बौखलाते आस्तीन के सांप


'नक्श बना रहा था आस्तीन के सांप का, माफ करना ए दोस्त तेरी तस्वीर बन गयी'। इस तरह की लोकोक्तियां हर किसी ने अपने जीवन में कभी न कभी, कहीं न कहीं जरूर सुनी होंगी। कुछ कहावतें ऐसी भी प्रचलित हैं जैसे, सांप को जितना भी दूध पिलाओ फिर भी वह एक दिन काटेगा ही, सांप का बच्चा सपोला ही होता है..आदि आदि। हमारे पूर्वजों ने कितना सटीक कहा है कि 'दुर्जनः परिहर्तव्यः विध्ययालंकृतोऽपि सन्/ मणिना भूषितः सर्पः किमसो न भयंकरः' अर्थात दुर्जन व्यक्ति विद्या से अलंकृत हो, फिर भी उसका त्याग करना चाहिए। क्या मणि से विभूषित होकर विषैला सर्प भयंकर नहीं होता? अर्थात् जब मणिविभूषित सर्प मृत्युकारक होता है तो विद्याविभूषित दुष्ट भी नाशकारक ही होता है। व्यक्तिगत तौर पर हो या राष्ट्रीय प्रसंग में हो, यह मुहावरा उस विश्वासघाती के लिए प्रयोग किया जाता है जो अपनों के विश्वास को ठगता है और जिस मिट्टी से सब कुछ पाता है, उसी के हितों के खिलाफ जाता है। नाग पंचमी का त्यौहार सनातन धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो नागदेवता के सम्मान में मानाया जाता है। 'सनातन धर्म' प्रकृति और जीव के बीच सामंजस्यपूर्ण परितंत्र को बनाये रखने का नाम है और इसीलिए भारतीय संस्कृति में जीव, वनस्पति और कुदरत के संसाधनों को पूज्य माना गया है। इतिहास साक्षी है कि धर्म और मजहब के अंतर की तरह ही, साधारण जनमानस के लिए नागराज और सांपनाथ में फर्क करना भी बहुत कठिन रहा है। शायद इसीलिए जालिमों ने आस्तीन का सांप बनकर उन्हीं को डसा जिनको सीढ़ी बनाकर वे आगे बढ़े थे। न्यायसंगत, सदाचार, नैतिकता एवं सद्विचारों की कीमत सिर्फ आदर्श समाज में होती है क्योंकि अराजक दुराचारियों की अनैतिक शक्तियों के सामने इनका कोई मोल नहीं रह जाता है। महान संस्कृतचित्त, कुशाग्र-बु(ि, निर्भीक, गूढ़ कूटनीतिक समझ के धनी और चन्द्रगुप्त जैसे यो(ा का साथ होने के वावजूद भी क्रूर धनानंद को हराना आचार्य चाणक्य के लिए आसान नहीं था। क्यों आसान नहीं था? इसका जवाब धनानंद के इन शब्दों में मिलता है-'चाणक्य, मैं जानता हूँ तुम्हारी बहुत तेज बु(ि है, तुम कूटनीति के बहुत बड़े खिलाड़ी भी हो, तुम्हारे पास चन्द्रगुप्त जैसा यो(ा भी है लेकिन इस सबके बावजूद भी मुझे नहीं हरा पाओगे, बताओ क्यों? क्योंकि मेरे जैसा कमीनापन तुम कहाँ से लाओगे? बोलो..। यही नीचता आस्तीन के सापों में भरी होती है और उन्हें पहचानकर अलग थलग करना आसान काम नहीं है। पिछले पांच साल में ये धनानंद, देश की न्यायपालिका, कुछ शैक्षणिक संस्थानों, सिनेमा उद्योग, इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मिडिया तथा राजनीति आदि इन सभी जगहों से बौखलाते देखे गए हैं। इनकी चंडाल चैकड़ी आजादी के बाद से देश की संस्कृति और सुरक्षा को वैसे ही कमजोर करने पर लगी थी जैसे गेहूं को घुन और लकड़ी को दीमक अन्दर ही अन्दर खोखला कर देते हैं। वैसे तो आस्तीन के सांप हर युग में रहे हैं लेकिन पिछले ७0 सालों में देश के हितों के साथ सबसे अधिक विश्वासघात हुआ है क्योंकि आस्तीन के साँपों को पहचानने में भारत के जनमानस को बहुत समय लगा। बहुत पीछे न जाकर अपनी आँखों देखी घटनाओं का फीडबैक लेते हुए याद कीजिये, सुभद्राकुमारी चैहान की एक कविता है जिसे हम सभी ने बचपन में पढ़ा लेकिन उसका असल अर्थ समझने में कई साल लग गए। 'विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी...' कवयित्री जी ने इन दो पक्तियों में आस्तीन के साँप का नाम बताकर चेताया था लेकिन जनता कहाँ समझी कि आजाद भारत में साल दर साल जिनको सत्ता पर बिठा रहे हैं वे वास्तव में वही सपोले सिंधिया हैं जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के विश्वास को डसा था। एक और उदाहरण उस आस्तीन के सांप का है जिसको हम सबने बोफोर्स काण्ड के खुलासे के बाद देश की सत्ता तक पहुंचाया था और उसने प्रधानमंत्री बनते ही अपनी टोपी बदल दी थी। उसने एक ऐसे जन्मजात मक्कार को देश का गृहमंत्रालय सौंपा जो जम्मू कश्मीर में अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान मजहबी नफरत फैलाने के अलावा चार सौ से अधिक हिन्दू मंदिरों को तुड़वा चुका था। उसके गृहमंत्री पद की शपथ लेने के चालीस दिन के अन्दर ही कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार हुआ और उन्हें अपनी जड़ों से अलग होने के लिए मजबूर होना पड़ा। भारत के सविंधान के अन्दर ये कौन सा संविधान था जिसके पास वहाँ के मूल निवासी के लिए कोई कानून व्यवस्था नहीं थी, दोषियों के लिए सजा का कोई प्रावधान ही नहीं था? किसी मिडिया ने मानवाधिकारों का रोना नहीं रोया। इन आस्तीन के साँपों की लिस्ट बहुत लम्बी है जोकि आज नेट पर आसानी से मिल जाती है। इनके कुकृत्यों से अवगत होकर सचेत होना समय की मांग है। सुना है कि सबसे खतरनाक होता है आस्तीन का इंसा होना, डंसता नहीं, छुरा भोंकता हैं पीठ में।
हलंत सितम्बर अंक में छपा लेख 'राजनीति को नोचते गि(' इतिहास की कुछ कटु सच्चाईयों को उजागर करता है इसलिए शायद खतरे की तरफ से आँख मूंदने की प्रवृति वाले कुछ बु(िजीवियों को सच्चाई पर लिखना लेखक का पूर्वाग्रह दिखता है, भारतीयता की गरिमा के विरु( लगता है।  ऐसे लोगों के लिए उचित सलाह ये है कि देश की गरिमा और समाज के आदर्शों को बंद आँखों से नहीं बल्कि आँखे खोलकर परिभाषित करने की जरूरत है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि राजनैतिक उठापटक सत्ता का अंग नहीं बल्कि सत्ता कायम करने का माध्यम है। दूसरांे के वजूद को मिटाकर अपनी सत्ताएं कायम करने वालों के खूनी इरादों का साक्षी भारत का इतिहास स्वयं है। मानव प्रवृतियों के इतिहास का वर्तमान में आंकलन करते हुए भविष्य में इतिहास की पुनरावृत्ति की आहट से सावधान करना पूर्वाग्रह नहीं होता है बल्कि जनजागरण कहलाता है। आपका स्व- घोषित आदर्श पूरे समाज का आदर्श होगा, ऐसी सोच अपने आप में एक ऐसा भ्रमजाल है जो व्यक्ति को सच से मीलों दूर रखता है। भ्रम और दूरदर्शिता  में जमीं आसमान का फर्क होता है। सद्गुरु जग्गी महाराज जी नींद में सोये हिन्दू समाज को जगाने के लिए याद दिलाते हैं कि जो लोग देश में