बल

'बल' एक विशिष्ट बल वाला शब्द है गढ़वाली-कुमांउनी बोली-भाषा में। यह हिन्दी के बल से बिल्कुल भिन्न शब्द है।
हिन्दी में 'बल' शक्ति, सामथ्र्य, ऐंठ, आश्रम, बट, खम तथा टेढ़ापन के लिए प्रयुक्त होता है। जबकि उत्तराखण्डी 'बल' वक्ता के कथन में एक वैयक्तिकता, संदिग्धता और एक व्यंजनात्मकता भी प्रदान करता है। जिससे वाक्य में अर्थगौरव अर्थभेद अर्थान्तरन्यास अर्थान्तर व कभी-कभी अर्थगत का भी आभास होता है/ देता है। एक तथाकथित गुफा में विषय में किसी से सुनकर लेखक लिखता है- ''वीं गुफा मा, बल एक शिवलिंग छौ जै पर स्वाभाविक रूप से ऐंच बटि तप्प,-तप्प पाणी टप्कणू रौंदो छौ। वूँन बल वो अपणि आंख्योनं देख्यूं छौ। (उस गुफा में बल एक शिवलिंग था जिस पर स्वाभाविक रूप से ऊपर तप्प-तप्प पानी टपकता रहता था। उन्होंने बल वो अपनी आंखों से देखा था) 
उपर्युक्त वाक्य से स्पष्ट हीे ध्वनित होता है कि बात का भाव सत्यापन के बीच झूल रहा है। लेखक सुनी सुनाई बात ही लिख रहा है। वाक्य में आये दोनों 'बल' संदेहात्मकता के साथ-साथ अर्थगौरव याने थोड़ी बात का बड़ा मतलब भी प्रदान करते हैं और वैयक्तिता के माध्यम से बात या दृश्य की पुष्टि भी। इसी भाँति संदिग्धता के साथ-साथ अर्थनिश्चय अर्थात् अभिप्राय के निर्णय पर एक पठनीय उद्धरण देखिए-''जांद-जांद जगदीश ब्वनू छौ, ''टिहरी डाम म त बल गंगा जी बिजली बि बणाली।'' (जाते-जाते जगदीश कह रहा था,''टिहरी डैम में तो बल गंगा जी बिजली भी बनायेगी।) उल्लिखित वाक्य में जगदीश के कथन से पता चलता है कि डैम, बिजली निर्माण हेतु ही बनाये जाते हैं लेकिन जब का ये कथन है तब या तो डाम निर्माण की बात चल रही थी या अभी निर्माण प्रगति पर ही था। अतः बिजली बनना जगदीश के लिए संदिग्ध भी था। अतः बल के माध्यम से उसके कथन को विशेष बल मिला। अब विशेष से सामान्य व सामान्य से विशेष अर्थात् अर्थान्तरन्यास का उदाहरण दृष्टव्य है- 
''यका दिन सम्पत्ति से नि रयेग्यो त वींन बोले- सिरधराअ बाबणि! भ्है बिगळेया बल सोरा ह्नया-दुनिये रीत छ, ह्वेक्यि ही आए, भ्हायों का बांठा बल हथगुळि का खाना। (एक दिन सम्पत्ति से नहीं रहा गया तो उसने कहा-सिरधर के  पिताजी! भाई बिछोह बल सोरे हुये-दुनिया की रीत है, होके ही आई, भाईयों के हिस्से बल हथेली की रेखायें।)
उपर्युक्त संवाद में श्रीधर की माता उसके पिता से 'बल' के माध्यम से भाई बंटबारे के दुख को सहजता से कह पाई है। यही 'बल' का अर्थान्तरन्यास है। कुमाऊँनी भाषा में 'बल' की घुसपैठ किस सहज ढंग से है अवलोकनीय है-
