अब स्लमगाॅड न कह देना


 
स्लमडाॅग .... बोले तो .... गली का कुत्ता .... भारत झोपड़ पट्टियों का देश नहीं था .... कुछ रद्दी लोग मुगलकाल में हमारी बड़ी मण्डियों में एकत्र हुए .... ब्रिटिश शासन ने हमारी विकेन्द्रीकृत ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तोड़कर हमारी बड़ी नदियों, सागर किनारे के शहरों और प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा वाले स्थानों में कारखाना संस्कृति के कला भवन बनाये .... इस नई जीवन प्रणाली पर भारत का किसान कबूतरों की तरह उड़कर इस मशीन के बड़े पिंजरों में कैद होकर नारकीय जीवन को स्वीकार कर बैठा .... ये अलग बात है कि आज वही बाजार जिसे उन्होंने गरीब राष्ट्रों के संसाधन लूटकर एक उपकरण की तरह प्रयोग किया था .... वही बाजार, उनके डालर और यूरो डालर की ही कमर तोड़ रहा है .... तो ये झुग्गियां तब से ही लगनी शुरु हुई थी .... नेहरु महाराज सत्ता में आये तो अंग्रेजी बोली भाषा में ही सोचते रहे .... इंदिरा गांधी ने झुग्गियों का दूसरा संस्करण तैयार किया .... एक तो वे 71 के युद्ध  में 'दुर्गा' भी बनी .... और दूसरे बांग्लादेशियों को मतदाता बनाकर उन्हींने झोपड़ पट्टियों की राजनीति शुरु की .... हेमवती नंदन बहुगुणा उसके प्रमुख सहयोगी थे।
कांग्रेस की इस नीति केा ज्योति वसु ने पहचाना .... धड़ाधड़ बांग्लादेशियों के राशन कार्ड बने, शीला दीक्षित ने इसी झोपड़ पट्टी की राजनीति से हेट्रिक बना ली .... बांग्लादेशियों को झोपड़ियों में रहने का मलाल नहीं है .... यह तो पूरे विश्व में आतंकियों की रणनीति है कि जनसंख्या बढ़ाओ और राजनीति हड़पो बंग्लादेशी अपने देश में वैसे ही रहते हैं .... दिल्ली मुम्बई की झोपड़ियों में कम से कम खाना और पैदा करने की सुविधायें तो हैं .... बांग्लादेश की पैफक्टरी बहुत उपजाऊ है .... तो कम से कम एक आॅस्कर बांग्लादेश को और दूसरा कांग्रेस पार्टी को भी मिलना चाहिए था आखिर उन्हीं के कारण झोपड़ियों का नर्क हमारे महानगरों में कुलबुला रहा है .... यदि कांग्रेस पार्टी का यह राजनीतिक कमाल नहीं होता .... तो डैनी बोयले उसे पर्दे पर उतार कर पश्चिम के लिए कैसे मनोरंजन कर सकते .... जय हो .... ;गुलजार की भीद्ध
अंग्रेजों ने भारत में हिल स्टेशन बनाये जहां वे भारतीयों के प्रवेश नहीं चाहते थे परन्तु पिफर उनकी नौकरी कौन करता .... तो उन्होंने 'माल रोड' बनवाया और उसमें भारतीयों तथा कुत्तों का प्रवेश निषि( था .... यह प्रवेश की बात नहीं थी ....यह भारतीयों को 'कुत्ता' कहने की शुरुआत थी .... स्वतंत्राता के बाद भी हमने उनकी इन गालियों को संभालकर रखा हुआ है .... बोयले ने यह पिफल्म बनाकर हमें पुनः याद दिलाई है कि हम पुरस्कारों, पैसौं के लिए चार हाथ-पांवों पर रेगनें वाले वही भारतीय हैं जो 19वीं-20वीं सदी में थे .... इसी कारण अरुन्धती राय, श्याम बेनेगल, सत्यजीत राय जैसे नोटजीवी और प्रणव राय जैसे मीडिया कर्मी गले में उसी प्रगतिवाद का पट्टा बांध कर घूमते हैं .... क्या पता कब कौन साहब खुश हो और पद-पुरस्कार की हड्डी पेंफक दें। अमिताभ कहते हैं कि यह हमारी गरीबी को बेचा जा रहा है .... तो अमिताभ ने क्या