संभवतः भारत में बहुत थोड़े लोग यह जानते हैं कि जिस प्रकार आज हम विदेशी भाषा-अँग्रेजी के प्रभाव से आक्रांत हो कर स्वदेशी भाषाओं की उपेक्षा कर रहे हैं, उसी प्रकार किसी समय इंग्लैंड भी विदेशी भाषा, फ्रेंच के प्रभाव से इतना अभिभूत था कि न केवल सारा सरकारी काम फ्रेंच में होता था, बल्कि उच्च वर्ग के लोग अँग्रेजी में बात करना भी अपनी शान के खिलाफ समझते थे। किंतु जब आगे चल कर फ्रेंच के स्थान पर अँग्रेजी लागू की गयी, तो उसका भारी विरोध हुआ और उसके विपक्ष में वे सारे तर्क दिये गये, जो आज हमारे यहाँ हिंदी के विरोध में दिये जा रहे हैं। फिर भी कुछ राष्ट्रभाषा-प्रेमी अंग्रेजों ने विभिन्न प्रकार के उपायों से किस प्रकार अँग्रेजी का मार्ग प्रशस्त किया, इसकी कहानी न केवल अपने आप में रोचक है, बल्कि हमारी आज की हिंदी विरोधी स्थिति के निराकरण के लिए भी उपयुक्त मार्ग सुझा सकती है।
इंग्लैंड में अँग्रेजी का पराभव क्यों?-वैसे अँग्रेजी इंग्लैंड की अत्यन्त प्रचीन भाषा रही है, यहाँ तक कि जब इस देश का नाम 'इंग्लैंड' के रूप में विख्यात नहीं हुआ था, तब भी 'इंग्लिश' भाषा का अस्तित्व था। वस्तुतः 'इंग्लिश' नाम 'इंग्लैंड' के आधार पर नहीं पड़ा, इंग्लिश भाषा के प्रचलन के कारण ही इस भूभाग को इंग्लैंड की संज्ञा प्राप्त हुई तथा १०वीं शताब्दी तक यह समूचे राष्ट्र की बहुमूल्य भाषा के रूप में प्रचलित थी। किंतु ११वीं शती के उत्तरार्ध में एकाएक ऐसी घटना घटित हुई, जिसके कारण इंग्लैंड में ही अँग्रेजी का सूर्य अस्त होने लगा। बात यह हुई कि १०६६ में फ्रांस के उत्तरी भाग, नॉरमैंडी के निवासी नॉर्मन लोगों का इंग्लैंड पर आधिपत्य हो गया। उनका नायक ड्यूक ऑफ विलियम, इंग्लैंड के तत्कालीन शासक हेराल्ड को युद्ध में पराजित करके स्वयं सिंहासनरूढ हो गया और तभी से इंग्लैंड पर फ्रेंच भाषा एवं फ्रांसीसी संस्कृति के प्रभाव की अभिवृद्धि होने लगी, क्योंकि स्वयं नार्मन्स की भाषा और संस्कृति पूर्णतः फ्रेंच थी। जब शासक वर्ग की भाषा फ्रेंच हो गयी, तो स्वाभाविकतः न केवल सारा राज-काज फ्रेंच में होने लगा, वरन शिक्षा, धर्म एवं समाज में भी अँग्रेजी के स्थान पर फ्रेंच प्रतिष्ठित होने लगी। उच्च वर्ग के जो लोग सरकारी पदों के अभिलाषी थे या जो शासक वर्ग से मेलजोल बढ़ा कर अपने प्रभाव में अभिवृद्धि करना चाहते थे, वे बड़ी तेज गति से फ्रेंच सीखने लगे तथा कुछ ही वर्षों में यह स्थिति आ गयी कि धनिकों, सामंतों, शिक्षकों, पादरियों, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों आदि सबने फ्रेंच को ही अपना लिया और अँग्रेजी केवल निम्न वर्ग के अशिक्षित लोगों, किसानों और मजदूरों की भाषा रह गयी। अपने आपको शिक्षित कहने या कहलाने वाले लोग केवल फ्रेंच का ही प्रयोग करने लगे और अँग्रेजी जानते हुए भी अँग्रेजी बोलना अपनी शान के खिलाफ समझने लगे। यह दूसरी बात है कि कभी-कभी उन्हें अपने अनपढ़ नौकरों या मजदूरों से बात करते समय अँग्रेजी जैसी 'हेय' भाषा में भी बोलने को विवश होना पड़ता था। आगे चल कर इंग्लैंड नार्मन्स के अधिपत्य से तो मुक्त हो गया, किंतु उनकी भाषा के प्रभाव से फिर भी मुक्त नहीं हो पाया। इसका कारण यह था कि जिन अंग्रेज राजाओं का अब इंग्लैंड में शासन था, वे स्वयं फ्रेंच के प्रभाव से अभिभूत थे। इतना ही नहीं उनमें से कुछ का ननिहाल फ्रांस में था, तो किसी की ससुराल पेरिस में थी। अनेक राजकुमारों और सामंतों ने बडे यत्न से पेरिस में रहकर फ्रेंच भाषा सीखी थी, जिसे बोल कर वे अपने आपको उन लोगों की तुलना में अत्यंत 