आर-पारै लड़ै (पुस्तक-नरेंद्र कठैत )

'आर-पारै लड़ै' नरेन्द्र कठैत का पाँचवा गढ़वाली व्यंग्य संग्रह है। इस संग्रह के तमाम लेखों को पढ़ते हुये मुझे लगा कि उन गढ़वालियों की समस्या का समाधान हो चुका है जो गढ़वाली होते हुये गढ़वाली पढ़ना व लिखना एक समस्या-सी मानते आ रहे हंै।
प्रसंगवश लिख रहा हूं कि गढ़वाली गद्य में, अबोधबन्धु बहुगुणा और कन्हैयालाल डंडरियाल के पश्चात नरेन्द्र कठैत ही सबसे अधिक पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं।
बहुगुणा जी ने गढ़वाली गद्य की लगभग हर विधा में लिखा है। लेकिन उनकी भाषा शास्त्रीयपन के कारण कुछ क्लिष्ठ है। जबकि डंडरियाल जी ने सम्भवतः गद्य कम ही लिखा है और सरल-सरस लिखा है।
परंच, नरेन्द्र कठैत खूब लिख रहे हंै। सरस लिख रहे हैं। प्रभावपूर्ण लिख रहे हैं। बोधगम्य लिख रहे हैं। जाने-पहचाने छोटे-छोटे विषय व वस्तुओं को अपने लेखन हेतु चुन रहे हैं। और सबसे बड़ी बात कि संवाद शैली में चुटकीलेपन से लिख रहे हैं। यही कारण है कि वे हर बौद्धिक वर्ग के पाठक को अपनी ओर चुम्बक के मानिंद आकर्षित करने में सफल हैं और इसी वजह से मैं कह रहा हूं कि, जिन्हें गढ़वाली पढ़ना-लिखना सीखना है, वे नरेन्द्र कठैत को पढ़ें।
पठनीय है कि, इस पुस्तक की भुमिका 'मनो उमाळ' के लेखक भगवती प्रसाद नौटियाल जी (अनेकों पुस्तकों के भूमिका लेखक/ समीक्षक) लिखते हैं-“...जख तक गढ़वाळि भाषा साहित्यो सवाल च त बैद बोला चा डाक्टर, हकीम अब्बि तलक त एक ही ह्वे कठैत, भोळै तुम जाणा।' इसके साथ ही कवर पेज पर चातक जी व पे्रमी जी के वक्तव्य भी मेरी बात की पुष्टि करते नजर आते हैं कि नरेन्द्र कठैत और उनका लेखन गढ़वाली के लिये वरदान हैं।
कुछ, कठैत का कथन भी ले लेते हैं। आप फरमाते हैं- 'लोग ब्वल्दन, लेख्णू आसान नी। म्यरु ब्वन च, अपड़ि गेड़ि-पल्लौ लगैकि लेख्यां तैं छपवौण तक बि क्वी कठिनै नी। पर छपवौणा बाद लेख्यां तैं पढ़दरों तक पौंछवाणो संकट छैं च।' ये बड़ी बिडम्बना है! हाँ, बिडम्बना है!! लेेखक के लिये नहीं...बल्कि, उनके लिये जो गढ़वाली होते हुये भी गढ़वाली पढ़ना-लिखना नहीं जानते या सीखना समस्या समझते हैं...जबकि खूब बोलते𝔠ाते हैं। इस समस्या का एक ही समाधान है-गढ़वाली साहित्य पढ़ो! नरेन्द्र कठैत इसी समस्या के डाक्टर है।
अब आर-पारै लड़ै पर आते हैं-इस संग्रह के 23 लेखों में पहला लेख है-जीभ(जिह््वा) जो शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से एक है। जिससे हमें रस का ज्ञान होता है तथा जो भाषा व शब्द के उच्चारण में अपनी महती भूमिका अदा करती है। इसके साथ ही लेखक प्रतीक रूप से ही इस लेख में जिह््वा को लेते हुये दर्शाता है कि जिस प्रकार जिह््वा अपनी कोमलता लिये हुुए मुंह में विशिष्ठ है। उसी प्रकार अच्छे स्वभाव, आचार-विचार के मनुष्य को इस विकट संसार में जीवन यापन करते हुये अपनी पहचान बनानी चाहिए। 
दूसरा लेख है- भूख-तीस। भूख-तीस ये शरीर की आवश्यक आवश्यकताएं और मन की इच्छाएं भी हैं। इसी भाव को इस लेख में स्पष्ट किया गया है। इसके पश्चात चणा(चना) लेख है। चणा विशिष्ट खाद्य पदार्थ है। इसकी विशिष्टता पर प्रकाश डालते हुये 'एक अकेलु चणा भाड़ नि फोड़ सक्दू उक्ति के मार्फत चना और भाड़ के कुछ क्रिया व्यापार को दर्शाते हुए चनेे के महत्व को प्रतिपादित किया है कि जिस प्रकार चना भाड़ में तिड़कता है उसी प्रकार साहसी व कर्मठ मनुष्य को अत्याचार के विरूद्ध तिड़कना चाहिए याने आवाज उठानी चाहिए। तत्पश्चात रोजमर्रा के खाद्य पदार्थ भुज्जि (सब्जी) के