असमर्थ नहीं है हिंदी

सर्वप्रथम यह बताना चाहता हूँ कि हिन्दी असमर्थ नहीं है। यह बहस का विषय हो सकता है कि वह किसी हद तक समर्थ व सशक्त है तथा और कितना समर्थ होने की जरूरत है। यह सच है कि हिन्दी की विकास यात्रा में अनेकोनेक अवरोध आते रहे हैं लेकिन इससे भी बड़ा सच यह है कि हिन्दी ने सभी बाधाओं को कुशलता से पार करते हुये विश्व पटल पर न केवल दस्तक दी है अपितु अपने महत्व व अस्तित्व का डंका भी बजवाया है। हिन्दी की महत्ता के सम्बन्ध में सम्र्पू.ा विश्व के साहित्यकारों, मनीषियों, चिन्तकों,व राजनेताओं द्वारा समय-समय पर अनेकानेक वक्तव्य दिये गये जो हिन्दी को एक शक्तिशाली भाषा बनाते हैं
क्या अंग्रेजी विश्वभाषा है?-
भारत में अंग्रेजी के पक्ष में खड़े 0.02 प्रतिशत लोग जो दुर्भाग्य से मैकाले के काले मानस पुत्र हैं, अपनी चाटुकारिता, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरक नीतियों के चलते आर्थिक, राजनैतिक, व सामाजिक स्तर पर अपनी पहचान बनाये हैं, वह टीवी, अखबार या अन्य संचार माध्यमों से अपने उत्पादों को बेचने अथवा मोटी कमाई के लिए खोले गये पब्लिक स्कूलों के द्वारा लूट खसोट का व्यापार करने के लिए, प्रचार करते हैं कि अंग्रेजी ही विश्वभाषा है। यह बात पूरी तरह झूठ है। विश्व के मात्र 40 करोड़ लोग ही अर्थात विश्व जनसंख्या का 4 प्रतिशत आबादी ही अंग्रेजी को जानती व समझती है। जबकि हिन्दी समझने, बोलने वालों की संख्या 190 करोड़ हैं जो कि विश्व में किसी भी भाषा को समझने वालों की सर्वाधिक संख्या है। सम्पूर्ण विश्व में मात्र 40 देशों (जो अंग्रेजों के गुलाम रहे) में ही अंग्रेजी की पहचान है। 160 देशों में अंग्रेजी की कोई पहचान ही नहीं है। एक और महत्वपूर्ण जानकारी-संयुक्त राष्ट्र की अधिकृत भाषाओं, रूसी, स्पैनिज, फ्रेंच, पोर्तुगीच, डच आदि 12 भाषाओं में अंग्रेजी 12 वें नम्बर यानि सबसे निचले पायेदान पर है।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य-विश्व के 175 से अधिक देशों में हिन्दी पढ़ने, बोलने, सीखने, की व्यवस्था है। तथा वहाँ के विश्व विद्यालयों में हिन्दी का पठन, पाठन, अध्ययन अनुसंधान जारी है। हिन्दी की शब्द संख्या लगभग 250000 है जो आज तक किसी भी भाषा की नहीं है। भाषा विशेषज्ञों के अनुसार भारत में 90 प्रतिशत लोग हिन्दी का प्रयोग करते हैं। जबकि अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या मात्र 0-47 प्रतिशत तथा अंग्रेजी जानने समझने वालों की संख्या केवल 4-06 प्रतिशत है। यह हिन्दी की समर्थता ही है कि सम्पूर्ण विश्व में भारतीय सिनेमा को पसन्द किया जाता है, उसके गीत दुनिया के सिर चढ़कर बोलते हैं। टीवी कार्यक्रमों के लोग दीवानें हैं। हमारे देश विज्ञापन सम्पूर्ण देश में ही नहीं अपितु विश्व के जनमानस को प्रभावित करते हैं। यह हिन्दी भाषा की ध्वनि एवं सम्प्रेषणीयता का ही तो कमाल है।
मारीशस और फीजी में 70 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते हैं। विश्व हिन्दी सचिवालय भी माॅरीशस में ही है। सूरीनाम, त्रिनीदाद, टोबेगो, गुयाना आदि देशों में भी 40 प्रतिशत से    अधिक लोग हिन्दी का प्रयोग करते हैं। इन्डोशिया की भाषा में 18-20 प्रतिशत शब्द संस्कृत से लिये गये हैं। अमेरीका में हार्वर्ड, पेन, मिशिगन, येल सहित 65 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी का पठन, पाठन, अनुसंधान कार्य जारी है। पौलेन्ड में बारसा, काकूब, पेनजान तथा अन्य विश्व विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। रूस में तो प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक हिन्दी का अध्ययन कराया जाता है। बल्गारिया में हिन्दी तथा संस्कृत दोनेां भाषाओं के अध्ययन केन्द्र संचालित हैं। फिनलैंड के हेलंसिकी, स्वीडन के स्टाक होम, डेनमार्क के कोपेनहैगन विश्वविद्यालय हिन्दी अध्ययन -अध्यापन के प्रमुख केन्द्र है। जापान में ओसाका युनिवर्सटी, तोक्यो विश्वविद्यालय हिन्दी के लिये प्रसि) है। गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तकें यहाँ लोकप्रिय हैं। सूर्योदय, जापान भारती, ज्वालामुखी जैसी समृद्ध पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है। तथा नार्वे में तो प्राथमिक पाठशालाओं से लेकर विश्वविद्यालय तक हिन्दी पढ़ाई जाती है। चीन के पेइचिंग, नानचिड तथा अन्य विश्वविद्यालयों में हिन्दी केन्द्र हैं। नेपाल, लंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश, बर्मा आदि देशों में तो हिन्दी का परचम हमेशा फहराता रहा है। ब्रिटेन में स्कूल आॅफ ओरियण्टल, एवं अफ्रीकन स्टडीज के माध्यम से हिन्दी को पढ़ाया एवं बढ़ाया जा रहा है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्ययन की सुविधायें हैं। इंग्लैण्ड में हिन्दी सीमिति, हिन्दी परामर्श मण्डल, लन्दन सफलता पूर्वक कार्यरत हैं तथा प्रवासी टुडे, पुरवाई व अन्य पत्रिकाओं का हिन्दी में प्रकाशन हो रहा है। अमेरीका में भी विश्व हिन्दी न्यास, अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति तथा विश्व हिन्दी समिति कार्यरत है। हिन्दी जगत, विश्व तथा सौरम नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन हिन्दी की समर्थता का परिचायक है। जर्मनी में फ्रेंकफुर्त विश्व विद्यालय, हाइडलवर्ग विश्वविद्यालय के दक्षिण, शिया संस्थान तथा बाॅन विश्वविद्यालय हिन्दी की उच्चस्तरीय शिक्षा प्रदान कर इसकी गौरवगाथा, समृद्धि एवं समर्थता के गीत गाते है। क्यूबा, कोरिया, मंगोलिया आदि अनेकोनेक देश है जहाँ हिन्दी के शिक्षण की व्यवस्थाये हैं। विश्व भाषा हिन्दी-मनीषी वात्सायन ने अंग्रेजी भाषा को माँ नहीं बनाने का आह्वान किया था-
 जो होता है होने दो, 
 यह पौरुषहीन कथन है,
 जो हम चाहेंगे वह होगा, 
 इन शब्दों में जीवन हो।
हिन्दी भले ही अपने देश में राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं पा सकी है मगर विश्व में इसकी पहचान भारत की राष्ट्रभाषा तथा 'विश्व भाषा हिन्दी' के रूप में मौजूद है। यह भी सुखद समाचार है कि रूस, अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जापान, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, चीन, स्वीडन, नार्वे, चेकोस्लोवाकिया, पौलै.ड, हंगरी, हाॅलैण्ड आदि ऐसे देश हैं जहाँ के निवासी हिन्दी को 'विश्व भाषा' के रूप में स्वान्तः सुखाय पढ़ते हैं। हिन्दी की समर्थता का अन्दाज इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अनेक देशों में हिन्दी न केवल पढ़ी जा रही है अपितु विपुल मात्रा में उच्च स्तरीय साहित्य भी रचा जा रहा है। जिसके लिए अनेक विदेशी साहित्यकारों को सम्मानित भी किया जाता रहा है। जिसमें इंग्लैण्ड के डाॅ0 रोनाल्ड स्टूअर्ट मैकेग्रर, जापान को प्रो0 क्यूआ दोई, मारिशस के श्री सोमदत्त बखौरी, फिजी के पं0 कमला प्रसाद मिश्र के नाम उल्लेखनीय है। विदेशी हिन्दी विद्वान रेवरेण्ड फादर कामिल बुल्के को हिन्दी की वैज्ञानिक सार्थकता, यथार्थता ने इतना प्रभावित किया कि बेल्जियम निवासी होने के बावजूद उन्होंने भारत को ही अपना घर बनाया। उन्होंने कहा कि 'संस्कृत माँ हिन्दी गृहिणी तथा अंग्रेजी नौकरानी है।' उनकी कविता में भारत का दर्द दृष्टव्य है-