'सुपीरियर' समझते थे, जो बेचारे केवल अँग्रेजी ही बोल सकते थे। दूसरे, उस समय फ्रेंच भाषा और संस्कृति सारे यूरोप में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। फिर अँग्रेजी की तुलना में फ्रेंच का साहित्य इतना समृद्ध था कि उसे विश्वज्ञान की खिड़की ही नहीं, 'दरवाजा' (गेट) कहा जाता था। ऐसी स्थिति में भले ही इंग्लैंड स्वतंत्र हो गया हो, पर वहाँ अँग्रेजी की प्रतिष्ठा कैसे संभव थी? इंग्लैंड में फ्रेंच भाषा के अधिपत्य को बनाए रखने में कुछ राजाओं के व्यक्तिगत कारणों ने भी बड़ा योग दिया। उदाहरण के लिए हेनरी तृतीय (१२१६-१२७२) का विवाह फ्रांस की राजकुमारी से हुआ था, जो अपने साथ भारी दान-दहेज लाने के अलावा अपने आठ मामाओं, सैकडों रिश्तेदारों और उनके सेवकों की पल्टन भी ले कर आयी थी, जिन्हें उच्च पदों पर प्रतिष्ठित करना हेनरी के लिए आवश्यक था। भला ऐसा न करके वह अपनी नव विवाहिता दुल्हन का मन कैसे दुखा सकता था। इसका परिणाम यह हुआ कि एक बार पुनः सभी सरकारी महकमों एवं कार्यालयों पर फ्रेंच का पूरी तरह अधिकार हो गया। जो लोग फ्रेंच में बोल सकते थे, लिख सकते थे या उस भाषा में लिखवा सकते थे, उन्हीं की सरकार में सुनवाई हो सकती थी। ऐसी स्थिति में अँग्रेजी पढ़ना-पढ़ाना बेकार था। अस्तु सामान्य पाठशालाओं में भी अँग्रेजी की अपेक्षा फ्रेंच की ही अधिक पढ़ाई होती थी। किंतु १४वीं शती में इन स्थितियों मे परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ हुई तथा धीरे-धीरे अँग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। इसके कई कारण थे। एक तो यह कि १३३७ से १४५३ तक इंग्लैंड और फ्रांस के बीच युद्ध चला, जिसे इतिहासकारों ने 'शतवर्षीय युद्ध' की संज्ञा दी है। इस युद्ध के फलस्वरूप अँग्रेजी में फ्रेंच जाति, फ्रेंच भाषा और फ्रेंच संस्कृति के विरूद्ध विद्रोह की भावना पनपने लगी।
अँग्रेजी का पुनः अभ्युदय-अब फ्रेंच को शत्रु जाति की भाषा के रूप में देखा जाने लगा। दूसरे इसी शताब्दी में निम्न वर्ग एवं मध्यम वर्ग में नवजागरण की लहर आयी। ये लोग अपने स्वत्व एवं अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगे। १३८१ में मजदूरों ने अधिक वेतन के लिए आंदोलन किया, जिसके फलस्वरूप उनकी स्थिति में सुधार हुआ। देश के विभिन्न संगठनों ने भी अपनी अन्य माँगों के साथ-साथ, स्वभाषा अँग्रेजी को भी मान्यता देने की माँग की। दूसरी ओर मध्यम वर्ग के वे लोग भी, जो अपने बच्चों को पेरिस नहीं भेज पाते थे तथा गांव के स्कूलों में ही पढ़ा कर संतुष्ट हो जाते थे, अँग्रेजी के समर्थक बन गये। उच्च वर्ग में भी अब शुद्ध फ्रेंच बोलने वाले बहुत कम रह गये। सही बात तो यह है कि जिस प्रकार हमारे यहाँ 'लंडन-रिटंर्डं' लोग, अँग्रेजी के बड़े-बड़े प्रोफेसरों पर भी अपने अँग्रेजी-ज्ञान एवं उसके उच्चारण की धाक जमाते रहे हैं, वैसे ही लंदन में कुछ 'पेरिस-रिटंर्डं' लोगों की धाक थी। पेरिसनुमा फ्रेंच बोलनेवाले, अपने ही देश, इंग्लैंड के उन लोगों की खिल्ली उड़ाते थे, जो स्थानीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पढ़ कर टूटी-फूटी या अशुद्ध फ्रेंच बोलते थे। धीरे-धीरे अँग्रेजी के पक्ष में लोकमत जागृत हुआ और १३६२ में पार्लियामेंट में एक अधिनियम 'स्टैचयूट ऑफ प्लीडिंग' (अधिवक्ताओं का अधिनियम) पारित हुआ, जिससे इंग्लैंड के न्यायालयों में भी अँग्रेजी का प्रवेश संभव हो गया। हालाँकि इस अधिनियम का भी उस समय के बड़े-बड़े न्यायधीशों तथा अधिवक्ताओं ने भारी विरोध किया, क्योंकि अँग्रेजी में न्याय और कानून संबंधी