माध्यम से वर्तमान मंहगाई को उजागर किया है। और पाँँचवा लेख है लोण अर मर्च। लोण अर मर्च में नमक और मिर्च के महत्व को अनेकों उद्धरणों से स्पष्ट किया गया है। साथ ही नई पीढ़ी को गढ़वाली शब्दों का ज्ञान नहीं है, यह भी व्यंजित किया है। अब आते हैं ढुंगा (पत्थर) पर। इसमें पत्थर के आकार-प्रकार-विन्यास -उपयोग और महत्ता पर इतना सुन्दर और विश्लेषणात्मक विवरण है कि अचम्भित हुए बिना नहीं रहा जाता। इस लेख का अंतिम वाक्य है-भीटौं कि दुन्या समाळीं च। ओडोन दुन्या बरबाद कर्यालि। (पुस्तों ने दुनिया संभाल रखी है। विभाजनों ने दुनिया बर्बाद कर दी है।) यह मुहावरा है। जो धीरे-धीरे लोकोक्ति हो जायेगा; यकीनन!
इसके पश्चात है जुत्तू (जूता)। जूते का लोग विविध इस्तेमाल करने लगे हैं विशेषकर 'नजर' लगने हेतु। लेखक का कहना है कि अच्छे कर्म करें। जूते की जरूरत उचित प्रयोग से ही होगी। 
आठवाँ लेख है हिकमत द्यखादि में महिलाओं के परस्पर परिहास का चित्र खींचा गया है। 
तदनंतर, गौं बगण से बचगि में लेखक ने बड़ी ही चपल भाषा में उत्तराखंडियों की भोथरी अक्ल का जायजा प्रस्तुत कर दिया कि बड़े-बड़े डाम बनने पर भी उत्तराखण्ड को कोई फायदा नहीं बल्कि पानी के भी लाले पड़ गये। गौं बगण से बचगि! जबरदस्त व्यंग्य!
अब देखते हैं-रूपये के इस लेख में सब कुछ समझाने के लिये कठैत का यह वाक्य ही काफी है-'पर रौब-दाब त् दुन्या मा डौलर, पौंडौऽ कु हि च। डौलर त् कै दौं रुप्ये धौंणि मा चढ़ जांदु।'
इसके ठीक बाद डौलर के मालिक अमेरिका का आता है। इस लेख में लेखक स्पष्ट करता है कि जो अमेरिका की नकल करेगा उसका कभी कल्याण नहीं हो सकता। जैसे सूरजमुखी सूर्य की नकल करते हुये दम तोड़ देता है, लेकिन सूर्य तो सूर्य है याने जिस राष्ट्र को उन्नति करनी है, अपने सामथ्र्य को संवारे। 
बारवाँ लेख है-परमात्मा। मेरे विचार से परमात्मा व्यंग्य का विषय नहीं हो सकता। लिखने को कोई किसी पर भी कुछ भी कैसा भी लिख सकता है...पर। परन्तु-परन्तु...इसी लेख के दो वाक्य इस बात की पुष्टि करते हैं यथा-'आत्मा मा दया भौ नी।' और- 'आत्मा त हमारि संगत-सौबत मा बिगड़ि।' स्पष्ट करना चाहूंगा कि, आत्मा परमात्मा का अंश है। जो गुण अंशी में होते हैं वही गुण अंश में भी होते हैं। अतः आत्मा के बिगड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता। बिगड़ता तो 'मन' है और सुधरता भी 'मन' है। 'आत्मा' को तो 'मन' के साथ भुगतना पड़ता है। इसीलिए कहा जाता है-'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। आत्मा तो निर्लिप्त है परमात्मा जैसे। अब, आर-पारै लड़ै के विषय में मेरा निवेदन है कि भूमिका में इसका बखूबी उल्लेख है। प्वटगि चैदवाँ लेख है। प्वटगि याने पेट की खातिर मनुष्य क्या नहीं करता व सहता। इसी को व्याख्यायित किया गया है।
तत्पश्चात चवन्नी में दर्शाया गया है कि संसार/व्यक्ति में चैपाई ईमानदारि भी जाती रही। वर्तमान की यह स्थिति है। फिर गौं का चोर लेख में स्पष्ट किया गया है कि अपनी नंगई छुपाने के लिए दूसरे को नंगा करने का प्रयास कैसे करते हैं लोग।
उत्तराखण्ड से हो रहे पलायन पर व्यंग्य है भग्याना भाग बल खणी खाड। इस लेख का यह वाक्य उत्तराखण्डियों की आँखे खोलने वाला है- 'अरे इन बता तौंकि बुद्धिन गौं कु क्य भलु ह्वे? मूल तौंकु खंद्वार हुयूं छ, निवास कागज मा बणौणा छन।' ऐना में देखें अपना चेहरा! ऐना याने दर्पण, चश्मा नहीं। इस ऐना में सूरत ही नहीं सीरत वालों का भी परीक्षण होता है। इस लेख के अंतिम संवाद दृष्टव्य है-
-तुमुन क्य देखी?