''छुरमल-काक ज्यू! मैं धौल-धुमाकक राजकुंवर कुलवा बीरक च्यालो छूँ। म्यर पैद हुँण है पैंलि म्यर बुबा शैल शिकार छूँ टू तरपै आछि बल। तब बटि उँ हारै न आय। मैं आज उनरै सुद्याव ऐ रयूँ।'' (छुरमल काका जी! मैं धौल-धुमाका का राजकुवंर कलवा वीर का पुत्र हूँ। मेरे पैदा होने से पहले मेरे पिता सैर-शिकार हेतु इस तरफ आये थे बल। तब से वे घर नहीं आये। मैं आज उनकी सुध में आया हूं।) इस संवाद में आये बल की प्रभा में छुरमल पर विशेष प्रभाव पड़ता है कि संवाद को कहने वाला वास्तव में ही कलवा वीर का पुत्र है। यह अर्थनिश्चय याने अर्थनिर्णय में सहायक बल है। और इस बल से वात्सल्य की झलक भी मिलती है। अब व्यंग्य की भाषा में बल का प्रयोग अर्थान्तर के रूप में दृष्टव्य है-
''दा हो,पन्द्रह अगस्त आजि उणी छौ (बल)।
आजादी कौतिक आजि हुणी छौ (बल)।।
मुख्य अतिथि मैनेजर सैपै हंैल
निश्चय छौ-तिरंग क डोर पारि
लझूना-लझून वी लगैंल।''
भाई जी, (अहो जी) पन्द्रह अगस्त फिर आने वाला है बल (सुनते है)। आजादी का मेला फिर आने वाला है बल (सुनते है)। मुख्य अतिथि मैनेजर साब होंगे, निश्चित है तिरंगे की डोर पर खींचतान वहीं करेंगे)'' 
इस काव्य पंक्तियों में कवि बल के माध्यम से ही व्यंग्य का सृजन कर पाया है। वर्ना व्यंग्य की उत्पति न हो पाती।  यही अर्थभेद या आशय की भिन्नता है। कभी-कभी 'बल' का प्रयोग अर्थमत रूप मंे भी होता है। जैसे-
-''अरे त्वेकु ब्वल्यूं बल मिथैं मील जै।''
-''सच्ची बोलिदि।''
-''अरे ब्वल्यूं बल तब।''
(-''अरे तुझे कहा बल (कि) मुझे मिल जाना।''
-''सच्च बोल तो।''-''अरे कहा बल (है) तब।'') 
इस संवाद मंे बल दो बार आया है। लेकिन अनावश्यक ही वक्ता दूसरे से या तो झूठ कह रहा है या मजाक कर रहा है। ऐसे प्रयोग अप्रैल फूल को विशेष होते हैं। पुरातन लोक कथाओं की सत्यता को प्रदर्शित या पुष्टि हेतु भी बल का सहारा लिया जाता है। यथा-
एक स्याळ छौ बल वेकी द्वी कज्याण छै। अर उ उँ दगड़ एक बड़ा भ्याळ की गुफा मा रैंद छौ.....'' (एक स्यार था बल। उसकी दो पत्नियां थी। और वह उनके साथ एक बड़ी चट्टान की गुफा में रहता था...) इसी भाँति ऐतिहासिक कथाओं में भी बल सत्य की भी पुष्टि करता ह,ै दर्शनीय है- 
कफ्फू चैहान की शहादत के बाद बल राजा अजयपालऽन वेकि अर्थी पर कंधा लगै अर चिता पर आग दींद बेर बोलि छौ बल वीरगे पर वीरता रैगे।'' (कफ्फू चैहान की शहादत के पश्चात् बल (कहते हैं) राजा अजयपाल ने उसकी अर्थी पर कंधा लगाया और चिता पर अग्नि प्रज्जवलित करते वक्त कहा था बल वीर गया पर वीरता रह गई।')