आरजू


कभी सोचता हूँ-
आवारा बादलों के साथ
क्षितिज के उस पार की 
बातें करूँ...
नीले आकाश के 
निश्पाप चेहरे पर
धरती के चुंबन का निशां खोजूँ...
ताजी हवाओं के साथ उड़कर
हिमालय के कानों में
शिवालय का गीत गुनगुनाऊँ...
कविता के साथ 
कश्मीर बन जाऊँ
तख्ते-सुलेमान को,
चिनार के दरख्तों की 
पीर सुनाऊँ...


कभी सोचता हूँ-
खुशबूदार बुग्याली फूलों पर
वासंती बौछार छोड़कर
उन्हें 'कोहरे' के आने की 
खबर कर दूँ
या तितलियों के साथ-साथ
लय मिलाकर नाच
सारी घाटी को बेखबर कर दूँ...


कभी सोचता हूँ-
हिमालय का एक टुकड़ा उठाकर
गोबी के मरूस्थल में रोप आऊँ
और बामियान में जाकर देखूँ
कि बन्दूकें उगीं या बोधि वृक्ष!
हताश मन के
इन उदास अंधेरों में
एक आरजू यह भी है कि
आँगन से फुर्र उड़ती चिड़ियाँ
और सपनों में रोज 
बोलती गुड़िया
दोनों को सिरहाने देखकर-
छोटे बच्चे की तरह खिलखिलाऊँ
और दो पल के लिए
यहाँ रहकर वहाँ चला जाऊँ
जहाँ सब कुछ अच्छा है...


कभी सोचता हूँ-
तम-तमस की तलहटियों पर
सूरज की किरण बनकर चमकूँ
वेदना की मरूभूमियों पर
हिमनद का पिण्ड बनकर फिसलूँ
जिन्दगी के उदास चेहरे पर
तपस्वी का तेज बनकर दमकूँ
और समेट लूँ 
दर्द को कुछ इस तरह -
जिस तरह समेटता है चाँद
धरती की तपिस को
या जिस तरह समेटती है धरती
आकाश के आक्रोश को...
या जिस तरह समेटते हैं 
पहाड़ी बुराँश
घसेरियों के गीतों की पीर को
और काफल की फुनगियाँ
ग्वाल-बालों के 
आनन्द स्पर्श को...


कभी सोचता हूँ-
गेंदा, गुलाब और 
गुलबहार से पूछूँ
दिलकश दोस्तांे!
तुम्हें ऐसी खुशबू कहाँ मिली?
जुगनुओं से पूछँ-
धरती के सितारों!
तुमनें उजाला कहाँ पाया?
तितलियों से पूछूँ-
चलते-फिरते फूलों!
तुम्हारे रंगों की कूची 
कहाँ बनती है?
झरनों से पूछँ- 
बरसते बुलबुलों!
इस मुस्कुराहट का 
राज क्या है?
बुलबुल से पूछँ-
बोलती वीणा!
इन गीतों का स्रोत कहाँ है?
पंतगों से पूछँ-
उन्मादी अंगारों!
उजाले को लेकर 
इतनी दीवानगी
आखिर क्यों?


कभी सोचता हूँ-
चाँदनी रात में
संसार की छत पर बैठकर
ईश्वर के कानों में गुनगुनाऊँ
'आदमी की बिल्कुल मत सुनना
तुम्हारी दुनियाँ में जो कुछ है
लाजवाब है!!'