी के पीछे भाग रहा है, पैसे के पागलपन में पाश्चात्य भोजन और बड़ी होटल शृंखलाओं के महंगे टैरिफ देना अपनी प्रतिष्ठा समझता है...अपनी पुरातन जीवन शैली को रौन्दकर उस पुराने हस्तिनापुर का नागरिक एक प्रतिष्ठित उपभोक्ता बनकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की विशाल मंडी में खड़ा होकर पैसे का खेल कर रहा है
दुर्योधन को भी ऐसा ही लालच था...उसने कृष्ण के लाख समझाने पर ''सुच्याग्रम न दाम्यामि बिन युद्धेन केशव'' कहकर दिल्ली की जमीन के भाव महाभारत काल मंे ही बढ़ा लिये थे..और देखा जाय तो व्यास रचित यह महाग्रन्थ हम सभी भारतीयों की सामुहिक आत्मकथा ही तो है...जीवन के इस द्वन्द्व के ठीक  बीच हम सभी का रथ खड़ा है...कोई यह सोचता है कि घोड़ों के विपरीत दिशाओं में होने के कारण वह विजेता नहीं बन सका, कोई भी व्यक्ति यह नहीं सोचता कि कृष्ण नाम के उस परमतत्व के अभाव के कारण ही आज हमारे समाज में महाभारत तो है परन्तु कौरव-पाण्डव एक हो गये हैं, हमारी तो दुश्मनी भी शिखण्डी हो गयी है...दुर्योधन नायक बनकर आम आदमी का रोल-माॅडल बन चुका है.../एक पंडित जी कहने लगे कि गीता के आरंभ के श्लोक में ही ये 'मामका-पाण्डवश्चैव ' में जो 'मामका' है, यही प्रत्येक काल में युद्ध का कारण रहा है...''मैं और मेरा'' जितना बड़ा होगा, युद्ध उतना भीषण होगा...धृतराष्ट्र की वासनायें, उनका 'मैं मेरा' को जिसने रोकना था...वह गांधारी आंखे होते हुये भी दुर्योधन के अहंकार और अपने भाई शकुनि के लालच को नहीं देख सकी...एक सहदृय स्त्री को किस तरह उसी के सगे भाई ने अपने लालच और निजि स्वार्थांे के लिये खलनायिका बना डाला...उसे नृवंश कर दिया....मनुष्य होकर पशुवत सोचना नृवंश होना ही है, पशुओं की वंशवृद्धि होने पर भी परंपरा नहीं होती...और दुर्बुद्धि देखिये...कि सर्वनाश को प्राप्त उस गांधारी ने कृष्ण जैसे निश्छल-निष्पाप महात्मा को शाप देने का अपयश भी लिया...बलात् बहू बनाये जाने पर गांधारी और शकुनि के मन में प्रतिशोध था...उसी अपमान के कारण गांधारी ने आंख पर पट्टी बांध ली...तो धृतराष्ट्र को मार्ग कौन दिखाता? शकुनि ने गांधारी  के प्रतिशोध को हवा दी...स्त्री के क्रोध को दुहना बहुत आसान है...हस्तिानपुर को अपनी ऊँगली पर नचाने के लिये शकुनि ने अपनी ही बहिन के घर को शतरंजी चालों का अड्डा बना डाला...शकुनि ने गन्दी राजनीति का जो खेल अपनी बहिन के घर से शुरू किया वह पूरे भारतीय समाज की मेधा-कौशल, समृद्धि के लील गया...गांधारी के हाथ राख के अतिरिक्त कुछ भी न लगा। गांधारी चाहती तो महाभारत रूक सकता था...पर घर की स्त्री के स्वभाव में ही जब कटुता होती है तो शकुनि उगते हैं...द्रोण की महत्वाकांक्षायें और धृतराष्ट्र की वासनाएं जड़ पकड़ती हंै। गांधारी का ही दूसरा संस्करण द्रोपदी थी...द्रोपदी ने गांधारी की घृणा में घी डाला...पूरी सभ्यता समाप्त हो गयी। तब कृष्ण एक चट्टान की तरह धर्म के पक्ष में खड़े हुये थे...परन्तु आज कोई नहीं हैं जो धर्म की सुने...यह अन्धायुग है...उल्टे सोचने-बोलने वाले चमगादड़, बेताल उच्चासनों पर बैठे हैं...जो सद्मार्ग पर जाने का प्रयत्न करता है...उसके रास्ते छोटे कर दिये जाते हैं...जिस भूमि ने मन, बुद्धि की सीमाओं को लांघकर उस परालैकिक सत्ता के अनावरण किये, वहां आज प्रत्येक मंच पर पैसे कमाने और उसे फूंकने के नाटक होते हैं। वह हिन्दु समाज जो इतिहास में न जाने कितनी बार धोया पछाड़ा गया...वह पुनः खंडित होकर अपनी ही जड़ें खोद रहा है...वह राम-कृष्णों के विरूद्ध है...वह अपने शास्त्रों, अपनी मान्यताओं का मजाक उड़ाकर पश्चिमी प्रेसों का हीरो बन रहा है...आस्तीन के सांपों को दूध पिलाना ही उसका धर्म है। इस राष्ट्र को हमीं लोगों ने अपने स्वार्थ के लिये कई बार युद्धों, हत्याओं की विभीषिका में झोंका है...हमें कभी राम-कृष्ण ने बचाया, चाणक्य, शिवा, गुरू गोविन्द, प्रताप ने हमारे लिये उन दुर्दिनों में खड्ग खींचे, ऋषियों ने वैचारिक कवच बनाये, परन्तु हम नहीं सुधरे...हम बारम्बार भारतीय जीवन-पद्धति का बलात्कार करवाने के लिये दुश्मनों को बेडरूम उपलब्ध करवाते हैं, मैकाले तो अब आया है...तो कोई बतायेगा कि हमारा स्वभाव ऐसा बिकाऊ, चलताऊ, पाखण्डी कैसे बन गया? इसका कारण हमारी शिखन्डी सत्तायें रही हंै..