शोधात्मक इतिहास में बल सत्यता की पुष्टि करता प्रतीत होता है। यथा-''संत कबीर कु जन्म बल एक विधवा ब्राहमणी का गर्भ से ह्वे छौ। अर उंकों पालन-पोषण नीरू अर नोमा नामक एक मुसिलम जुलाहा दम्पत्तिन कै छौ।'' कभी-कभी अपने कथन को विशेष महत्व देने के लिए भी वक्ता बल का प्रयोग करता है। अवलोकनीय है- जब श्रीकृष्ण मथुरा गेनी त वूंन गोपियों थैई समझाणू निर्गुण ब्रह्म ज्ञान का जणगुरू उद्धव जी तैं भेजी। गोपियूंन ब्वाल कि क्या रैबार दियूं छ? बल तुम सगुण ब्रहम की पूजा छोड़ि निर्गुण ब्रहम की उपासना कारा। (जब श्री कृष्ण मथुरा गये तो उन्होंने गोपियों को समझाने के लिए निर्गुण ब्रहम ज्ञान के ज्ञाता उद्धव जी को भेजा। गोपियों ने कहा कि क्या संदेश दिया है? बल तुम सगुण ब्रह्म की पूजा छोड़कर निर्गुण बह्म की उपासना करो। ) लेकिन कभी-कभी बल विलुप्त भी रहता है। ध्यातव्य है-  '' उत्तराखण्ड का कैत्युरी नरेश सलाणंदित्य तै भी (को भी) कै न कै रूप म (किसी न किसी रूप में) भोज प्रतिहार क (के) अधीन मान सकदो, (सकते हैं)। यहाँ बल विलुप्त है। गढ़वाली कुमाऊँनी लोकगीतों में भी 'पट' तुक मिलाने के लिए या लय के लिए भी बल का चलता है। यथा-
बद्दी- हे बल मारी जालि स्यौली
बदेण- आ जुगराज रैन वा पौखाळ की रौली
      आं बल माछी को रगत
बद्दी- तु मेरी जुगेण मी त्यारो भगत
      हां, बल लूण भोर्यो दूण
बदेण- तेरी मेरी माया धुंयालून खेाण।।
(नट- हे बल मारी जायेगी साही
नटी- आं धन्य हो वह पौखाल का गद्देरा
     आं बल मच्छी का लहू
नट- तू मेरी जोगण (प्रेमिका) मैं तेरा भगत (प्रेमी)
     हां बल नमक भरा दूण
नटी- तेरी मेरी माया (प्रेम) चुगलखोरों ने खोना है।)
गीतों की भांति मुहावरों व लोकोक्तियांे में भी बल का प्रयोग उनमें लावण्यता व अर्थगाम्भीर्य भरने में जबरदस्त भूमिका अदा करता है। जैसे-लोकोक्ति में-
1. ब्वल्दू बल नौनी कू। सुणादू बल ब्वारी तैं। (कहती तो लड़की को। पर सुनाती बहू को) 2. ''लिंडी खाणो जोगी छूं बल पैली बासु भुखी म्वरू। (ज्यादा खाने कि लिए जोगी हुआ और पहली ही रात भूखा मरा।) मुहावरों में 1. 'पराया सोनु नाक काट बल। (पराया सोना कहते हैं नाक काटता हैं)
उपर्युक्त लोकोक्ति व मुहावरे में बल के अर्थ-पर और तथा कहते हैं हो गया। इसी प्रकार इस लेख में दिए गए उदाहरणों में भी कहीं-कहीं बल के अर्थ भिन्न भिन्न हो गये। अन्त में यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि हिन्दी के बल का गढ़वाली मेें अभिधात्मक अर्थ 'सत्या' है। जो सत्य के सन्निकटात्मक तो है ही। आध्यात्मिक  रूप से जो सत्या से परिपूर्ण है अर्थात शक्ति सामथ्र्य व सत्य से मर्यादित है वही पुरूषोत्तम है। इति से पूर्व कि बल इनडायरेक्ट कथन की भूमिका माने ज्ींज का कार्य भी करता है।