चरैवेति

रोटी का कोई अर्थशास्त्रा नहीं होता
पर अर्थशास्त्रा में सिवा रोटी के और कुछ नहीं होता 
हा ! हन्त !
रोटी और अर्थशास्त्रा को ही समझा है आदमी ने
श्रम और शरीर का उत्कृष्ट आभूषण
इसलिए हमारी रोटी शापित है
और सारा अर्थशास्त्रा वर्णसंकर
ओ बटरोही !
आदमी को 'अर्थशास्त्राी' बने बिना समझना है
दुनियां का छोटा-सा अर्थशास्त्रा-
यहां पग-पग पर 'जानना' और 'जाना' है
तिमिर की परछाइयों से दूर
सत्य की शहनाइयों के पास
प्रबोधन की गहराइयों के साथ
तुम्हें जाना है-
जागतिक ऊंचाइयों से बहुत दूर
जहां आदमी को
विजय का उद्घोष और पराभव की पीड़ा
दोनों खोखली लगती हैं
और तिरोहित करने होते हैं
सारे चमकीले वस्त्राभूषण
क्योंकि स्वयं को आहुति बनाकर ही
सम्पन्न होता है वहां राजसूय का परम
नहाओगे, इस अलौकिक सरोवर में?
सोचते क्या हो
तुम आदमी हो
तुम्हारा वैभव है परमेश्वर बन जाना
त्रासदी है पशुत्व का अलंकरण करना
दुर्गति है दैत्य बनकर विचरना
और नियति है आदमी ही बने रहना
सुनो, दिति-अदिति के वंशजो !
श्र(ा-मनु के लाड़लांे !
तुम 'सर्वश्रेष्ठ' नहीं हो
पर, यकीनन 'हो सकते' हो
तुम अनोखे हो
क्योंकि तुम्हारे पास सबसे सुन्दर
हो सकने का वरदान है
इसलिए, तोड़ डालो जंजीरों का अपनत्व
भस्म कर दो भस्मासुरी जड़त्व
तुम्हारा संसार इतना आकर्षक नहीं 
कि तुम्हे चिरकाल तक संज्ञाशून्य बना सके
और तुम इतने अनाकर्षक नहीं
कि सारी उम्र वियावान में भटकते रहो
इसलिए, बन्धु मेरे !
देहली को लांघना ही होगा
'अज्ञेय' को जानना ही होगा
दिगंबर बनकर जीना ही होगा
चरैवेति-चरैवेति पीना ही होगा।