पुस्तकों का सर्वथा अभाव था, फिर भी तर्क दिया गया कि ऐसी स्थिति में कैसे बहस की जा सकेगी और कैसे न्याय सुनाया जायेगा। एक देशी भाषा के लिए न्याय की ह्त्या की जा रही है। अतः वैधानिक दृष्टि से भले ही अँग्रेजी को मान्यता मिल गयी, किंतु कचहरियों का अधिकांश कार्य लंबे समय तक फ्रेंच भाषा में ही चलता रहा। १४वीं शती में न्यायालयों के अतिरिक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी अँग्रेजी का पठन-पाठन प्रचलित हुआ। ऑक्सफोर्ड के कुछ अध्यापकों ने भी लैटिन के अतिरिक्त अँग्रेजी की शिक्षा देने की व्यवस्था की।
अँग्रेजी में लिखने के लिए क्षमा-याचना-यद्यपि इस प्रकार इंग्लैंड के जन साधारण में अँग्रेजी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा था, फिर भी उच्च वर्ग के विद्वानों एवं विद्वत्ता की भाषा वह अभी तक नहीं बन पायी थी। फ्रेंच का प्रभुत्व थोड़ा कम हुआ, तो उसका स्थान लैटिन और ग्रीक ने ले लिया। १५वीं शती के पुनर्जागरण युग में ये शास्त्रीय भाषाएँ समस्त यूरोप में ज्ञान-विज्ञान की भाषाओं के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी थीं। ऐसी स्थिति में अँग्रेजी में लिखने वाले लोग प्रायः हेय दृष्टि से देखे जाते थे। इसका प्रमाण इस युग की अनेक रचनाओं की भूमिका से मिलता है, जहाँ उसके रचयिता ने अँग्रेजी में लिखने के लिए अपनी सफाई दी है। उदाहरण के लिए, १४वीं शती के आरंभ में ही एक अँग्रेजी पुस्तक के रचयिता ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा है-'भले ही भाषा की दृष्टि से मैं हीन समझा जाऊं, फिर भी मेरे मन में जो कुछ है, उसे अवश्य बता देना चाहता हूँ। मैं समझता हूँ कि अगर अँग्रेजी में लिखा जाये, तो उसे सब लोग समझ सकते हैं। सही बात तो यह है कि उन क्लर्कों (सरकारी कर्मचारियों) की अपेक्षा, जो फ्रेंच जानते हैं, उस बेचारे जन साधारण को दिव्य ज्ञान की अधिक आवश्यकता है, जो केवल अँग्रेजी ही जानता है, अतः मैं सोचता हूँ कि यदि अँग्रेजी में कोई अच्छी चीज लिखी जाये, तो यह एक पुण्य का कार्य होगा।' इसी प्रकार एश्कम नामक लेखक ने अपनी पुस्तक 'टॉक्सो फिलस' की भूमिका में स्पष्ट किया है कि उसके लिए ग्रीक या लैटिन में लिखना अधिक आसान था, फिर भी उसने सर्वसाधारण के हित को ध्यान में रख कर ही अँग्रेजी में लिखने का दुस्साहस किया है, पर इससे भी महत्वपूर्ण वक्तव्य १६वीं शती के एक अन्य लेखक इलियट का है, जिसने अपनी चिकित्सा-शास्त्र की पुस्तक 'कसल ऑफ हेल्थ' अर्थात 'स्वास्थ्य का कवच' की भूमिका में अँग्रेजी में लिखने के लिए क्षमा-याचना करते हुए लिखा है-'यदि चिकित्सक लोग मुझ पर इसलिए कुपित होते हैं कि मैंने अँग्रेजी में क्यों लिखा, तो मैं उन्हें बता देना चाहता हूँ कि अगर ग्रीक लोग ग्रीक में लिखते हैं, रोमन लोग स्वभाषा लैटिन में, तो फिर यदि हम लोग अपनी भाषा अँग्रेजी में लिखें, तो इसमें क्या बुराई है?'। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि किस प्रकार १५वीं-१६वीं शती में अँग्रेजी में ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें लिखना विद्वानों की दृष्टि में हेय समझा जाता था तथा जो ऐसा करने का प्रयास करते थे, वे अपनी सफाई में कोई न कोई तर्क देने को विवश होते थे। इसकी तुलना हमारे मध्यकालीन हिंदी के आचार्य केशवदास की मनस्थिति से की जा सकती है, जिन्होंने अपनी एक रचना में लिखा था-'हाय, जिस कुल के दास भी भाषा (हिंदी) बोलना नहीं जानते (अर्थात् वे भी संस्कृत में बोलते हैं), उसी कुल में मेरे-जैसा मतिमंद कवि हुआ, जो भाषा (हिंदी) में काव्य-रचना करता है। वस्तुतः जब कोई राष्ट्र विदेशी संस्कृति एवं भाषा से आक्रांत हो जाता है तो उस स्थिति में स्वदेशी भाषा एवं संस्कृति के उन्नायकों
