गौरेया


प्रकृति स्वरविहीन, 
विवसन-वन-विटप 
वाटिका श्रीहीन। 
निःशब्द जीव-जन्तु,  
उद्भिज- जंगम-स्थावर। 
भटकते ढूँढते आश्रय 
खोजते निज राग-स्वर  
निर्जन कानन, नीरव आँगन। 
श्रीहीन जीवन, 
लुप्तप्राय चँहकन  
छप्पर के बाँस में 
बसती जिन्दगी। 
उजड़ी तिनके सी 
शेष केवल बेबसी।। 
लालन की, पालन की 
वंश के अभिवृद्धि 
और संचालन की। 
संरक्षण की, 
अभिवर्द्धन की, 
भरपेट भोजन की  
नन्हीं गौरैया पालती 
शिशुओं को जतन से, 
सेवा मानवता की करती 
तन से मन से, 
अपनी चँहकन से,  
कीट-पतंग खाकर, 
दाना-दाना चुगकर, 
अहर्निश श्रम कर, 
चलाती घर-परिवार। 
छीन लिया अट्टालिका ने 
छप्पर का अधिकार घ् 
छिन गया गौरैया का घर, 
सिर से छत का अधिकार, 
उसके ममता का अधिकार, 
उसकी धुन का अधिकार, 
उसके समूह का अधिकार, 
उसकी चँहक, उसकी फुदकन, 
छिनता रहा प्रतिक्षण, 
उसकी चँहकनों का प्यार।