मैं जहाँ शिक्षित हुआ, जिस गोद में अब तक पला था, मृत्यु भी होती उसी के नाम पर, कितना भला था।/किन्तु रे दुर्भाग्य कितना, विषम दुःख था और सहना, जिस समय जलयान, भारत भूमि के तट से चला था।
हिन्दी की समर्थता की झलक देखनी हो तो रेडियो प्रसारण में बीबीसी हिन्दी, वायस आफ अमेरिका, जापान का 'एनएचकेए जर्मनी का 'डायचे वेले', चीन का 'श्रोता वाटिका' तथा अन्य देशों के प्रसारण व प्रचार-प्रसार को सुनें। अमेरिका, आस्टेªलिया, कनाडा, युरोप में हिन्दी को विश्व की आधुनिक भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है।
एक महत्वपूर्ण बात कुछ लोग कहते हैं कि चीनी भाषा दुनिया में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है, यद्यपि इसमें चीन की राष्ट्रभाषा होने के कारण और चीन में मन्दारिन अनिवार्य घोषित किये जाने के कारण बोलने वालों की संख्या शामिल है तथा मिलती-जुलती उप भाषाओं को भी शामिल किया गया है तथापि खास बात यह है कि चीनी भाषा का विस्तार क्षेत्र चीन के बाहर नगण्य है। मात्र संख्या बल से अपने देश में आगे है, विश्व पटल पर इसकी कहीं दस्तक सुनाई नहीं देती।
विश्वमंच पर अंग्रेजी का घटना वर्चस्व-श्री श्याम प्रकाश देवपुरा ने आपने आलेख में विश्व में अंग्रेजी भाषा की स्थिति को दर्शाया है। भाषा के सम्बन्ध में एक विचित्र पक्ष तीसरी दुनिया के देशों में उभर कर आया है। इन देशों में भाषा के सम्बंध में दिलचस्प तथ्य यह है कि वहाँ के शासक तो अंग्रेजी के पक्षधर हैं और अंग्रेजी की वकालत किसी न किसी बहाने से करते रहते हैं जबकि वहाँ की जनता अंग्रेजी के विरोध में अपनी आवाज बुलंद कर रही है। मलेशिया, इण्डोनेशिया, फिलीपीन, सिंगापुर, विएतनाम आदि देशों में अंग्रेजी के विरोध में वहाँ की जनता जिस प्रकार अपना आक्रोश व्यक्त कर रही है उसे देख कर लग रहा है कि ये देश अंग्रेजी का आतंक अब सहन करने वाले नहीं है। विश्व में घटते अंग्रेजी के वर्चस्व के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न देशों में जिस प्रकार सकारात्मक विरोध हो रहा है उसकी कुछ झलकियाँ निम्न प्रकार हैं-अभी यूरोपीय संघ का विधिवत गठन भी नहीं हुआ है कि भाषा के वर्चस्व पर गंभीर विवाद शुरू हो गए हैं। जर्मनी और फ्रांस में अंग्रेजी विरोध दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जनाक्रोश के फलस्वरूप फ्रांस सरकार ने एक विधेयक पारित कर घोषित किया है कि अंग्रेजीयत के बढ़ने से फ्रेंच भाषा को ही नहीं बल्कि उस देश की कला, संस्कृति व जीवन शैली पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है। अतः अंग्रेजी के फ्रांसीसी प्रतिशब्दों का ही प्रयोग किया जाय अर्थात अब कोई सार्वजनिक बातचीत या भाषण में इन शब्दों के रहते, इनकी जगह अंग्रेजी या अन्य विदेशी शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकेगा। फ्रांस की सरकार व जनता ने जो रास्ता अपनाया है वह स्वागत योग्य है। नींदरलैंड में सन् 1990 में जब शिक्षा मंत्री ने विश्वविद्यालय में अंग्रेजी शिक्षा लागू करने का प्रस्ताव किया तो जनता ने तीव्र विरोध किया। फल-स्वरूप वहाँ अंग्रेजी आज भी अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाई है। कनाड़ा में भी अंग्रेजी का विरोध हुआ और फलस्वरूप फ्रांसीसी को भी बराबर का दर्जा देने पर ही विरोध शान्त हुआ।