में आत्मलघुता या हीनता की भावना का आ जाना स्वाभाविक है।
प्रेयसियों के प्रेमपत्रों की दुहाई-यद्यपि १६वीं शती में अनेक विद्वान अँग्रेजी को अपनाने लगे थे। फिर भी अँग्रेजी और विदेशी भाषाओं का विवाद शांत नहीं हुआ था। अब भी उच्च वर्ग में ऐसे अनेक लोग थे, जो युक्तियों व तर्कों से इंग्लैंड में फ्रेंच का वर्चस्व बनाये रखने के हिमायती थे, जैसे जॉन बर्ट्न ने फ्रेंच को प्रचलित रखने के पक्ष में तीन तर्क दिये। उनके अनुसार, एक तो न केवल अपने देश में बल्कि आस पास के पड़ोसी राज्यों से संपर्क बनाए रखने के लिए फ्रेंच आवश्यक है। दूसरे, ज्ञान-विज्ञान और कानून की सारी पुस्तकें फ्रेंच में ही हैं। तीसरे, इंग्लैंड की सभी सुशिक्षित महिलाएँ एवं भद्रजन अपने प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान फ्रेंच में ही करते हैं। यह तीसरा तर्क सचमुच रोचक है, जो कुछ लोगों को हास्यास्पद प्रतीत हो सकता है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। कई बार ऐसी भी स्थितियाँ होती हैं, जबकि वर्ग-विशेष की रूचि या अनुकंपा के कारण कोई भाषा अपना अस्तित्व बचाये रखती है। उदाहरण के लिए पंजाब में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व पुरूष वर्ग की भाषा प्रायः उर्दू थी, जबकि महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा हिंदी में होती थी। इसलिए कहा जाता है कि पुरूष वर्ग को हिंदी केवल इसलिए पढ़नी पड़ती थी कि वे अपनी पत्नियों तथा माताओं और बहनों के साथ पत्राचार कर सकें, इसलिए पंजाब में हिंदी की परंपरा को जीवित रखने का श्रेय वहाँ की महिलाओं को दिया जाता है। खैर, इन सारी स्थितियों के होते हुए भी राष्ट्रभाषा-प्रेमी अँग्रेजी ने हिम्मत नहीं हारी, वे स्वीकार करते थे कि फ्रेंच, लैटिन और ग्रीक की तुलना में अँग्रेजी भाषा और उसका साहित्य नगण्य है, तुच्छ है। फिर भी अंततः वह उनकी अपनी भाषा है, यदि दूसरों की माताएँ अधिक सुंदर और संपन्न हों, तो क्या हम अपनी माँ को केवल इसलिए ठुकरा देंगे कि वह उनकी तुलना में असुंदर और अकिंचन है? कुछ ऐसी ही शब्दावली में अँग्रेजी भाषा के कट्टर समर्थक रिचर्ड मुल्कास्टर ने १५८२ में लिखा-आई लव रोम, बट लंडन बेटर/आई फेवर इटैलिक, बट इंग्लैंड मोर,/आई ऑनर लैटिन, बट आई वर्शिप द इंग्लिश,-अर्थात 'मैं रोम को प्यार करता हूँ, पर लंदन को उससे भी अधिक, मैं इटली का समर्थक हूँ पर इंग्लैंड़ का उससे भी अधिक समर्थन करता हूँ। और मैं लैटिन का सम्मान करता हूँ, पर अँग्रेजी की पूजा करता हूँ।'
कहने का तात्पर्य यह है कि अँग्रेजी के पक्षपातियों ने अपने आंदोलन को तर्क और विवाद के बल पर नहीं, बल्कि भावना के बल पर सफल बनाया। उन्होंने अपने देशवासियों के मस्तिष्क को नहीं, हृदय को झकझोर कर उनके स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम को उद्वेलित किया। इसी का परिणाम था कि इस शती के अंत तक उच्च वर्ग का भी दृष्टिकोण अँग्रेजी के प्रति पर्याप्त अनुकूल हो गया। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि एक ओर तो रिचर्ड कैर्यू जैसे विद्वान ने १५९५ में अँग्रेजी भाषा की उच्चता पर लेख लिख कर उसका जोरदार समर्थन किया, तो दूसरी ओर सर फिलिप सिडनी जैसे विद्वान ने घोषित किया-'यदि भाषा का लक्ष्य अपने हृदय और मस्तिष्क की कोमल कल्पनाओं को सुंदर एवं मधुर शब्दावली में व्यक्त करना है, तो निश्चय ही अँग्रेजी भाषा भी इस लक्ष्य की पूर्ति की दृष्टि से उतनी ही सक्षम है, जितनी कि विश्व की अन्य भाषाएँ हैं।'
