स्वयं स्वीकृत गणतन्त्र हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है। एक ओर जहँा मन में समाधान का यह भाव आता है कि हमने लम्बे संघर्ष के बाद स्वाधीन हेाकर स्वेच्छा से गणतन्त्र की व्यवस्था को स्वीकार किया। हमने इसे लोकतन्त्र, गणतन्त्र, जनतन्त्र ऐसे कई नामों से सम्बोधत किया है। इस सन्दर्भ में यह विचार मन में आना चाहिए कि यह वेला केवल सन्तोष करके बैठने की नहीं बल्कि आत्मनिरीक्षण एवं मूल्यांकन की है, कि हम आजादी के दशकों बाद किस दिशा व दशा में पहुँचे हैं। स्वाधीनता का अर्थ है, अपने तन्त्र का प्रादुर्भाव, अपनी व्यवस्था, अपनी पद्धति पर विश्वास। यह विचारणीय बिन्दु है कि हम स्वाधीन तो हुए किन्तु स्वतन्त्र हुये कि नही। अपना तन्त्र कौन सा है। यह समझना होगा। साथ ही यह भी समझना होगा कि अपना तन्त्र कौन सा था? क्योंकि हमने इस सष्ष्टि पर एक चिरपुरातन राष्ट्र का जीवन जिया। सभ्यता की उस सीमा को हमने छुआ जो आज के विश्व के लिये कल्पनातीत है। हमने संस्कष्ति की उस धरोहर को संजोकर रखा है, जिसमें '' वसुधैव कुटुुम्बकम'' कहा, ''सर्वे भद्राणि पशन्तु'' कहा और कष्णवन्तो विश्वमार्यम् के उद्घोष के साथ संसार को श्रेष्ठ बनाने का भी बीड़ा उठाया। हमारे महापुरूषों ने इस उद्घोष को विश्व भर में गुंजाया, यही हमारी थाती।
विचार करें कि अपनी परम्परा, संस्कष्ति, पूर्व पुरूषों का प्रेरक स्मरण तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान का पाठ कौन सी पाठशाला में पढ़ाया जाता हैं? हम झिझकते हैं कि कहीं कोई हमें देशभक्त न कह दे, क्योंकि देशभक्ति अब द्वितीय श्रेणी की बात हो गई, फुर्सत की चीज हो गई है। किसी राष्ट्रीय पर्व पर दो चार जयघोष लगा देना, देशभक्ति मार्का कुछ गीत सुनना या सुनाना इतने भर से देश के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली जाती है। विडम्बना है कि अपने धर्मपरायण देश मंे हम धर्मनिरपेक्ष हो गये। यहँा व्यक्ति सामाजिक दायित्वों का निर्वाह कर्तव्य परायणता से करता था तो उसे धार्मिक कहा जाता था। धर्म मनुष्य जीवन को मर्यादा में बंाधता है धर्म तोड़ता नही जोड़ता है, धर्म में श्रेष्ठ जीवन जीने की धारणा होती है इसीलिये राष्ट्रधर्म, समाजधर्म, परिवारधर्म आदि कहा गया है। राज्याभिषेक के समय पुरोहित राजा को चेताता था कि तुम धर्मदण्ड से नियन्त्रित हो, धर्म सर्वोपरि है। तुलसी ने भी कहा है-परहित सरिस धरम नहीं भाई। आज व्यक्ति को इससे निरपेक्ष बनाने पर तुले हैं। राष्ट्रहित में क्या दो टूक बात कहने का हम सामथ्र्य जुटा सकते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष नहीं, धर्मसापेक्ष हैं।
गत ६ः दशकों की भारत की राजनीति की अपनी ही व्यथा-कथा है। इसमें स्वाधीन भारत का सम्पूर्ण जीवन सिमटा हुआ है। राष्ट्रीय एकात्मता को वर्गीय हितों स्वार्थों, मजहबी उन्मादों तथा जातीय घरोंदों में बांध दिया गया है। राजनीतिक केवल सत्ता प्रप्ति का साधन मात्र हो गयी है। यदि कोई राजनीति में समाजोन्मुखता की तलाश करेगा तो उसे निराश होना पड़ेगा। राजनीति में सब कुछ जायज है, यह मान्यता हो गई हैं राजनीति का भी कोई चरित्र होता है, यह प्रश्न गौण हो गया है। यह स्वरूप आज की राजनीति का हैं, किन्तु स्मरण रहे भारतीय राजनैतिक दर्शन का कदापि नहीं। भारतीय राजनीति का यथार्थ तो सदैव ही सत्ता और समाज का नियमन करना है। इसे समझने के लिये तो राम और कष्ष्ण के चरित्र का अनुसरण करना होगा, आचार्य कौटिल्य को समझना होगा, छत्रपति शिवाजी के जीवन का स्मरण करना होगा। भारतीय राजनीति के स्तम्भ, ग्रामीण विकास के पुरोधा श्रद्धेय नानाजी देशमुख ने कहा था कि,-राजनीति जीवन का एक अंग तो है किन्तु यह जीवन सर्वस्व नहीं है। आज हम उन महापुरूषों की चर्चा तक करने में संकोच करते है जिन्होंने राजनैतिक जीवन में भारतीय आदर्शों को जिया। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, पंडित मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरूषोत्तम दास टन्डन, सरदार पटेल, राजेन्द्र बाबू आदि अनेक मानिषियों के नाम लिये जा सकते हैं। आखिर यह विरासत आगे की पीढ़ी को कैसे जायेगी? देश के युवा को कैसे पता लगेगा कि स्वाधीनता कैसे आयी? जनतन्त्र के लिये कैसे और कितने बलिदान हुये।
