दोहे

अवमूल्यन का दौर है, दुःखी ज्ञान की रूह
लेखक गिनती के घटे, पाठक घटे समूह


चाटुकारिता के पगे, बेल मढे चढ जाय
मान सहित आदर घटे, मानदेय बढ़ जाय


देख नज़ाकत शहर की, लजा रहे यों गांव
किसी गुफा की ओट में, जैसे दुबके पांव


शासन होता जा रहा, फोड़े पका मवाद
सत्ता के मुँह चढ़ गया, जनपीड़ा का स्वाद


राजनीति में पल रहा, एक भयंकर रोग
नेता सेवक हो रहे, सेवा छप्पन भोग


नींद नदारद हो रही, पथराई है आँख
पुतली ने मन की व्यथा, दी पलकों में टाँक


दल के दलदल में धंसी, राजनीति की देह
नेता जिस-जिस घर उगे, वह घर रहा न गेह


प्रकृति बदला ले रही, मौसम हुआ अचेत
मेघ आग बरसा रहे, झुलस रहे हैं खेत


कैसी यह निष्पक्षता, है काहे की खोज
कुर्सी जिसको मिल गई, वो ही राजा भोज


क्या जन जन में घट रहा,नहीं किसी को भान
जो कुछ भी कुर्सी कहे, वही मीडिया गान


संशोधन कर कीजिये, दृष्टिकोण अनुरूप
हर मौसम में जिस तरह, रंग बदलती धूप


बड़े नियन्ता आप हैं, छोटे चाकर हम
कोई भी इस दौर में, नहीं किसी से कम


सत्ता के संकल्प में, दिखें छेद ही छेद
सिद्धान्तों की देह में, वैचारिक मतभेद