१७वीं शती के आरंभ तक इंग्लैंड में अँग्रेजी के विरोध का वातावरण तो शांत हो गया तथा आम धारणा बन गयी कि स्वदेशी भाषा को हर कीमत पर अपनाना है, किंतु जब इसे व्यवहारिक रूप दिया जाने लगा, तो सबसे बडी कठिनाई शब्दावली की आयी। अँग्रेजी को समृद्ध करने के लिए ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथ कैसे लिखे जा सकते थे, जबकि तद्विषयक शब्दावली का उसमें सर्वथा अभाव था? ज्ञान-विज्ञान की बात तो दूर, उस समय अँग्रेजी, शब्द-संपदा की दृष्टि से इतनी दरिद्र थी कि प्रशासन, कला, समाज, धर्म और दैनिक जीवन से संबंधित सामान्य शब्द भी उसके पास अपने नहीं थे, फ्रेंच या अन्य भाषाओं से उधार लिये हुए थे। उदाहरण के लिए, प्रशासनिक शब्दावली में अँग्रेजी के पास अपने केवल दो शब्द थे-किंग (राजा) और क्वीन (रानी)। शेष सारे शब्द फ्रेंच से आयातित थे-गवर्नमेंट, क्राउन, स्टेट, एँपायर, रॉयल, कोर्ट, काउंसिल, पार्लियामेंट, असेंबली, स्टैच्यूट, वॉर्डन, मेयर, प्रिंस, प्रिंसेस, ड्यूक, मिनिस्टर, मैडम आदि। इसी प्रकार न्यायालय और कानून-संबंधी सारी शब्दावली भी प्रायः फ्रेंच से आयातित हैं, जैसे-जस्टिस, क्राइम, बार, एडवोकेट, जज, प्ली, सूट, पेटिशन, कंप्लेंट, समन, एविडेंस, प्रूफ, प्लीड, वारंट, प्रॉपर्टी, इस्टेट...ये मोटे शब्द भी अपने अँग्रेजी के नहीं हैं। फिर कला और साहित्य संबंधी अधिकांश शब्द भी अँग्रेजी के पास नहीं थे, अतः आर्ट, पेंटिग, म्यूजिक, ब्यूटी, कलर, फिगर, इमेज, पोएट, प्रोज, रोमांस, स्टोरी, ट्रेजेडी, प्रिफेस, टाइटिल, चैपटर, पेपर जैसे शब्द भी फ्रेंच से लेने पड़े। इतना ही नहीं, एक इतिहासकार ने तो यहाँ तक कहा है कि फ्रेंच शब्दावली के अभाव में कोई भी अंग्रेज अपने रहन-सहन से ले कर खान-पान तक की भी कोई क्रिया संपन्न नहीं कर सकता था, क्योंकि उसे ड्रेस, फैशन, गारमेंट, कॉलर, पेटिकोट, बटन, बूट, ब्लू, ब्राउन, डिनर, सफर, टेस्ट, फिश, बीफ, मटन, टोस्ट, बिस्किट, क्रीम, शुगर, ग्रेप, ऑरेंज, लेमन, चेरी जैसे शब्दों के लिए भी फ्रेंच पर निर्भर करना पड़ता है। 'ए हिस्ट्री ऑफ दी इंग्लिश लैंग्वेज' के लेखक अल्बर्ट सी. बाफ के अनुसार, अब तक लगभग दस हजार शब्द तो अकेली फ्रेंच से ही अँग्रेजी में अपना लिये गये थे, किंतु आगे चल कर विश्व की अन्य भाषाओं से भी हजारों शब्द ग्रहण किये गये। उनके मतानुसार, 'यह कहना अत्युक्ति न होगी कि अँग्रेजी में इस समय लगभग पचास से भी अधिक भाषाओं से हजारों शब्द ग्रहण किये जा चुके थे, जिनमें अधिकांश फ्रेंच, लैटिन, ग्रीक, इटैलियन और स्पैनिश से थे।'
भाषा की क्लिष्टता का शोर-जब विभिन्न भाषाओं से भारी संख्या में ऐसे शब्दों को स्वीकार किया गया, जो पहले से अँग्रेजी में प्रचलित नहीं थे, तो यह स्वाभाविक था कि जन सामान्य के लिए वह अत्यंत दुर्बोध एवं क्लिष्ट हो गयी। इसके अतिरिक्त विदेशी शब्दों के अत्यधिक मिश्रण से स्वभाषा की शुद्धता का भी प्रश्न उपस्थित हुआ, अतः विद्वानों के एक वर्ग ने शुद्धता एवं क्लिष्टता के दृष्टिकोण से विदेशी शब्दों के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा। किंतु इसके प्रत्युतर में अनेक विद्वानों ने कठिन शब्दों के शब्दकोश तैयार करके क्लिष्टता की समस्या को हल करने की चेष्टा की। इस प्रकार के प्रयासों में एन. बैली की 'यूनिवर्सल एटिमोलाजिकल इंग्लिश डिक्शनरी' (१७१९), रॉबर्ट कॉडरी की 'द टेबल अल्फाबेटिकल ऑफ हाई वर्ड्स' तथा