ग्राम्य विकास के महारथी-डॉ नित्यानंद


उत्तरांचल दैवी आपदा पीड़ित सहायता समिति के संरक्षक, प्रख्यात भूगोलवेत्ता, समाजसेवी डाॅ0 नित्यानन्द बाल्यकाल से ही महान समाजसेवी तथा विचारक पं0 दीनदयाल उपाध्याय के सानिध्य में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के स्वंयसेवक बने, तथा 1944 में श्रद्धेय भाऊराव देवरस की प्रेरणा से जीवनव्रती प्रचारक के रूप में समाजसेवा में लग गये। विभिन्न शिक्षण संस्थानों में अध्ययन करते हुए आप 1965 में देहरादून आये तथा यहां डी.बी.एस. पोस्ट ग्रेजुएट काॅलेज में निरन्तर 20 वर्षों तक भूगोल के विभागाध्यक्ष रहे। हिमालय के प्रति श्रद्धा एवं अनुराग होने के कारण आपने यहां के बहुआयामी परिवेश को अध्ययन का विषय तथा कार्यक्षेत्र बनाया। अध्ययन, अध्यापन तथा युवाओं का मार्गदर्शन, इस क्रम को आपने सतत् बनाये रखा जो आज भी विद्यमान है। समय-समय पर आपके अनेक शोधपत्र राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। अमेरिका की प्रसिद्ध भौगोलिक संस्था एनल्स ऑफ़ एसोसिएशन ऑफ़ अमेरिकन जेओग्रफेर्स की प्रतिष्ठित पत्रिका में आपका       शोधपत्र प्रकाशित हुआ। यह गौरव विश्व के चुनिंदा विद्वानों को ही प्राप्त है। द होली हिमालय -ए जोग्राफिआकल इंटरप्रिटेशन ऑफ गढ़वाल  आपकी एक अनुपम कृति है। भारतीय इतिहास पर भी आपकी सटीक पुस्तकें हैं। आपका मत है कि ''राष्ट्र रूपी वृक्ष अपना जीवन रस इतिहास से प्राप्त करता है, भारत का इतिहास पराजय, गुलामी का नहीं, गौरवशाली संघर्ष का इतिहास है।'' एक अध्येता तथा समाजसेवी के रूप में डाॅ0 नित्यानन्द जी ने उत्तराखण्ड के सुदूरवर्ती क्षेत्रों, विकासखण्डों का अनेकों बार सघन प्रवास किया, युवकों को विकास की दिशा दी तथा सेवानिवृत्ति के बाद अपना संपूर्ण समय पहाड़ के रचनात्मक कार्यों में लगा दिया। 1991 के भूकंप के बाद आप ''उत्तरांचल दैवी आपदा पीड़ित सहायता समिति'' द्वारा अंगीकृत सीमांत के भटवाड़ी विकासखण्ड के समग्र विकास के लिए प्रयासरत हैं। विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों की चुनौती को स्वीकारते हुए आपने अपना केंद्र मनेरी में स्थित सेवाआश्रम को बनाया। वर्तमान जल प्रलय की त्रासदी में सेवा आश्रम ने सेवाकार्य की जो उत्कृष्ट भूमिका निभाई, वह स्तुतियोग्य है। 
उनका अनुभव है कि प्राकृतिक आपदाओं से पहाड़ के समाज को सीख लेनी चाहिये। विकास के नाम पर जो अनियोजित निर्माण चल रहा है, वह घातक है। निर्माण में पारम्परिक शैली अपनायी जानी चाहिये। आपदा प्रबंधन केवल शासकीय शब्द बन कर रह गया है, वह यहां के जन-जन तक जाना चाहिये तथा पाठ्यक्रम का अंग बनना चाहिये। उनका कहना है कि इस त्रासदी में उत्तराखण्ड वासियों ने तीर्थयात्रियों की सेवा-सहायता कर 'अतिथि देवो भवः' की परम्परा का निर्वाह किया है। उनका मत है कि सीमान्त का यह क्षेत्र पलायन का दंश झेल रहा है, गांव खाली होते जा रहे हैं। आपदा के भय से पलायन की प्रवृति की आशंका को बल मिलता है, इसे रोकना होगा। दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद भी यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से भरा है। विकास के लिये इनके उपयोग की योजना अनिवार्य है। डाॅ0 नित्यानन्द जी का निश्चित मत है कि इस नवोदित राज्य के लिये स्थान-स्थान पर कुछ रचनात्मक उदाहरण स्थापित करने हांेगे, तभी स्वावलंबन आयेगा। राज्य गठन से पूर्व 80 के दशक में उन्होंने 'उत्तरांचल प्रदेश क्यों?' तथा बाद में 'उत्तरांचल ऐतिहासिक परिदृश्य एवं विकास के आयाम' शीर्षक से पुस्तकों की रचना की। उत्तरांचल राज्य के आन्दोलन तथा गठन की प्रक्रिया में कार्यकर्ताओं के लिये ये दोनों पुस्तकें मार्गदर्शक सिद्ध हुईं। 88 वर्ष की वृद्धावस्था में रोगग्रस्त शरीर की पीड़ा को सहते हुए भी उनका मन पहाड़ के विकास के लिए सतत् चिन्तनशील है। उन्होंने जो कार्य हाथ में लिया है उसे पूरा करने का दृढ़ संकल्प उनकी मौन मुखरित मुद्रा में दिखाई देता है।