आज भारत की धरती पर जितने भी पंचांग उपलब्ध हैं वे सब के सब वैदिक मार्ग दर्शन के बिलकुल विपरीत तथाकथित 'निरयन' नाम की आड़ में बनाये जा रहे हैं। परिणाम स्वरुप सारा ही हिन्दू समाज अपने सारे ही व्रत, पर्व गलत तिथियों में मनाते हुए अधर्म अर्जन कर रहा है। वेदों का निरादर और पूर्वज ऋषियों की अवमानना हो रही है। उदाहरण के लिए आगामी सोमवार, २२ जुलाई को रक्षा वन्धन का पवित्र वैदिक त्यौहार मनाया जाना चाहिए क्योंकि उस दिन ही असली श्रावण शुक्ल पूर्णिमा है, न कि गुरु पूर्णिमा या आषाड़ की शुक्ल पूर्णिमा। उस दिन ठीक रात्रि २१.२६ बजे सूर्य का सिंह संक्रमण होगा। इस ही क्षण से भाद्रपद मास शुरू होगा और इसमें वेद, पुराण और सभी सिद्धान्त ग्रन्थ के प्रमाण उपलब्ध हैं। (देखें भारत का एक मात्र शुद्ध वैदिक पंचांग 'श्री मोहन कृति आर्ष तिथि पत्रक' (हिंन्दी ) और इसकी इंग्लिश एवं तमिल प्रस्तुति.आप इस पंचांग को वेबसाइट पर भी देख सकते हैं। 'कर्कादेशस्तथैव स्यात षणमासाः दक्षिणायणम'-ये है सिद्धान्त और इसका अभिप्राय होता है कि २१ जून को १०.३४ बजे दक्षिणायण और कर्क संक्रांति के साथ श्रावण का महिना शुरू हुआ है। इसकी द्रश्य पहिचान है सूर्य का उत्तर परम क्रांन्ति को प्राप्त होना और तत्परिणाम से दिन का बड़े से बड़ा और रात का छोटे से छोटा होना। अस्तु, उक्त घटना क्रम के बाद जो पहला शुक्ल पक्ष ०९ जुलाई के से शुरू हुआ है, वह ही शुद्ध श्रावण शुक्ल पक्ष हुआ। यही वेद, पुराण और सिद्धांत ग्रंथों का कहना है। समस्त संस्कृति परक मर्यादित हिन्दुओं के लिए आवश्यक है कि वे आगामी पूर्णिमा, २२ जुलाई को ही श्रावणी पर्व, रक्षा वंधन का त्यौहार मनाएं। गुरु पूर्णिमा नहीं। आइये, अब आपको केदारनाथ घटना की ओर ले चलूं। जैसा कि सुना गया है, १४ मई २०१३ को अक्षय तृतीया के नाम से केदारनाथ मंदिर के कपाट खोले गए थे, प्रातः ०७.१५ बजे। २० मार्च को ठीक १६.३२ बजे 'वसंत सम्पात' के साथ सूर्य की माधव मॉस (वैसाख) संक्रांति हुई है। तो भला १४ मई को (५४ दिनों बाद) अक्षय तृतीया कहाँ से आ गयी होगी? तृतीया तो छोडिये, उस दिन तो चतुर्थी थी और वह भी केवल अपरान्ह के १५.२१ बजे तक। तृतीया तो एक मिनट की भी नहीं थी। जो लोग मुहुर्त की शुभ अशुभता को जानते हैं, मानते हैं, उनको यह भी जान लेना जरुरी है कि उस दिन पूरे दिन के लिए आर्द्रा नक्षत्र था। आद्र्रा के मंगल वासरिया योग से 'मरण' योग बनता है। अब जब केदारनाथ के प्रलयंकारी प्रकोप को हमने देख लिया है और हमारे प्रिय जनों ने प्राणों की कीमत पर भोग भी लिया है तो ऐसे में ये 'मरण योग' छाती को एक चुभन तो दे ही रहा है। गलत पंचांगों की गिरफ्त से भोली-भाली हिन्दू जनता को बाहर लाना एक बहुत बड़ा कार्य है और उतना ही आवश्यक भी। वैदिक पंचांग के अनुसार निर्जला एकादशी के दिन, मिथुन संक्रांति २१ मई को थी न कि १४-१५ जून को। वैदिक व्यवस्था को तिरोहित करते हुए तमाम त्योहारों को गलत तिथियों में मनाते जा रहे हम, देवों के देवत्व की कब तक परीक्षा लेते रहेंगे? आखिर हर बात की हद होती है-सीमा होती है। जो लोग गए हैं और हमेशा के लिए चले गए हैं, वे वास्तव में देश के भ्रामक पंचांगों से धोखा खा गए हैं। दिवंगत आत्माओ! क्षमा करना, अज्ञानियों का कुचक्र ही ऐसा है कि हमारी सुनवाई नहीं हो रही है। ओम शान्ति!
भ्रांत पंचांग और केदार त्रासदी