एडवर्ड फिलिप की 'न्यू वर्ल्ड ऑफ वर्ड्स' जैसी कृतियाँ उल्लेखनीय है। जहाँ तक भाषा की शुद्धता की बात है, अधिकांश लेखकों और साहित्यकारों ने भी इस संबंध में उदार दृष्टिकोण का परिचय देते हुए विदेशी शब्दों को ग्रहण किये जाने का समर्थन किया। आगे चलकर स्वदेशी एवं विदेशी शब्दों का झगड़ा सदा के लिए तब समाप्त हो गया, जब १७५५ मे डॉ. जॉन्सन द्वारा प्रकाशित अँग्रेजी के प्रथम प्रमाणिक शब्दकोश 'ए डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश लैंग्वैज' में उन सारे शब्दों को समेट लिया गया, जो अँग्रेजी में प्रयुक्त हो सकते थे, भले ही वे मूल अँग्रेजी के हों या विदेशी भाषाओं से आयातित। इस प्रकार इन शब्दों पर अँग्रेजी का लेबल लगा कर उसे एक अत्यंत संपन्न भाषा का रूप दे दिया गया। यह दूसरी बात है कि जॉन्सन के विरोधी अब भी बराबर कहते रहे कि उनके शब्दकोश में पंद्रह प्रतिशत शब्दों को छोड़ कर शेष सारे विदेशी हैं। पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। जब भाषा की अभिव्यंजना शक्ति की समस्या हल हो गयी, तो उसमें ज्ञान-विज्ञान के साहित्य की रचना के मार्ग में खड़े सारे अवरोध स्वतः दूर हो गये। अँग्रेजी जाति ने अपने राष्ट्रभाषा प्रेम की प्रगाढ़ता का परिचय देते हुए, विदेशी भाषाओं की खिड़कियों के माध्यम से प्राप्त होनेवाले ज्ञान पर निर्भर न रह कर, स्वभाषा के द्वार सबके लिये खोल दिये। इससे सभी देशों से, सभी वर्गों के लिए ज्ञान का आवागमन उन्मुक्त रूप से होने लगा और साथ ही, इससे स्वभाषा के उन सहस्त्रों विद्वानों को भी रोजगार मिला, जो विभिन्न भाषाओं के ग्रंथों को अनुवादित करने और उनके मूल विचारों अथवा उनके सारांश को अँग्रेजी में प्रस्तुत करने में सक्षम थे। अँग्रेजी भाषा के अभ्युदय का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यदि कोई जाति सच्ची राष्ट्रीयता, सुदृढ़ संकल्प एवं पूरी शक्ति से जुट जाये, तो वह किस प्रकार सर्वथा गंवारू, अपरिष्कृत, दरिद्र एवं अक्षम कही जाने वाली भाषा को भी एक दिन विश्व की श्रेष्ठ भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर सकती है।
हिंदी की स्थिति से तुलना-यदि अँग्रेजी भाषा की प्रतिष्ठा के इस संघर्षपूर्ण इतिहास से हिंदी की स्थिति की तुलना करें, तो दोनों में अनेक समानताएँ दृष्टिगोचर होंगी-(१) यद्यपि दोनों ही अपने-अपने देशों की अत्यंत बहुप्रचलित भाषाएँ थीं, फिर भी विदेशी भाषा-भाषी लोगों के प्रशासन काल में दोनों का ही पराभव होना आरंभ हुआ और वे शीघ्र ही अपने गौरवपूर्ण पद से वंचित हो गयीं तथा उनका स्थान शासक वर्ग की विदेशी भाषा ने ले लिया। (२) शासक वर्ग की विदेशी भाषा को अपनाने में उच्च वर्ग के धनिकों, सामंतों एवं शिक्षितों ने बड़ी तत्परता का परिचय दिया। (३) विदेशी भाषा के प्रभाव से दोनों ही देशों (इंग्लैंड और भारत) के लोग इतने अभिभूत हो गये कि वे स्वदेशी भाषा को अत्यंत हेय एवं उपेक्षा योग्य मानते हुए उसमें बात करना भी अपनी शान के खिलाफ समझने लगे। (४) विदेशी शासकों के प्रति विद्रोह की भावना एवं स्वभाषा के प्रति अनुराग की प्रेरणा से ही अँग्रेजी और हिंदी के पुनः अभ्युत्थान की प्रक्रिया आरंभ हुई। (५) दोनों ही देशों में पार्लियामेंट द्वारा स्वदेशी भाषाओं को मान्यता मिल जाने के बाद भी उनका व्यवहार प्रयोग बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ा। (६) विदेशी भाषा के समर्थक एक ओर तो उसकी अभिव्यंजना-शक्ति और साहित्यिक-समृद्धि का गीत गाते रहे, तो दूसरी ओर स्वदेशी भाषा की हीनता और दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते रहे तथा (७) जब स्वदेशी भाषाओं को समृद्ध करने के लिए नये शब्दों का प्रचलन किया जाने लगा, तो उसके विरोधी उस पर क्लिष्टता और दुर्बोधता का आरोप लगाने लगे। इस प्रकार अँग्रेजी और हिंदी के पराभव एवं पुनरूत्थान की कहानी परस्पर काफी मिलती-जुलती है, किंतु दोनों में थोड़ा अंतर भी है, जिसके कारण हिंदी की प्रगति में आज तक बाधाएँ उपस्थित हो रही हैं। एक तो अंग्रेज जाति में राष्ट्रीयता की भावना जितनी दृढ़ एवं गंभीर है, उतनी स्वतंत्रता प्रप्ति से पहले तो हममें रही, किंतु उसके बाद वह बिखरती चली गयी। संभवतः इसका प्रमुख कारण यह है कि हमने अपने संविधान को अमरीका की नकल पर ढालने के लिए भारत के उप प्रदेशों और प्रांतों को भी राज्यों की संज्ञा दे कर यह भ्रम उत्पन्न कर दिया मानो भारत एक सुगठित राज्य ना हो कर अनेक राज्यों का समूह या संघ है। इससे निष्चय ही क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला, जो राष्ट्रीयता के लिये घातक है। इसके कारण हिंदी का विरोध केवल अँग्रेजी के हिमायतियों द्वारा ही नहीं, अन्य प्रांतीय या क्षेत्रीय भाषाओं के समर्थकों द्वारा भी होने लगा, जबकि हिंदी की प्रतिद्वंद्विता अँग्रेजी से है, न की भारत की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से। ऐसी स्थिति में यदि हम हिंदोतर क्षेत्रों में न सही, केवल हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र में ही, जो राजस्थान से ले कर बिहार तक और हिमाचलप्रदेश से ले कर मध्यप्रदेश तक फैला हुआ है, पूरी तरह हिंदी लागू कर दें, तो यह भी कम महत्त्व की बात न होगी। किंतु स्वयं हिंदी भाषा-भाषी वर्ग में भी अभी अँग्रेजी के प्रति मोह बना हुआ है। इसका एक अन्य कारण यह है कि न केवल केंद्र में, बल्कि हिंदी भाषा-भाषी राज्यों में भी सरकारी अधिकारियों और उच्च प्रतियोगिताओं, परीक्षाओं तथा ज्ञान-विज्ञान की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक अँग्रेजी का ही प्रचलन है। अतः जो अँग्रेजी की उपेक्षा करते हैं, वे अपने भविष्य के निर्माण की दृष्टि से घाटे में रहते हैं। इसलिए पिछ्ले कुछ वर्षों में जन-साधारण में अपने बच्चों को अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाने का फैशन और भी जोरों से फैला है। दूसरे अँग्रेजी के समर्थकों ने अपने भाषा की शब्द-संपदा और अभिव्यंजना-शक्ति में अभिवृद्धि करने के लिए विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों को उन्मुक्त भाव से अपनाया, भले ही कट्टरवादियों की दृष्टि में इससे एक ऐसी अशुद्ध भाषा बन गयी, जिसमें अधिकांश शब्द विदेशी हैं, पर इससे अँग्रेजी में ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों की रचना और अनुवाद के कार्य में तेजी से प्रगति हुई। इसकी तुलना में हम पहले कृत्रिम ढंग से विदेशी शब्दावलियों तथा पारिभाषिक शब्दों के हिंदी पर्यायवाची शब्द गढ़ने के बखेड़े में पड़ गये, जो कभी भी समाप्त न होनेवाली स्थिति है, क्योंकि जब तक हम पचास वर्ष में आज की प्रचलित शब्दावली का अनुवाद करेंगे, तब तक उतने ही नये शब्द और सामने आ जायेंगे। विज्ञान की जिस गति से प्रगति हो रही है, उसे देखते हुए यह स्वाभाविक है। फिर इस प्रकार कृत्रिम ढँग से गढ़ी हुई शब्दावली को प्रचलित करना और प्रयोग में लाना भी अपने आप में टेढ़ी खीर है। पिछला अनुभव हमें बता रहा है कि ऐसे नवनिर्मित शब्दों के अधिकांश शब्दकोश केवल सरकारी अलमारियों की शोभा बढा रहे हैं, वास्तविक प्रयोग में बहुत कम आ रहे हैं, अतः इससे अच्छा यह है कि हम ज्ञान-विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय शब्दावली को ज्यों-का-त्यों अपना लें और यदि उसके साथ-साथ सहज रूप में अपनी शब्दावली भी विकसित होती हो तो उसे भी अपनाते रहें। पर यदि हम अपनी नयी शब्दावली की ही प्रतीक्षा करते रहें, तो संभवतः यह कार्य कभी समाप्त नहीं होगा। उस स्थिति में यही कहना पड़ेगा कि न कभी नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी।
