अगहन पूस सीत सुख काला (नव वर्ष पर )


नये साल पर जो भी हुड़दंग होता है, वह अकारण नहीं है। पश्चिमी मीडिया जो कि बाजार के दर्शन पर ही मुटियाता रहा है, ने ही नये वर्ष के आगमन को ऐसे कुहराम में बदला है। ग्रिगेरियन कलेण्डर जिसे कि ब्रिटिश साम्राज्य ने पहले तो अपने अधिकांश उपनिवेशों में समय का मानक बनाया, फिर उनके मीडिया ने ही भारत जैसे समृ( परंपरा वाले देशों की स्मृति को वर्षाें अपनी मारक चकाचैंध से धोया, पोछा और जब भाई लोग आश्वस्त हो गये तो बड़ी कम्पनियां अपने पूरे अस्त्रों सहित इस उत्सव में कूद पड़ीं। टीवी पर छायायु( रचे गये, समय की भड़कीली रोशनी से बीच बाजार में खड़े दैत्याकार होटल-माॅल उत्तेजना के शुभंकर बन गये, शुभकामनाओं के एलीट बुके और मंहगे कार्ड नये वर्ष के कर्मकाण्ड बन गये। और सर्वोपरि दुनिया भर में दारू सूतकर नये वर्ष की जय जयकार करने वाले सदाबहार उपभोक्ता आनंद के विज्ञापन बन गये...यही तो बाजार की शक्ति है। बाजार देश -समाज, आबाल-वृ( सबकी अक्ल-शक्ल बदल देता है। बाजार धांसू संस्कृतियों को तबेला बना देता है। आजकल नये वर्ष का यह त्यौहार हमारे समाज में धमाल कर रहा है, बाजार हमारी प्रत्येक गली, घर में झाड़ू फेर रहा है। षड )तुओं की ताल पर थिरकने वाला देश अंदर-बाहर से खाली हो रहा है। बाजार हमारी ज्ञानपीठों पर आसंदी लगा के बैठ गया है। जो लोग बाजार को मात्र आर्थिक लुटेरा समझते हैं, उन्हें नहीं मालूम कि बाजार भी एक यो(ा है, वह  हमें लड़ने का समय दिये बिना अपना दास बना देगा, हमारी आनुवांशिकी बदल देगा, कंगाल तो करेगा ही। हजारों वर्षों से जिस समाज को नृशंस हत्यारे, सुल्तान और चालाक सत्तायें नहीं उजाड़ सकीं, क्या बाजार उसे भू- लंुठित कर देगा? नये साल पर होने वाला यह शोर कहीं भारतीय संस्कृति की मृत्यु का मौन विज्ञापन तो नहीं?
इस एक जनवरी को बाईबिली कथानक से जोड़कर देखने वाले लोग इसे समय का उत्सव क्यों कहते हैं? समय की समझ आदिकाल से जिस समाज को थी, उसके हेमन्त को तो हम भूल ही गये। हमने तो समय को एक खूंटी का कलेण्डर तो कभी नहीं माना था। हमने समय को एक वर्तुल माना, इसी कारण हमारे देश में नव वर्ष की एक तिथि नहीं है। आॅफिस के कलेण्डर से अधिक अपने यहां भौगोलिक परिवर्तनों को घड़ी बनाया गया। ऐसा नहीं है कि विज्ञान ने समय को नहीं जाना है, पर जितना वह समय के तिलिस्म में गया उतना नासमझ होता गया, और अब तो विज्ञान यदि किसी विषय पर बात करने से झिझकता है, तो वह समय है। इसी कारण भारत के )षियों ने विराट समय के परिवर्तनों को हाथ जोड़कर अपने लिये वार्षिक घड़ी बनाई। पश्चिमी समाज विज्ञान को जानकर भी अपने अहंकार छोड़ने को तैयार नहीं, वरना वह बाईबिली चिंतन को नजर का चश्मा लगाता, सारी दुनिया के समय को एक डण्डे से हांकने की बजाय भारतीय समाज की तरह भौगोलिक परिवर्तनों के बैरोमीटर को देखकर नाचता। पृथ्वी पावस, शरद, और हेमन्त )तुओं  में अण्डाकार चक्र के कारण सूर्य से दूर जाती है। आधा कार्तिक यानि शरद पूर्णिमा से हेमंत की शुरूआत मानी जाती है। धान कट चुकी है, कीट-पतंगे समाधिस्थ हो गये हैं, गुलाबी ठण्ड और गुनगुनी धूप से इस कारण गांव-देहात में चैन की नींद है। आधा अक्टूबर, नवम्बर और लगभग आधा दिसम्बर तक हेमन्त का शरीर माना जाता है। यह सेहत बनाने की )तु है। चरक ने कहा है-शीते शीतानिलस्पर्शसंरू(े बलिनां बली। शरीर के सभी दोष शांत होकर जठराग्नि उच्च हो जाती है ...