बिना घर का मकान


मैं सुदूर पर्वतीय अंचल के
एक समृद्व गांव का
वैभवशाली मकान
राजू के परदादा ने
बड़ी लगन, परिश्रम से
और आत्मीयता से
मुझे तैयार किया
उनकी समृद्धि और ठसक
मुझमें झलकती थी,
मेरा रंग कहीं से फीका पड़ जाये
उन्हें कतई सहन नहीं था,
कई दशकों तक किसी बेल ने 
यदि मुझ पर
चढ़ने की कोशिश भी की
तो उसे अपनी जमीन गंवानी पड़ी
बहुत स्नेह मिलता रहा उनसे,
राजू के दादा का जन्म
मेरे सामने हुआ
मेरे ही आंगन में खेलकर
राजू के पापा कहीं दूर चले गये
शादी करके बहु को भी ले साथ
कहीं दूर देश चले गये,
कुछ समय बाद एक छोटे लड़के
के साथ आये, वही राजू है,
वह बहुत प्यारा है,
वह सारे दिन मुझसे खेलता
अन्दर-बाहर, इधर-उधर,
ऊपर-नीचे, आगे-पीछे
मेरा आंगन 
सदैव भरा रहता बच्चों से,
मुझे बहुत आनन्द आता,
एक दिन राजू के पापा
उसे अपने साथ ले गये
मेरे ही अन्दर
राजू के परदादा, दादा
और एक दिन उसके पापा
सदा के लिये सो गये
घर के बाकी लोग भी चलते रहे,
पशु भी मुझे छोड़ गये,
और मैं धीरे-धीरे उजाड़ 
और वीरान हो गया
गांव के बच्चे मुझ तक 
आने से डरते हंै,
मैं बहुत मायूस हूँ, 
अपनी दुर्दशा पर दुखी हूँ,
राजू के परदादा के पास 
जाना चाहता हूँ,
लेकिन केवल एक विचार
कि यदि किसी दिन
राजू गांव आया तो
मुझे न पा कर
वह और उसका परिवार 
बहुत दुःखी होगा
राजू मेरा अपना है,
मैं न हुआ तो
मेरे अपने कहां जायेंगे,
किस के दर पर खड़े होंगे...
अपनों के आने की इसी आश में
मैं खड़ा हूँ, पीढ़ियों से
वक्त के थपेड़ों से
ऋतुओं की मार सहकर भी
केवल इस लिए अड़िग खड़ा हूँ,
एक दिन मेरे अपने जरूर आयंेगे
और पुकारेंगे ये है हमारी तिबार!
और मेरी सेवा लेंगे,
इसी आशा से खड़ा हूँ,
और रहूँगा अन्तिम सांस तक।
मेरी सदियों की तपस्या का
यही इनाम होगा।