ईश्वर

लघुकथा 


लोगों ने उसे झपटकर पकड़ लिया। 
'तुम इन बोरियों को नदी में क्यों फिंकवा रहे हो?/ देखते नहीं इनमें रखा राशन पानी पड़ने से सड़ गया है और बास मार रहा है/ लेकिन तुम तो कहते थे कि राशन खत्म हो गया है/ हां! कागज पर खत्म हो गया था/ तुम जानते हो कि बाढ़ में हमारा सब कुछ तबाह हो गया, घर-बार, बाल-बच्चे नदी में समा गये। किसी तरह हम जान बचाकर तम्बू में रह रहे हैं। हमारे पास न खाने को है, न पहनने को...जंगल के कंदमूल फल खाकर, अलाव जलाकर जिन्दा हैं हम...और तुमने राहत के राशन पर कुण्डली मारकर उसे सड़ा डाला?, ऐसा क्यों किया तुमने? क्या तुम्हें ईश्वर का भी डर नहीं है?
ईश्वर का ही तो डर था हमे! उन्होंने कहा था कि चुनाव में तुम्हारे गांव से वोट न मिलने के कारण हमारे नेता  हारते-हारते बचे थेै ऐसा बेईमान गांव को उसकी सजा तो मिलनी ही चाहिये। चाहे पूरा अनाज सड़ जाये पर बेईमाना गांव तक एक दाना न पहुंचने पाये, इसका पूरा ख्याल रखा जाये...हमारे भी बच्चे हैं नेताजी का कहना कैसे टाल सकता हूं।