यानि लक्कड़-पत्थर सब हजम। यही तो उमंग का कारण है और हम अपने युवाओं को दोष देते हैं  कि वे इस इकतीस दिसम्बर को क्यों इतना बवाल काट रहे हैं। पर दोष ये तो है कि उन्हें हेमन्त से अधिक यह कलेण्डर की फड़फड़हट लग रही है। वे जिन मैकाले के संस्थानों से पढ़कर आये हैं, वहां हेमन्त साम्प्रदायिक है, उन्हें ग्लोबल ब्वाॅय जो बनाया गया है। बाइस दिसम्बर से पृथ्वी सूर्य की ओर आनी शुरू होती है, यह  सबसे छोटा दिन होता है...बड़े दिनोें की शरूआत...इसे बड़ा दिन तो मत कहिये। यह  हेमन्त का भी आखिरी दिन होता है, इसे पश्चिम में विंटर सोलिस्टस भी कहते हैं। अब सूर्य उत्तरायण होने लगते हैं। इस कारण वर्षा, शरद और हेमन्त को पितरों की )तु और शिशिर, बसन्त, और ग्रीष्म को देव )तु कहा जाता है। हेमन्त त्यौहारों की )तु है...दीवाली, भैयादूज जैसे त्योहार, वार्निश-पेंट की उत्तेजक गंध और सुन्दर स्वास्थ्य के कारण प्रदीप्त काम। इसी कारण शायद गीता ने भी हेमन्त के मध्य माह , मार्गशीर्ष  या मगसर की महिमा गाई है-मासानां मार्गशीर्षाेऽहम्। इसी मंगशीर का दूसरा नाम अगहन या अग्रहायण भी है। कहते हैं  मृगशिरा नक्षत्र के कारण इस माह का नाम रखा गया। कालीदास ने भी हेमन्त की महिमा गाई है-नवप्रवालोद्रमसस्यरम्यः प्रफुल्लोध्रः परिपक्वशालिः। बीज अंकुरित हो चुके हैं, लोध्र पर फूल आ चुके हैं, धान की पकी फसल कटने को तैयार है  पर कमल अभी नहीं खिले हैं , इस कारण सुंदरियां लोध्र के पुष्पों का उपयोग कर रही हैं। लोध्र का उपयोग आज भी कई कम्पनियां सौंदर्य प्रसाधन में करती हैं, कालीदास के समय इसे चंदन के साथ उबटन में मिलाया जाता था। सच कहूं  यह  बात न हेमन्त के भूलने की है  न नये साल के धूम-धड़ाके की। आदिकाल से भारत में भी दो तरह  की होलियां खेली जाती थीं, एक नंदन कानन स्टाइल में...चैत्य वृक्ष पर पदाघात, काम की पूजा, नृत्य आदि और दूसरे कुछ लोग वही लालू टाइप कपड़ा फाड़ भी थे। इन दूसरे टाइप लोगों की जनसंख्या आज बढ़ रही है। इन्हें तब दैत्य-दानव, राक्षस, पिशाच कहते थे, आज वे स्वयं को सेकुलर कहकर सब पर दाड़े मारते  हैं। इकतीस जनवरी को यही दैत्य अपनी दैत्याकार गाड़ियों से हार्न की चिंघाड़ करते हुये दैत्याकार होटलों में उत्पात करते हैं, यह उनके लिये आनंद है। इनके सींग तो नहीं होते, वैसे सींग तब भी नहीं थे, यह प्रतीकात्मकता है। आहार, निद्रा, मैथून के लिये जीते लोगों को पशु ही तो कहेंगे। बल्कि पशु तो शरीर तक है, ये भाई लोग तो शरीर से इतर क्षेत्रों को भी तबेला बनाते हैं। कालीदास की परंपरा के प्रेमी पोखर-तालाब की जल तरंग सुन कर नियंता के संगीत सुनते हैं। लोकगायन, वादन, नृत्य, पक्वान तथा ग्रामीण भारत की सामुहिकताओं  के हर्ष-जय समय का स्वागत करने की देशी विधियां थीं। अरे भाई! अपन कोई साम्प्रदायिकता नहीं फैला रहे हैं। जायसी जैसे मुसलमान को भी हेमन्त अलग सुख देता था-')तु हेमंत संग पिएउ  पियाला, अगहन पूस सीत सुख काला'  वैसे )तु के साथ बैठ कर आनंद का प्याला पीना और बात है और दारू सूतकर पूरी रात हल्ला तो दैत्य संस्कृति का हिस्सा था, वे अब भी हैं,  और भारत की परंपराओं, उसकी रीति-नीति से उनका अब भी बैर है। प्रकृति का अहोभाव से स्मरण करने वाले दर्शन अब मीडिया की आर्काइब में अपनी खाल सुखा रहे हैं। विराट की आंखों में आंखे डालकर हेमन्त के विहंगम दृश्य देखने वाली पूरी पीढ़ी तो कमाऊ पूत बनी है, उनके कान में  गूगल है,  धुंध, तापक्रम उन के दैनिक भय हैं, जिनकी जड़ों में देशी पानी है, वे  राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता बन चुके हैं। वे फोकट में हेमन्त का प्रचार क्यों करेंगे? नये साल से अपना पंगा नहीं है, पर इस उमंग, जो कि हेमन्त के कारण है, को मात्र एक जनवरी के माथे पर क्यों सजने दूं?