फर्क शब्दावलियों के अपनाने का-तीसरे, अँग्रेजी ने बिना नई शब्दावली की प्रतीक्षा किये और बिना ज्ञान-विज्ञान के सारे साहित्य को अँग्रेजी में अनूदित किये, शिक्षा के माध्यम के रूप में अँग्रेजी को लागू कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वतः ही विश्व का सारा ज्ञान-विज्ञान रूपांतरित हो कर या मौलिक रूप में, अँग्रेजी में अवतरित हो गया। 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है'...जब प्रकाशकों ने देखा कि शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी हो गया है, तो उन्होंने रात-दिन भाग-दौड़ करके उन लेखकों को पकड़ा, जो अपने ज्ञान-विज्ञान को स्वदेशी भाषा में व्यक्त कर सकते थे। व्यापारियों की पारस्परिक प्रतिस्र्पधा के कारण हर विषय की एक-से-एक अच्छी पुस्तकें बाजार में आने लगीं। सरकार को इसके लिए विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा, किंतु हिंदी में हम इसके विपरीत चल रहे हैं। हम सोचते हैं कि पहले सारा ज्ञान-विज्ञान हिंदी में आ जाये, फिर उसे शिक्षा का माध्यम बनायें। किंतु ऐसा कभी होने वाला नहीं है। जब तक ज्ञान-विज्ञान की पढ़ाई अँग्रेजी में होती रहेगी, तब तक क्यों कोई लेखक हिंदी में पुस्तकें लिखेगा और क्यों कोई प्रकाशक उसे छापेगा? और यदि उसने छाप भी लिया, तो कोई उसे क्यों खरीदेगा? केवल सरकार ही ऐसा कर सकती है, जिसके पास पैसे की कमी नहीं है। अपनी अकादमी के माध्यम से सरकार के इस प्रकार के प्रयास का परिणाम यह है कि आज प्रत्येक राज्य की हिंदी अकादमियों के भंडार ऐसी पुस्तकों से भरे पड़े हैं, जो बिना विशेष रुचि या परिश्रम के मुख्यतः पारिश्रमिक प्राप्ति की आकांक्षा से हिंदी में अनुवादित एवं प्रकाशित हैं। मेरी अनेक निदेशकों से बात हुई है, उनका रोना है कि क्या करें, हिंदी के अनुवादों की बाजार में माँग नहीं। मेरा उत्तर है कि माँग तो तब हो, जब उसके अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा की जायें, अर्थात पहले यदि हिंदी को शिक्षा एवं प्रशासन के माध्यम के रूप में लागू किया जाये, तो फिर तदृविषयक हिंदी पुस्तकों की माँग स्वतः ही उत्पन्न होगी। किंतु हम इसके विपरीत प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पहले तैरना सीख लें, फिर पानी में उतरें, जबकि वास्तविकता का क्रम इससे उलट है। इसी तरह एक वर्ग ऐसा है, जो अँग्रेजी की खिड़की पर मुग्ध होकर अपनी भाषा के द्वार को बंद किये हुए है। वह नहीं समझता कि खिड़की अंततः खिड़की है, वह द्वार का स्थान कभी नहीं ले सकती। जब तक हम स्वभाषा के द्वार का उपयोग खुल कर नहीं करेंगे, तब तक विश्व -ज्ञान के अबाध आदान-प्रदान के लिए हमें इस खिड़की पर ही निर्भर करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में हमारा विश्वास है कि यदि अँग्रेजी के अभ्युत्थान की प्रक्रिया से हम कोई सबक ले सकें, तो वह हमारी राष्ट्रभाषा की भी प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है और हमारी तद्विषयक अनेक समस्याओं के समाधान का उपाय सुझा सकता है।