मलेशिया के प्रधानमंत्री महातीर मोहम्मद ने विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विषय अंग्रेजी में ही पढ़ाने का पक्ष लिया तो वहाँ की जनता और विद्वानों ने जिस मुस्तैदी से विरोध किया वह हमारे जैसे भाषा सुप्त देश के लि, प्रेरक बन सकता है। फिलीपीन्स में भी राष्ट्रपति कोराजीन अकीनो ने घोषणा की है कि पाँच साल में सारे विज्ञान व प्रौद्योगिकी साहित्य का अनुवाद कर लिया जाएगा और फिलीपीनी स्वतः ही राष्ट्रभाषा बन जायगी। यही हाल इण्डोनेशिया, सिंगापुर, आदि अन्य देशों का है। जो मानते हैं कि चीन, कोरिया, जापान ने जब बिना अंग्रेजी के इतनी प्रगति कर ली है तो हम अपनी भाषा के जरिये क्यों नहीं कर सकते? अंग्रेजी के साम्राज्यवाद पर विश्व भर में अनेक प्रकार की प्रतिक्रिया,ँ हो रही हैं। दुर्भाग्य यह है कि अपने देश के शासक और बुद्धिजीवी अभी भी अंग्रेजी के गुण गाये जा रहे हैं। हिन्दी में बात करने या हिन्दी का पक्ष लेने वाले उनकी दृष्टि में हेय है किन्तु जो लोग सच्चाई के रास्ते पर होते हैं, वे कठिनाइयों से नहीं डरते। वह दिन अवश्य आएगा जब हिन्दी को देश में पूरा-पूरा सम्मान मिलेगा।
हिन्दी असमर्थ क्यों-मैंने पूर्व में ही कहा है कि हिन्दी असमर्थ नहीं है, न थी और न ही होगी। अनेक विरोधों के बावजूद अपनी आन्तरिक शक्ति से हरि घास (दुर्वा) की भाँति हिन्दी धीरे-धीरे फैल रही है। हाँ यह अवश्य है कि हिन्दी की विकास यात्रा में समय-समय पर अवरोध आते रहते हैं और यह अवरोध किसी विदेशी मुल्क, विदेशी भाषा अथवा अहिन्दी क्षेत्रों से नहीं अपितु हिन्दी के ही गढ़ तथा हिन्दी भाषियों के द्वारा खड़े किये जाते हैं। कानपुर (उत्तर प्रदेश) जो कि विशुद्ध हिन्दी भाषा क्षेत्र है, वहाँ आयोजित एक कार्यक्रम में तत्कालीन महामहिम पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी (जो कि मराठी भाषी है) ने अपना उद्बोधन हिन्दी में दिया। मगर विडम्बना उत्तर प्रदेश के ही एक मन्त्री ने (जो कि हिन्दी भाषी ही थे) अपना स्वागत भाषण अंग्रेजी में पढ़ा। यह शख्स उस पार्टी से सम्बन्धित थे जिनके सिद्धान्तों का आधार बाबा साहब अम्बेडकर के सिद्धान्तों पर        आधारित है। जबकि मराठी भाषी बैरिस्टर डाॅ0 अंबेडकर ने राष्ट्रीय एकता के सूत्र में राष्ट्रभाषा हिन्दी को ही राजभाषा का दर्जा प्रदान किया था और कहा था 'सभी भारतीयों का अनिवार्य कत्र्तव्य है कि वे हिन्दी की अपनी भाषा के रूप में अपनायें।'
एक कहावत है 'अच्छे कार्यों का शुभारम्भ घर से ही करना चाहिये, ताकि मौजूद बचपन पर उसका प्रभाव पड़ सके।' आज हमने इस सिद्धान्त को पूर्णतयाः भुला दिया है। सुबह उठने से गुड मार्निंग तथा रात को गुडनाईट, चाचा, ताऊ, मामा, फूफा सब अंकल तथा बुआ, चाची, ताई, काम वाली बाई सब आंटी, माँ से मम्मी तथा पिताजी से डैड आदि के द्वारा हम अपने बच्चों को जाने-अन्जाने जो संस्कार दे रहे हैं, वही हिन्दी की दुर्दशा के लिये बीजारोपण है। इतिहास गवाह है जब रूस में भारत के प्रथम राजदूत के रूप में विजय लक्ष्मी पण्डित की नियुक्ति की गई थी और उनका परिचय आदि अंग्रेजी में भेजा गया था तो रूस की तत्कालीन सरकार ने यह कहकर कि या तो अपनी राष्ट्रभाषा में अथवा हमारी राष्ट्रभाषा में परिचय लेकर आओ, उन्हें वापस कर दिया था। शायद इस देश के नीति निर्धारक आज भी मैकाले की गुलामी में जी रहे हैं। इस तरह के अपमान से देश का अनेक बार सामना हो चुका है, मगर सत्ता के लोभी इन लोगों का जमीर शायद मर चुका है। इस दौड़ में हमारे फिल्मी सितारे, जो हिन्दी फिल्मों के कारण ही दुनिया में पहचाने जाते हैं, जिन्हें लोग अनुकरणीय मानते हैं, भी कम दोषी नहीं है। किसी भी समारोह में अपने ज्ञान का विस्तार अंग्रेजी में ही करेंगे।
