हिमालय की व्यथा कथा

हिमालय हमारी संस्कृति का ही नहीं, हमारे अस्तित्व का भी मेरूदण्ड है। हिमालय हमारा प्रहरी ही नहीं, अन्तर्रात्मा का अभिन्न अंग भी है। यह शिव-पार्वती की विहार भूमि है, नर- नारायण की तपोभूमि है, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, विद्याधरों का निवास है।। सहस्त्रों ऋषि-मुनियों की आश्रम भूमि है, गंगा-यमुना, सिंधु-सरस्वती और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों की उद्गम भूमि है। भारतवर्ष में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड और असम तक फैला है हिमालयाधिराज...देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्र0 भाग में फैला हिमालयी क्षेत्र एक वृहद जलस्तंभ है। हिमालयी राज्यों में लगभग पांच हजार ग्लेशियर स्थित हैं। हिमालयी नदियां देश के साठ फीसदी पानी की पूर्ति करती हैं। शुद्ध आॅक्सीजन का भंडार यह हिमालय, पूरे देश का जीवन स्रोत है। हिमालयी राज्यों की पहचान उसके वनो से ही है। यहां की वन संपदा का देश की आर्थिकी में भी महत्वपूर्ण योगदान है। लगातार बदल रहे मौसम के मिजाज के बावजूद इन्हीं वनों की बदौलत पर्यावरण-असंतुलन अभी बेकाबू नहीं हुआ है। देश के सत्तर फीसदी टिम्बर की आपूर्ति हिमालयी राज्यों से ही होती है। जबकि औषधि बनाने के लिये जिन जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया जाता है, उसका भण्डार भी हिमालय ही है। देश के सभी बड़े बांध हिमालयी राज्यों में ही हैं। बिजली से लेकर सिंचाई, तथा पीने के पानी की आपूर्ति में इन बांधों का अपना अलग ही महत्व है। हिमालय पर्यटन का भी परिचायक है। हिन्दुओं की आस्था का बहुत बड़ा केन्द्र है हिमालय...हेमकुण्ड, बद्री केदार सहित गंगोत्री-यमुनोत्री वैष्णोदेवी तथा अमरनाथ की गुफा...लेकिन इन सबके बावजूद हिमालय आज व्यथित है, पीड़ित है, बीमार है। मध्य हिमालय की स्थिति चिन्तनीय है और विशेषकर गढ़वाल हिमालय मरणासन्न अवस्था में पहुंच गया है।
हमेशा से देश-विदेश के लोग हिमालय की ओर आकर्षित होते रहे हैं। कुछ धार्मिक प्रवृत्ति के चलते अपना कलुष धोने आते हैं तो कुछ लोग विशुद्ध पर्यटक के रूप में इसकी नैसर्गिक छटाओं का आनंद लेने आते हैं तो कुछ आत्मतत्व के संधान की कामना के साथ हिमालय में विचरते हैं। लेकिन हिमालय की व्यथा, उसकी पीड़ा और उसकी व्यवस्था को देखने-सुनने के लिये शायद ही कोई हिमालयी क्षेत्र का भ्रमण करता हो। इसके बहते ढ़ालों, कटतेे जंगलों, सूखते स्रोतों की चिन्तायें करने वाला आज कोई नहीं है। हिमालय की दिन -प्रतिदिन बिगड़ती सेहत के बारे में स्थानीय लोग हमेशा ही चेतावनी देते आये हैं लेकिन सत्ताधारियों की भौतिक लिप्सायें इस को अनसुना करती रही हैं जिसके कारण इस जून में हुये जलविस्फोट के गहरे घाव पूरे देश को सहने पड़े। यह क्षेत्र पिछले दो-तीन दशकों से अपने बीमार होने के संकेत देता रहा। पर इस जलप्रलय ने साबित कर दिया है कि गढ़वाल हिमालय अब मरणासन्न अवस्था में पहुंच गया है। इस वर्ष जिस तरह असमय ही चार धाम यात्रा का अवसान हुआ, वह समस्त देशवासियों के लिये चिन्ता और चिन्तन का विषय होना चाहिये। दरअसल हमें 1977 में तभी संभल जाना चाहिये था जब बेलाकूची की बाढ़ ने तबाही मचाई थी जिसके कारण सिंचाई विभाग को श्रीनगर गढ़वाल से हरिद्वार तक रेत उठाने के लिये करोड़ों रूपये खर्च करने पड़े थे। इस बाढ़ से लगभग चार हजार एकड़ भूमि का कटाव हुआ था फिर 16 अगस्त 1978 मेंउत्तरकाशी जिले के कनौलिया -गाड़ में भारी भूस्खलन से उत्तरकाशी शहर को काफी नुकसान पहुंचा था और लगभग तेरह हजार एकड़ भूमि का कटाव हुआ था। वर्ष 1980 में 26 जून को उत्तरकाशी के ज्ञानसू में बादल फटने से हुये भूस्खलन से 18 लोगों की मौत के अतिरिक्त संपत्ति और पशुधन का भी भारी नुकसान हुआ था। सन 1983 में असी नदी की बाढ़ से उत्तरकाशी की केनसू पहाड़ी में हजारों एकड़ जमीन व वन विभाग की ढ़ाई लाख पेड़ों की नर्सरी केलियागाड़ के समीप नष्ट हो गई थी। इसी तरह कुमाऊं मण्डल में भी तवाघाट, कूर्मीथाम व गरम पानी में भू-स्खलन से 150 व्यक्ति और पांच हजार एकड़ भूमि की हानि हुई। प्रकृति की इन चेतावनियों के बावजूद भी प्रदेश और देश का ध्यान हिमालय के उपचार की ओर नहीं गया और सरकारों ने यहां की वन-जल सम्पदा के निर्मम दोहन के लिये भूमि के ऊपर तो वनों का विनाश किया और बांधों के लिये जमीन के अन्दर सुरंगे खोद डालीं। भारी विस्फोटों के कारण सारे हिमालयी पहाड़, जो कि अभी निर्माणावस्था में हैं, हिल उठे हैं जिससे थोड़ी बारिस के दबाब को झेलने में भी पहाड़ असक्षम हो गये हैं। इसी कारण नब्बे के दशक से लेकर अब तक भू- स्खलनों की एक लम्बी शृंखला ने गढ़वाल हिमालय को अपनी चपेट में ले लिया है। कितनी बिडम्बना है कि एक ओर स्थानीय लोग इन बांधों का विरोध करते हुये अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने की जद्दो -जहद कर रहे थे तो दूसरी ओर हिमालय के इस सम्भाग में टिहरी जैसे भीमकाय          बांध का निर्माण कराया जा रहा था जिसके कारण एक बड़ी आबादी को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा। आज यही बांध उन क्षेत्रों के भू-धंसाव का कारण बन रहा है जो विस्थापन में सम्मिलत नहीं किये गये थे। जनपद टिहरी का प्रतापनगर क्षेत्र टिहरी डाम के कारण कालापानी जैसा हो गया है जहां आवागमनके सभी सुगम मार्ग बांध में समा गये हैं। पहाड़ के हिस्से में कितनी बिजली इस बांध से मिल रही है, यह सोचनीय है।
1990 के पश्चात गढ़वाल हिमालय पर प्रकृति के कहर की लम्बी सूची है। वर्ष 1991 में भयंकर भूकंप ने उत्तरकाशी में 1000 लोगों को लील लिया व हजारों मकान ध्वस्त हो गये, 1999 में चमोली जिले भूकंप से 110 लोग मारे गये, 1998 में तत्कालीन चमोली जिले में ऊखीमठ का मनसूना गांव जमींदोज हो गया और 69 लोग जिन्दा ही दफन हो गये, इसी वर्ष पिथौड़ागढ़ के मलापा क्षेत्र में 350 मानसरोवर यात्री भूस्खलन में दब गये, 2002 में टिहरी गढ़वाल के बूढा़केदार के समीप अंगुड़ा गांव भूस्खलन से पूरा तबाह हो गया जिसमें 28 लोग मारे गये थे, 2003 में उत्तरकाशी के वरूणावत पर्वत के खिसकने से उत्तरकाशी शहर में दर्जनो होटल व आवासीय भवन मिट्टी में मिल गये थे, 2010 में कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जिले के सुमगढ़ में भूस्खलन से एक स्कूल के दबने के कारण 22 बच्चों का दीप बुझ गया, 2012 में उत्तरकाशी जिले में असिगंगा व भागीरथी घाटी में बादल फटने से 39 लागों की मौत के साथ-साथ 600 करोड़ की सम्पत्ति बर्बाद हो गयी, 2012 में ही स्द्रप्रयाग जिले की ऊखीमठ तहसील में भूस्खलन से 76 लोगों की मौत व तीन गांवों का नामोनिशान मिट गया, और इस वर्ष केदारनाथ में जैसी त्रासदी हुई है कि पूरा देश स्तब्ध रह गया। आखिर प्रकृति से अनियंत्रित छेड़छाड़ और नदियों के स्वाभाविक बहाव को रोककर नदियों के तट पर बड़े-बड़े होटल, लाॅज और आवासीय भवनों के कारण ही इतनी तबाही हुई। यदि विगत वर्षों में प्रकृति की विनाशलीलाओं को समझ लिया जाता और हिमालय के उपचार की योजनाओं पर समय रहते काम कर लिया जाता तो निश्चित ही इतनी बड़ी जन-धन की हानि से बचा जा सकता था। लेकिन हिमालय वासियों के साथ सदा ही सौतेला व्यवहार होता रहा है। ब्रिटिशकाल में ही हिमालयी क्षेत्र को सस्ते मजदूर, बहादुर फौजी जवानों और टिम्बर की आपूर्ति का साधन समझा जाता रहा है। इस क्षेत्र के विकास की ओर मानवीय दृष्टिकोण का अभाव रहा है। यहां के वनों, नदियों तथा तराई पर सदा माफियाओं की नजर रही है फलस्वरूप मध्य हिमालय की तराई से लेकर असम के चाय बगानों और ऊपजाऊ जमीन पर गैर हिमालयवासियों का कब्जा है। हुक्मरानों के सौतेले व्यवहार के कारण पूर्वोत्तर हिमालय में आतंकवाद ने सिर उठाया हुआ है। विकास की साफ सुथरी नीति की जगह विनाशकारी