अन्ना का आंदोलन और उत्तराखंड


इतिहास मे ऐसे मौके बहुत ही हसीन होते है जब सत्ता के शिखर पुरूषों की नाकामयाबी के खिलाफ जनान्दोलनो का ज्वार उमड़कर रहनुुमाओ की चूलें हिला कर रख देता है, इतिहास गवाह है कि जब भी शासक वर्ग और प्रजा के बीच टकराव हुआ है जीत का सेहरा प्रजा के माथे ही सजता आया है। आज कल इस जीत की हल्की आहट अपने देश में महसूस की जा सकती है। जनलोकपाल बिल पारित हो जाने से भले ही भ्रष्टाचार का समूल नाश संभव न हो लेकिन इसके सहारे देश के आम आदमी के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ पल रही नफरत सरकारों को सोचने पर मजबूत कर गयी है इस बात मे कोई संदेह नही है। अन्ना आज प्रत्येक स्वाभिमानी भारतीय के लिए एक ऐसा आदर्ष बन चुके है जिनका अनुसरण करने से गर्व की अनुभूति होती है अन्ना के अडिग तेवरांे ने सरकार की बोलती बंद करते हुए उसे बैक फुट पर धकेलते हुए जो संदेश दिया है उसका सार यह है कि जनमत से बढ़ कर कुछ नही है और अगर जनता चाहे तो सरकार को झुका भी सकती है जरूरत सिर्फ सक्षम नेतृत्व प्रदान करने वाले की है। अपने उत्तराखण्ड में ऐसा सक्षम नेतृत्व कोन दे सकता है ? इस सवाल का जवाब जानना बहुत जरूरी है। आजकल अपने प्रदेश में भ्रष्टाचार अब तक के सबसे स्वर्णिम दौर में है जब स्कूल के निर्माण से लेकर उसमें पढ़ाने वाले मास्टर साहब के तबादले तक में खुले आम कमीशन बाजी चल रही हो तो आसानी से समझा जा सकता है कि भ्रष्टाचार का सूचकांक किस स्थिति में होगा। ऐसे मे यह सवाल उठना लजिमी है कि क्या उत्तराखण्ड मे अन्ना जैसे आन्दोलन की जरूरत है ? यदि इस प्रश्न का जवाब हाॅ है तो फिर इस आन्दोलन का नेतृत्व कौन करेगा यह सबसे अहम सवाल हो जाता है। 
कुछ दिनों पूर्व जब 'पूरा भारत' भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर था तो इसका असर उत्तराखण्ड पर भी प्रत्यक्ष रूप से दिखायी दिया। गली मुहल्ले के आम आदमी से लेकर बड़े भारी भरकम लोग भी सड़को पर अन्ना के पक्ष में हाजिरी लगाने लगे इसी क्रम में पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खंडूड़ी ने भी शिवाजी धर्मशाला से परेड ग्राउन्ड तक की सड़क हजारो समर्थकों के साथ एक ही साँस मे नाप डाली, जनरल खंडूड़ी के इस मार्च पर हैरानी और प्रसन्नता का भाव एक साथ प्रकट होता है। प्रसन्नता तो इस बात की थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ खंडूड़ी जनता की तरफ से बोल रहे थे और हैरानी इस बात पर थी कि उनकी रैली मे बी0जे0पी0 के झण्डाबरदारों की उपस्थिति उनको रास नही आयी। अरे भई ये क्या बात हुई ? जब बी0जे0पी0 के बड़े नेता खंडूड़ी भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरेगें तो समर्थकांे का हुजूम तो उमड़ेगा ही लेकिन खंडूड़ी को उन के हाथो मे बी0जे0पी0 के झण्डे पंसद क्यों नही आए यह सोचने वाली बात है मेरी समझ से ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योकि खंडूड़ी शायद इतना तो जान ही चुके है कि बी0जे0पी0 के झण्डे के नीचे भ्रष्टाचार की खिलाफत को जनता ढ़ोंग मानने लगी है, क्योकि उस समय प्रदेश मे जो बी0जे0पी0 की सरकार मौजूद थी उसे अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार बताया जा रहा है। ऐसे मे खंडूड़ी ने सोचा होगा कि भले ही मैनेज किया जा चुका मीडिया जगत उनसे सवाल न पूछे लेकिन जनता जरूर जानना चाहेगी कि भ्रष्टचारियों की सरकार मे शामिल होकर वे भ्रष्टाचार की खिलाफत कैसे कर सकते है ? 