हिन्दी की राह में एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में तैयार किया जा रहा दैत्यासुर है हिन्दी को उसकी सहायक भाषाओं, बोलियों से अलग करने का षड़यन्त्र। यह एक बहुत बड़ी सोची समझी साजिश है। किसी भी बोली, भाषा का अपना क्षेत्र होता है, उसका अपना साहित्य होता है, उसका संरक्षण एवं संवर्द्धन हमारा दायित्व है। मगर उसे उसकी अपनी जड़ों से अलग करने से उसकी शक्ति शिथिल हो जाती है। आज मैथिल, अंगिका, मराठी,     अवधी आदि अनेकानेक भाषाओं को हिन्दी से अलग किया जा रहा है, परिणामतः इन स्थानीय भाषाओं का तो कोई भला नहीं होगा, इसके विपरीत हिन्दी के वैभव मण्डल से इनकी संख्या कम कर दी जायेगी। अभी भी जो आंकड़े विश्व पटल पर हिन्दी बोलने व समझने वालों के हैं, यदि उनमें हिन्दी की सहायक भाषाओं को जोड़कर देखा जाता है तो हिन्दी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने तथा पढ़ी जाने वाली भाषा है। इसके विपरीत कुछ भारतीय विद्वान जिन्हें सदा से चीन के तलवे चाटना पसन्द है, इन क्षेत्रीय भाषाओं, हिन्दी की संगी बहनों को अलग कर चीन की भाषा मन्दारिन को प्रथम स्थान पर महिमामण्डित करते रहते हैं। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र ने भी 2001 के आंकड़ों में विश्व में हिन्दी बोलने वालों को प्रथम क्रम पर ही रखा है। विश्लेषक फ्रेडरिक रिग्स के अनुसार 'किसी भी देश का प्रशासन स्थानीय परिस्थितिकी के अनुसार होना चाहिये। जो वहाँ की भाषा, संस्कृति, साहित्य, परम्परा और आवश्यकताओं को भली प्रकार समझता हो।'
मगर हमारे यहाँ प्रशासनिक प्रतियोगी परीक्षाओं में बहुत हल्ला-गुल्ला विरोध के बाद हिन्दी में परीक्षा देने की अनुमति तो प्रदान कर दी गई लेकिन अंग्रेजी का दबदबा बना रहे उसके लिए अंग्रेजी का प्रश्न अनिवार्य कर उसका स्तर इतना ऊँचा कर दिया कि हिन्दी भाषी प्रतियोगी अपनी सम्पूर्ण योग्यता के बावजूद भी परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सके। किसी भी देश का राष्ट्रध्वज, राष्ट्र मुद्रा तथा राष्ट्रभाषा उसके गौरव व अस्मिता की प्रतीक होती है। शायद हमारे राष्ट्रनायकों को इनमें से किसी से भी सरोकार नहीं है। आज हिन्दी 'भाषा साम्राज्यवाद' के निशाने पर हैं, जो हिन्दी को हटाकर 'अंग्रेजी को भारत की पहली भाषा' बनाने का कुचक्र चला रहा है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि इसमें वह हिन्दी के अखबारों की ही मदद ले रहा है। अंग्रेजी के एक मनोभाषाविद् ने हिन्दी को हटाने की बहुत ही चालाक रणनीति सुझाई जिसके लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनी के दलालों तथा विदेशी संस्थाओं द्वारा हिन्दी अखबारों को आर्थिक सहायता देकर तैयार किया गया जिसमें देवनागरी लिपी को बदल कर 'रोमन' करने की साजिश तैयार की गई और इस अभियान में वे लोग जुटे हुये हैं।