सभी अधिकार पाने के बावजूद बोलने की आजादी के नाम पर वही करने की धमकी देते हैं जिसे हिन्दुओं ने मुगल काल में झेला था तो ये चिंता का विषय होना चाहिए। हामिद अंसारी नाम के एक व्यक्ति को सालों देश के उप राष्ट्रपति पद पर बिठाये रखा। जिसे हम सब उपराष्ट्रपति समझते थे वह सेवानिवृत्त होते ही दुश्मन देशों की भाषा बोलने लगा कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं? यानी स्पष्ट है कि उसका सरोकार देश से नहीं है बल्कि सिर्फ मुसलमान से है। २0 अगस्त २0१९ की घटना है, हरियाणा का जज फखरुद्दीन एक केस की सुनवाई के दौरान मुस्लिम शिकायत कर्ताओं से झल्लाते हुए कहता है, हिन्दुओं से पिटकर आये हो? गोली क्यों नहीं मारी उनको? अगली बार पिस्तौल लेकर आना, बाकि मैं देख लूँगा। १३ सितम्बर १९९४ को 'रामपुर तिराहा कांड' मुज्जफरनगर में क्या हुआ था? इसकी रिपोर्ट तैयार करने की जिम्मेदारी उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री सेक्युलर मुलायम ने एक सेवानिवृत्त जज जहीर हसन को सौंपी। उसकी रिपोर्ट के मुताबिक देवभूमि से दिल्ली जाने वाली महिला प्रदर्शनकारियों ने पुलिस के साथ हिंसक व्यवहार किया था इसलिए पुलिसवालों ने जो कुछ उनके साथ किया वह जायज है। जब हर जगह इस तरह के मक्कार बैठे हों तो समाज को सतर्क होने की और अधिक आवश्यकता हो जाती है। पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ जैसे भारतमाता के लाल आज जनमानस को जागृत करने के लिए मौजूद हैं। हम सबका ये फर्ज बनता है कि हम अपनी नयी पीढ़ी को स्वयं पर गर्व करना सिखायें तथा वामपंथियों और सेक्युलर सांपनाथों के कुकर्मों से उन्हें अवगत कराएँ। हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री जी ने अंतर्राष्टीय मंच पर विश्व को यही बताया है कि आतंकवाद के खिलाफ हम भारतीयों के अन्दर आक्रोश भरा है। निस्संदेह रूप से आदर्श समाज का यह आक्रोश हमारी संस्कृति, स्वाभिमान और हमारे अस्तित्व की सुरक्षा के लिए रामबाण का काम करेगा। पुष्पेन्द्र जी ने कितनी सच्ची बात कही है कि हिन्दू समाज जिस दिन अपनी पांच हजार साल पुरानी संस्कृति से जुड़ने लग जायेगा, उस दिन समाज से आदर्शों के झूठे बुलबुले यूँ ही गायब होने लगेगें क्योंकि तब हम अपने आदर्श अपने पूर्वजों रामदृकृकृष्ण और उनके आदर्शों पर चलने वाले महान हस्तियों में देखने लग जायेंगे। आज घर की बेटियों को सोने के आभूषणों के बजाय लोहा रखने की सीख देने का वक्त है तांकि वे समय पड़ने पर अपनी रक्षा स्वयं करने में सक्षम बनें। हाल ही में दो हजार गुजराती राजपूत महिलाओं ने तलवार बाजी का कौशल प्रदर्शन किया जो जागरूक होने की दिशा में एक अच्छी पहल है। हमें इस बात पर गर्व है कि हिन्दू समाज विभाजनकारी आस्तीन के साँपों के चंगुल से निकलकर दिन प्रतिदिन संगठित हो रहा है और साथ में काल के गर्भ में पनप रहे मजहबी उन्माद के खतरे को भांपकर उससे निपटने के लिए चैकन्ना भी हो रहा है। एक शायर ने सौ बात की एक बात कही है कि 'डस न लें फिर आस्तीन के सांप कहीं, इनसे महफूज जिंदगी रखना'। जय श्रीराम।।