किया उन्होंने हाॅजी मस्तान के चरित्रा को बेचा, करोड़पति बनने का स्वप्न बेचा .... बोयले भी वही बेच रहे हैं .... भारत की निचली आबादी के सम्मुख करोड़पति बनने का स्वप्न टांग दिया गया है .... पश्चिम अपने मन की वासना को हमारे क्षितिज पर सजाकर भारतीय समाज की आन्तरिक संरचना को तोड़ना चाहता है .... ऐसा नहीं कि हम भारतीय समृ( नहीं थे .... यदि हम समृ( नहीं होते तो मुगल क्यों यहां आते। खोते-खच्चरों में हीरे-पन्ने लादकर ले जाने वालों की सन्तानें हमें सहिष्णुता के हाव-भाव सिखाने शिक्षक बनकर आती हैं .... यदि भारत समृ( और वैभवशाली नहीं था तो ये गोरे यहां पर क्यों आये? उनके पास सिवाय बारुद और बदूंक के कुछ भी नहीं था .... हमारी श्री सम्पदा के बल पर यूरोपीय सभ्यता की नींव रखी गई .... बिलगेट्स से लेकर पफोर्ड तक की कहानी का एक-एक शब्द हम भारतीयों का 'दान' है .... ऐसा नहीं कि हमारे गांवों में गरीबी नहीं थी परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के पास रहने को घर था, खाने को भोजन था, पहनने को कपड़ा था, आचरण में शील और सन्तोष था .... झोपड़ पट्टी के जमाल, सलीम और लतिका आक्रांताओं का शेषपफल है। ये अपराध, भ्रष्टाचार, तस्करी, वेश्यालय मुगलकाल की जूठन है .... हमारे मुलायम, लालू, पासवान और कांग्रेस का प्रतिबिम्ब है .... पिछले पचास वर्षों में सिंहासन को घेर कर खड़े इन अपराधियों और नपुंसकों ने ही हमारे इस प्राचीन राष्ट्र की ऐसी गत बना डाली कि लोग हमारे जीवन को प्लेटों में सजाकर बेच रहे हैं, हंस रहे हैं, हमें पुरस्कृत कर रहे हैं ताकि हम चुप रहकर उनके लिए अपने अन्तः पुरों को खुला रहने दंे .... रवीन्द्र, सुब्बालक्ष्मी और पुलस्कर जैसों को संगीत का आॅस्कर मिलता तो तुक था .... रहमान का संगीत तो पफोकटिया पुरस्कार लगता है। करोड़पति बनना भारत का स्वभाव नहीं है .... हमारे यहां जितने भी अवतार हुए। वर्धमान, सि(ार्थ, राम तथा कृष्ण सभी राजाओं के पुत्रा थे .... श्री सम्पदाओं को ठोकर मारकर जीवन के शाश्वत मूल्यों की खोज भारतीय समाज का मूल स्वभाव था .... हमारे देश में इतने साधु-सन्यासी, जोगी-पफक्कड़ घूमते हैं .... उनका समाज में आदर उनके 'छोड़ने' के कारण है .... वैसे संचार और पूंजी ने हमारे मठ-मन्दिरों में भी प्रवेश कर लिया है .... देवमूर्तियों के वामांग में इंटरनेट की तार से जोगी लोग भी 'ब्लाग' देख रहे हैं .... परन्तु इतने भर से कोई राष्ट्र पराजित नहीं हो जाता .... हिन्दु राष्ट्र एक पिफल्म दिखाने से न तो लज्जित हो सकता है और न ही एक आॅस्कर से वह जीनियस बन जायेगा .... सारे विश्व को हमारी बात माननी ही पड़ेगी क्योंकि वही शाश्वत सत्य है .... और सत्य ही सुन्दर और शिव है .... हां बोयले को बतादो कि हमारे देश में एक नंग-धडंग देवता भी है जिसके गले में सांप, खाने को धतूरा है, रहने को झुग्गी से भी बदतर .... नंगा-पठाल .... चाहो तो उस पर पिफल्म बना लो .... लेकिन शरीर को मन्दिर बनाने वाले, भस्म अंग, हमारे भोले बाबा को कहीं स्लमगाॅड न कह देना ....वह तुम्हें आॅस्कर तो नहीं परन्तु सद्बु(ि देगा। भारत राष्ट्र ने किसी भी ज्ञान-जिज्ञासु को निराश नहीं किया है।