-वु जोगि भैर हमारा ऐना मा मुंड कटोरनू छौ।
-इन बोलादि अलाउद्दीन अब देळि तलक पौंछिगि।
-पर हम बि रतनसिंघ नि छां।
अब बारी आती है- हाँ की। इस लेख में हाँ की महत्ता बताते हुए उसे सच के साथ संलग्न कर दिया गया जो जीवन में सुख की ओर ले जाता है। अब, हाँ के पश्चात बीसवाँं लेख है-ना। लेखक स्पष्ट करता है कि यद्यपि छींक और ना का परस्पर कोई संयोग नहीं है। परन्तु लोगों ने जबरदस्ती इसे हठपूर्वक एकाकार कर टोकने का माध्यम बना दिया है।
उन्नीस-बीस के बाद जब कोई इक्कीस हो जाता है तो उसके विषय में कोई बात ठीक-ठाक करना व्यर्थ सा हो जाता है। सो टीक-ठाक फिरि भी संयोग से इक्कीसवां लेख है। फिरि याने मुफ्त। इस लेख में लेखक ने व्यंजनात्मक शैली में स्पष्ट किया है कि फिरि कुछ नहीं मिलता। सब धोखा है।
आखिरी लेखों में राजा बलि क्यांन डौरि? ये बहुत विचारात्मक लेख है। दो पैरों के संयोग को नमन करने से पे्रम बढ़ता है जो ईश्वर प्राप्ति व मनुष्य जीवन के मूल उद्देश्य तक पहुंचाता है। साथ ही एक-एक कदम के सहयोग से भी जीवन सफल हो जाता है। दृढ़ता से रखा पग भी सफलता देता है।
अंतिम लेख है-टेक्वा (वृद्धावस्था का सहारा लाठी)। टेक्वा को परिभाषित करता है लेखक- 'लखड़ै वा चीज जैको एक किनारु मनख्या हाथ मा भुयां टेकेगि अर हैंकु ऐंच उठ्यूं रैगि।' अगर टेक्वा को प्रतिकात्मक रूप में लिया जाय तो आज के संदर्भ में नेता लोग जनता के सहारे ऊँचे पदों पर ऊँची कमाई पीट लेते हैं, लेकिन जनता धूल ही चाटती रह जाती है। आदि...आदि...
इस प्रकार, इन समस्त लेखों को पढ-समझ कर मैं यह कह सकता हूं कि कठैत जी निरंतर लेखन की उत्कृष्ठता की ओर उद्यत होते जा रहे हंैं। इस संग्रह में तो व्यंग्य से बढ़कर वैचारिकता का वैचित्र्य अपनी ओर आकृष्ठ कर रहा है। कहीं-कहीं पर तो गंभीरता इतनी आ गई है कि मन कर रहा था कि एक ही लेख पर लिखना होता तो ठीक था। यों भी, सारे लेखों पर लिखने के बजाय किसी एक लेख पर लिखना समीक्षक के लिए ज्यादा सहुलियत व आनन्ददायक होता है। लेकिन, पूरी पुस्तक के लेखों पर लिखना एक ही आलेख में सरल नहीं होता। सो जैसा मैं इन लेखों के सार को पकड़ पाया, लिखा।
परन्तु, मैं यह दावे से कह सकता हूं कि नरेन्द्र की भाषा में जो  प्रवाह है, वह बेजोड़ है। मुुहावरे उसकी भाषा के बेशकीमती नगीने हैं। इसी कारण कठैत की भाषा बोधगम्य व व्यंजनात्मक बन जाती हैं। लेकिन जैसा कि मैंने इस संग्रह में गाम्भीर्यता भी देखी, इससे भविष्य का सशक्त निबंधकार भी उसके भीतर से प्रकट होने ही वाला है।


पुस्तक  -आर-पारै लड़ै
लेखक  -नरेन्द्र कठैत
समीक्षक -चिन्मय सायर
प्रकाशक-विनसर पब्लिशिंग  कम्पनी, देहरादून, उत्तराखण्ड