नीति होने के कारण हिमालयवासी भीषण संकट में हैं। असम के चाय बगानों में अगर असम के लोग चाय की पत्ती बटोकर गुजारा कर रहे हैं तो हिमाचल और उत्तराखण्ड के लोग पर्यटकों का बोझा ढ़ोने को अभिशप्त हंै, कश्मीर भी इसका अपवाद नहीं है। केदारनाथ की त्रासदी में मारे गये अधिकांश स्थानीय बच्चे, युवा और अधेड,़ यात्रियों का बोझा ढ़ोने के लिये, घोड़े-खच्चर और कण्डियों के साथ केदार में थे या घाटी के रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, केदारनाथ के होटलों, ढ़ाबों में जूठन धोकर अपना भविष्य संवारने के लिये ही गये थे, जो कि प्रलय में समा गये। 
हिमालय प्राकृतिक प्रकोपों से ही ग्रसित नहीं है अपितु पड़ोसी देश चीन व पाकिस्तान की कुटिल चालों से सामरिक चिन्तायें भी झेल रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों का समाज आतंक व घुसपैठ आदि कारणो से बेचैन है तो हिमालय के अन्य हिस्से के लोग प्राकृतिक प्रकोपों व मौसम की प्रतिकूलताओं के फलस्वरूप आजीविका के सिमटते हुये संसाधनों की वजह से अपनी जड़ों से कटकर विस्थापित होने के लिये मजबूर हो रहे हैं। उनकी परम्परागत खेती, किसानी और पशुपालन आदि संकट की स्थिति में पहुंच गया है। देश के अन्य भागों में आम पहाड़ी को हेयदृष्टि से व उसके साथ दूसरी श्रेणी के नागरिक की तरह व्यवहार होता है। पूर्वोत्तर के हिमालयी प्रदेशों के जो छात्र-छात्रायें दिल्ली जैसे महानगरों मे पढ़ने आते हैं, उन्हें नस्ली भेदभाव सहना पड़ता है। घरेलु नौकरों, होटल कर्मियों, बोझा ढ़ोने वालों तथा चैकीदार के रूप में पहाड़ियों की पहचान बना दी गई है। इसलिये केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकारों ने हिमालय और हिमालय वासियों की व्यथा कथा पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। सरकार और देश का थोड़ा बहुत ध्यान 1962 के चीनी युद्ध के समय हिमालय की ओर गया पर फिर भुला दिया गया। जबकि हकीकत यह है कि देश को बचाने के लिये हिमालय की अस्मिता को बचाना ही होगा, हिमालय रहेगा तो देश भी रहेगा और सारे संसार को प्राणवायु मिलती रहेगी। यह दुःखद है कि हिमालयी क्षेत्र के 40 सांसदों ने कभी इकट्ठा होकर हिमालय की ज्वलंत समस्याओं के लिये लोकसभा में कोई हिमालयी फोरम खड़ा नहीं किया जिस कारण पहाड़ सदा उपेक्षित होते रहे। इसी क्लीवता के कारण हिमालय विकास प्राधिकरण का प्रस्ताव जो 1993 में एस. जेड. कासिम की अध्यक्षता में तैयार कर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को सौंपा गया था, फाइलों में धूल फांक रहा है। प्राधिकरण के लिये जो प्रारूप तैयार किया गया था, उसके अनुसार इसे प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित होना था, जो किसी भी मंत्रालय के आधीन होकर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, मानव संसाधन मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय तथा विज्ञान एवं तकनीकी विभागों के सहयोग से चलाया जाना प्रस्तावित किया गया था। इसमें प्रत्येक हिमालयी राज्यों के मुख्य सचिव, नामचीन वैज्ञानिक, पर्यावरणविद तथा सामाजिक क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों को सम्मिलित किया जाना था। लेकिन दुर्भाग्य है कि हिमालय के विकास की परिकल्पना पहाड़ी राज्यों की कमजोर राजनीतिक क्षमता के कारण परवान नहीं चढ़ पाई है। इसी कमजोरी के कारण पृथक राज्य बन जाने पर भी उत्तराखण्ड की भैगोलिक सीमा के भीतर पड़ने वाले बांधों और जलाशयों पर उत्तराखण्ड सरकार पूरा         अधिकार नहीं है। गंगा-यमुना तथा अन्य सदानीरा नदियों के मसलों को हल करने का अधिकार भी राज्य के पास नहीं है। इस मानसून में उत्तरायण की प्रलंयकारी त्रासदी जिसका दर्द पूरे देश ने झेला है, ने एक बार फिर हिमालय के विषय में चिन्तन का अवसर ला खड़ा किया है, क्या सत्ता में बैठे प्रभु लोग इस विषय में सोचेंगे?