वर्तमान राज्य सरकार पर आए दिन घपलेबाजी के बड़े-बड़े आरोप लग रहे है, कुंभ की घपलेबाजी तो कैग ने भी स्वीकार कर ली है फिर भी खंडूड़ी जैसे ईमानदार माने जाने वाले व्यक्ति इस सरकार से चुम्बक की तरह क्यों चिपके हुए है यह बात लोग अब तक नही समझ पा रहे हैं।  खंडूड़ी के अब तक बी0जे0पी0 से चिपके रहने के दो कारण हो सकते हैं, पहला यह कि या तो खंडूड़ी ईमानदार नही हैं और जो ईमानदारी का शाल उन्होने  ओढ़ा या उन्हें ओढ़ाया गया है वह फर्जी है। आज हमारा प्रदेश दो-दो मोर्चों पर भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकलने की जद्दोजेहद कर रहा है, एक तरफ केन्द्र की यू0पी0ए0 सरकार तो दूसरी तरफ राज्य मे भाजपा राज ऐसे मे उत्तराखण्डियो की चाह है कि उन्हे इस सब से उबारने वाली कोई उम्मीद की कोई किरण कहीं से आ जाए लेकिन आयेगी कहां से ? इतना सब कुछ होने के बाद अब तो लोग समझ ही चुके है कि दोनो बड़े राष्ट्रीय दल भ्रष्टाचार के सबसे बड़े ब्रांड एम्बेसडर बन चुके हंै और ऐसे में तीसरे मोर्चे की अनिवार्यता को साफ तौर पर समझा जा सकता है, लेकिन सही विकल्प और सक्षम नेतृत्व के अभाव मे राज्य मे तीसरा विकल्प एक सफेद हाथी के सिवाय कुछ भी नहीं नजर आता है। चुनावों से ठीक पहले बनने वाले तीसरे मोर्चे का हश्र चुनावों बाद क्या होगा इस बात की कोई गांरटी नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि अगर तीसरे मोर्चे में जनता को थोड़ी सी भी उम्मीद नजर आती है तो जनता कांग्रेस भाजपा के खिलाफ पैदा हो रहे गुस्से से तीसरे मोर्चे की नैया पार लगा सकती है। ऐसे में उत्तराखण्ड के हितैषियांे को चाहिए कि वे अपने आपसी मतभेदों और अहंकार को छोड़ते हुए एक मंच पर आ जाएं और राज्य को एक गैर कांग्रेसी गैर बी0जे0पी0 विकल्प देने का प्रयास किया जाए। पिछले दिनों टी0पी0एस0 रावत ने भी उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा बनाकर बगावत के स्वरांे को और हवा दे दी हैं, इस हवा को फैलाने का काम किया जाए।
यू0के0डी0,परिवर्तन पार्टी भा0क0पा0, माकपा, माले, लोकवाहिनी,महिला मंच, जन मंच सहित तमाम छोटे-छोटे राज्य प्रेमियों ने एक बूढ़े और उसके चार बेटों वाली वो कहानी जरूर पढ़ी होगी जिसमें बूढ़े के बेटे लकड़ी के गट्ठर को नहीं तोड़ पाते हैं। अब वक्त आ गया है कि स्कूली दिनों वाली इस कहानी को किताब से निकाल कर उत्तराखएड के परिपेक्ष्य में व्यवहारिक धरातल पर उतार दिया जाए वरना अलग-अलग रह कर खिलाफत करने का मतलब सीधे-सीधे कांग्रेस भाजपा का खेल आसान करना ही है। उत्तराखण्ड का प्रत्येक मनखी इस समय सत्ताओं के रवैये से तंग है और उनके मन में भी गुस्सा उमड़ रहा हैं जरूरत सिर्फ उस गुस्से को सही दिशा देने की है। वरना यह गुस्सा यूं ही बेकार हो जाएगा। 
किसी समाज के लिए यह बहुत ही निराशाजनक और अफसोस की बात होगी यदि उसके पास अन्याय का प्रतिकार करने की भावना होने के बावजूद उस भावना का नेतृत्व करने  वालों का अकाल पड़ जाए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि द्रोपदी के चीर हरण पर चुप्पी साधने वाले लोग आज भी कोसे जाते हैं। इसलिए उत्तराखण्ड की चिंता और निंशक जैसों की निन्दा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि इस बार हवा के रूख को अपने हाथों से संचालित करने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया जाए। मिश्र की आवाम ने 32 सालों की सत्ता को 18 दिन में ही पानी पिला दिया था हमें उनसे प्रेरणा लेनी ही होगी यह वक्त नये उत्तराखण्ड के आन्दोलन का वक्त होना चाहिए। हमेशा उत्तराखण्ड के हितों की बात करने वाले गिर्दा की पिछले दिनों बरसी थी उन्होंने जंैता इस दिन व आलो....के माध्यम से उत्तराखण्ड का हसीन सपना देखा था। अगर उस दिन को लाने के क्रम में कुछ कदम बढ़ा दिये जाए तो उनके लिए सच्ची श्रद्धांजली होगी।