अर्थचिन्तन के क्षेत्र में हमारे पास भी अपना कहलाने लायक कुछ है, इस बात का भान होना चाहिए, पर कैसे हो ? क्योंकि अपनी धरोहर पर गर्व करने का संस्कार हमने खो दिया, आजादी के बाद जो नेतष्त्व देश को मिला उसका यह दायित्व था कि वह सोचे कि देश को सामाजिक राजनैतिक संस्कार कैसे मिलें? भारतीय राजनीति के चिन्तक, अर्थनीति के विद्वान, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने स्वदेशी चिन्तन पर बल दिया उन्होंने एकात्ममानववाद के दर्शन की व्याख्या राष्ट्र पटल पर रखी। वे कहते थे कि व्यक्ति-व्यक्ति में अपनी धरोहर का स्वाभिमान चाहिये, विकास के नाम पर कोई परायी चीज भी लेनी हो तो अपने घर की परम्परायें तथा चैखट जरूर आँकनी चाहिए। व्यवस्था के लिये कोई भी पद्धति अपनायें उसके मूल में राष्ट्रीय सोच अवश्य निहित हो।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जनतंत्र की व्यवस्था पर एक लम्बी बहस हुई। मौलिक प्रश्न यह है कि व्यवस्था का नियामक कौन है, व्यवस्थायें किस पर टिकी हैं? समाज की वह न्यूनतम इकाई कौन सी है जो व्यवस्था की धुरी है? सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है- व्यक्ति। हमने व्यक्ति को संस्कारित करने की कौन सी मशीन खड़ी की है ? कौन सा तंत्र खड़ा किया है? हम अपनी शिक्षापद्धति से शिक्षित समाज तो पैदा करते हैं किन्तु जीवन में उदात्त लक्ष्य लिये क्या ऐसे नवयुवक भी तैयार होते हैं, जो मन में राष्ट्रभाव को संजोकर देशहित के लिये संकल्प लेते हैं ? इसी माटी के सपूत स्वामी विवेकानन्द ने शिकागों के विश्व धर्म-सम्मेलन में भारत के जिस गौरव को स्थापित किया था, वह अपने देश का मौलिक चिन्तन हैै। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के पीछे इस मिट्टी के पवित्र संस्कार थे। पाश्चात्य जीवन के थोथे आदर्शांे के सिरमोर पश्चिम को पहली बार आभास हुआ कि इस तरूण सन्यासी की हुंकार में भारत का जीवन-दर्शन छिपा है। समय की आवश्यकता है कि हम वर्तमान पीढ़ी को इस युगप्रवर्तक द्वारा प्रशस्त किये गये मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करें।
गणतन्त्र पर अपना ध्यान इस सच्चाई की ओर भी जाना चाहिए कि हमें जो आजादी मिली वह खण्डित आजादी थी। भारतमाता की दोनों भुजायें कट कर अलग हो गयीं और हमें विभाजन का गरल पीना पड़ा। देशवासी इस प्रहार से आहत थे। भूमिपुत्र होने के नाते अन्तःकरण में यह टीस भी चाहिये कि वर्ष सैंतालीष का पन्द्रह अगस्त रक्तरंजित था। यह सब क्यों हुआ? यह किसका षड्यन्त्र था? क्रान्तिवीरों, पूर्वपुरूषों के स्वप्नों का भारत तो अखण्ड भारत था। फिर खण्डित भारत क्यों स्वीकारा हमने? इस प्रंसग पर हम युगदृष्टा महर्षि अरविन्द का स्मरण करें। वे राष्ट्रीय विचारों के पोषक थे। उनके वैचारिक अधिष्ठान, उनके आध्यात्मिक दर्शन में जगतजननी भारतमाता आराध्या देवी के रूप में निहित है। अरविन्द का भारत एक ऐतिहासिक सच है, इसको साकार करने की शुरूआत होनी चाहिए।
हम विषम परिस्थितियों का विकल्प ढॅूढते है। किन्तु विकल्प मात्र से हेतु पूरा नहीं होगा सकारात्मक परिणामों के लिये संकल्प भी चाहिये। हम कौन थे? हमारी परम्परायें क्या थीं? हमारे आदर्श कौन से थें? जनतन्त्र के पीछे पूर्व पुरूषों, शहीदों की कल्पना क्या थी? इसका समग्र विचार करना होगा। विश्व की अनेक सम्यतायें काल के प्रवाह में बह गयीं, किन्तु हम आज भी खड़े है। आखिर हमारे तन्त्र में ऐसी कौन सी बात है कि हमारा अस्तित्व अक्षुण्ण बना हुआ है।
प्रत्येक गणतन्त्र पर ज्ञात, अज्ञात हुतात्माओ का पुण्यस्मरण करते हुये हम सीमान्त प्रदेश के वासी राष्ट्र के नवनिर्माण का संकल्प लें, विकास के और अधिक अवसर तलाशें ताकि पलायन के अभिशाप से मुक्त हो सकें, देश, सरकार, शासन को निरन्तर गतिमान रखने की जो पद्धति जनतन्ंत्र के रूप में हमने स्वीकार की है हम उसकी सुरक्षा, संरक्षण तथा संवर्धन के लिए सदैव कटिबद्ध हांे, यही वर्तमान में अभीष्ट है।
गणतंत्र के मायने