जब राम-कृष्ण सत्ता में रहे तो समाज सुधरा...यदि कृष्ण न होते तो शकुनि का स्वभाव जनता का आदर्श बनता, यदि राम न होता तो रक्ष-संस्कृति ही जनता का धर्म बनती, उसके बाद विक्रम, हर्षबर्द्धन और अशोक तीन नामों ने समाज को जो मूल्य दिये...वही समाज का चरित्र बना...अशोक ने बौद्धधर्म स्वीकार किया...अहिंसा को शासन का परमतत्व बनाया जाना ही हमारे लिये मीठा जहर बना। कनिष्क के पश्चात मौर्येत्तर काल से विक्रम तक भारतीय मेधा तार-सप्तक में रही, अश्वमेघ, नागार्जुन, जैसे कवि-चिन्तक,नासिक के चैत्य, सांची के स्तूप, मथुरा, अमारवती की मूर्तियां, अजंता की गुफायें जैसी समृद्ध रचनाधर्मिता समाज की इच्छाशक्ति से ही प्रस्फुटित होती है। बुद्ध की आंधी ने वैदिक दर्शन को घुटनों के बल बैठाया...परन्तु पुनः सन्तों, आचार्यांे ने चिन्तन के कैलाश  बनाये...परन्तु मुगलों से लोहा लेने वाला कोई विराट व्यक्तित्व, कोई राजा पैदा नहीं हो सका... पृथ्वीराज से लेकर नेहरू और राहुल तक जैसा लल्लू नेतृत्व इस राष्ट्र को मिलता रहा उसी का परिणाम है कि आज नैतिकता, साहस, सत्य सब राजनीति के पीछे अपराधियों की तरह चल रहे हैं। और अपराधियों की प्रतिमायें बनी हुयी है...तब राष्ट्र कैसे बचेगा...समाज का स्वभाव निर्धारित करने में स्त्री की भूमिका निर्णायक होती है...परन्तु वह तो होटलों, शो-रूमों की दूधिया रोशनी में घुलकर विलीन हो गई है...वह अपनी मांसलता को अस्त्र बनाकर सब जगह नाच रही है...उसके घुघंरूओं का शोर विज्ञापनों, सीरियलों में बढ़ता ही जा रहा है...तभी वे पंडित जी कह रहे थे...कि वह स्त्री एक बार पुनः काली बनकर सम्पूर्ण ध्वंश करेगी, और तब कई वर्षों बाद नया समाज खड़ा होगा।
सतयुगे सती काली, त्रेता काली जाह्नवी
द्वापरे द्रोपदी काली, कालौ काली गृहे-गृहे
सती के कारण सतयुग में ध्वंश हुआ, सीता के कारण रक्ष-संस्कृति उन्मूल हो गई...महाभारत में द्रोपदी ही काली का रूप लेकर आयी...परन्तु कलयुग? पंडित जी हास्य कर रहे थे...इस युग में तो घर-घर में काली है...इस समाज को कोई नहीं बचा सकता। आज प्रत्येक घर की स्त्री काली की तरह नग्न होने को आतुर है...काली की तरह उनके वक्ष खुले हैं...खाद्य-अखाद्य को भेद उसमें नहीं है...उसकी जीभ गज भर की है...प्रत्येक संबंध को वह अपने पैरों की जूती समझने लगी है...इस बार वह घर-घर का सफाया करेगी...क्योंकि काली तो देवी थी, उसने पिशाच नष्ट किये, आधुनिक स्त्री अपने समाज को ही लील जायेगी। पंडित जी की बात सुनकर अपने तो रोंगटे ही खड़े हो गये...उनके हास्य में आने वाले भारतीय समाज का जो चित्र था, उससे हमें हमारे विचार बचा सकते थे...हमारे विचार ही स्त्री को उसकी भूमिका का पुनस्र्मरण करा सकते थे...परन्तु अपने पोथे-पत्तड़ खोलने वालों को भाई लोग साम्प्रदायिक कहने लगे हैं...क्या भारतीय समाज के रक्षार्थ कोई स्त्री सचमुच मां-काली बनकर इन राक्षसों-पिशाचों का बध करेगी...? या वह भी इन्दिरा गांन्धी की तरह निर्लज्ज शासक बनकर स्त्री को कुरूप करेगी। भारतीयों घरों की नींव स्त्री की भृकुटि पर टिकी है, अब की यदि वह राजनीति, धर्म, समाज पर कोई सख्त टिप्पणी नहीं करेगी...तो प्रत्येक घर उन पंडित जी का श्लोक दुहरा रहा होगा, ऐसी ही कुछ चेतावनी वे पंडितजी दे रहे थे.../इस राष्ट्र का राजा कैसा हो, नारी को तुरन्त निर्णय लेना है, क्योंकि अब प्रयोग करने का समय नहीं है।