'अंग्रेजी की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुये एक लेखक ने लिखा था- 'अंग्रेजी की विशेषता ही यही होती हे कि वे बहुत अच्छी तरह से यह बात आपके गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आपका स्वयं का मरना बहुत जरूरी है। और वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते हैं। ठीक इसी प्रकार हिन्दी के अखबारों द्वारा यह प्रचार किया जा रहा है कि हिन्दी का मरना हिन्दुस्तान के लिए जरूरी है। मैं बात कर रहा था हिन्दी को असमर्थ बनाने वाली ताकतों की। हमारे शिक्षाविद् (जिनमें अधिकतर वामपंथी विचारधारा वाले हैं) जिन्होंने प्राथमिक कक्षाओं में हिन्दी की गिनती पढ़ाने को गैर जरूरी बताया, जिन्होंने शिक्षा नीति में बदलाव कर प्रथम कक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता पर जोर दिया। आखिर क्यों, क्यों जरूरी है भारत में अंग्रेजी? अंग्रेजी भाषा के एक योजनाकार ने बहुत ही चालाकी से हिन्दी को भारत से विदा करने का षडयन्त्र किया। रोमन भाषा में हिन्दी का अखबार, किताबें आदि लिखने की शुरूआत की जाये। इसका सबसे बड़ा प्रहार देवनागरी लिपि पर होगा। आने वाली पीढ़ी नागरी लिपि के बजाय अंग्रेजी लिपि को ही समझेेगी और धीरे-धीरे हिन्दी भी चलन से बाहर हो जायेगी। इसका प्रचार-प्रसार दुनिया के कई मुल्कों में प्रारम्भ कर दिया गया हैं गुयाना में 45 प्रतिशत लोग देवनागरी लिपि के माध्यम से हिन्दी का प्रयोग करते थे वहाँ अब देवनागरी की जगह रोमन लिपि को चला दिया गया है जिसके कारण हिन्दी की किताबें अपठनीय हो गई हंै। भारत में मेघालय में भी कुछ अखबार रोमन में ही प्रकाशित होते हैं। इसी प्रकार कोंकणी को भी रोमन लिपि में लिखे जाने का निर्णय हो चुका है। यही काम अब त्रिनिदाद में भी जारी है।
सन् 2005 के प्रवासी भारतीय दिवस वह मुम्बई में आयोजित एक कार्यक्रम में एक वैज्ञानिक ने हिन्दी में भाषण देकर हिन्दी का गौरव बढ़ाया, जिसका उपस्थिति जनसमुदाय ने करतल ध्वनि में स्वागत भी किया, मगर कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे सैम पित्रोदा ने हिन्दी में भाषण के लिए मंच से क्षमा माँगी। निश्चित ही हिन्दी का इससे बड़ा अपमान नहीं हो सकता है कि हमें अपने ही देश में, अपनों के बीच, अपनी भाषा में बात करने पर माफी मांगनी पड़े, और विडम्बना मैकाले की यह दोगली सन्तानें राष्ट्र का भविष्य निर्धारित करती हैं। सैम पित्रोदा को अब भारतीय ज्ञान आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया है। 28 मई 2009 को राष्ट्रपति भवन में 59 में से 38 मंत्रियों ने अंग्रेजी में शपथ ली, हिन्दी क्षेत्र कानपुर का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री प्रकाश जायसवाल जी ने भी अंग्रेजी में शपथ लेकर, अपनी अंग्रेज भक्ति का परिचय दिया। ऐसे अनेकोनेक उदाहरण हैं। आज हमें किसी विदेशी भाषा में खतरा नही है, खतरा है तो अपने रहनुमाओं से जो वोट मांगते हैं हिन्दी में, और संसद में हिन्दी का विरोध करते हैं। एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि हिन्दी विश्व भाषा है, थी और रहेगी भी, लेकिन जैसे ही संयुक्त राष्ट्र से इसे मान्यता मिलेगी, त्योंही सत्ता एवं समाज पर काबिज यह स्वार्थी लोग, गिरगिट की तरह रंग बदलकर हिन्दी के पैरोकार बन जायेंगे। अमर बलिदानी अशफाक उल्ला खाँ ने कितनी सटीक बात कही थी-
 सुनाये गम की किसे कहानी,
 हमें तो अपने सता रहे हैं,
 हमेशा वो सुबहो शाम दिल पर, 
 सितम के खंजर चला रहे हैं।
 न कोई इंग्लिश, 
 न कोई जर्मन, न कोई,
 पर्शियन, न कोई टर्की,
 मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी, 
 जो आज हमकों भी 
 मिटा रहे हैं।