हिंदी शब्दकोष की यात्रा

यह एक सर्वविदित तथ्य है की विश्व की प्राचीन से प्रचीनतम भाषा के लिखित स्वरूप में आने से पूर्व उसकामात्र मौखिक अस्तित्व ही विद्यमान था। पुरातन काल के इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति के विभिन्न चरणों का अध्ययन इंगित करता है कि प्राचीन परंपरायें, रीति, रिवाज, कथा-कहानियां गीत आदि वाचिक परंपरा द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानान्तरित होते रहे हैं।  किन्तु हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लिया कि वाचिक परंपरा केे माध्यम से संस्कृति व परंपरा की थाती को दीर्घकाल तक जीवंत रख पाना संभव न हो सकेगा।  उनकी इस आशंका ने ही भाषा के लिखित स्वरूप के उद्भव एवं विकास की  आधार शिला रखी होगी। अतः कहा जा सकता है कि वाचिक शब्दों को आकार, आकृति, संकेत, चिह्न एवं अंकन के माध्यम से निरूपित करने की आवश्यकता ने भाषा के लिखित स्वरूप को जन्म दिया होगा। फलतः देशकाल व भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न -भिन्न क्षेत्रों में विभिन्न लिपि-भाषाओं की विकास यात्रा प्रारंभ हो गई। शब्द भौतिक यात्रा करते अनवरत् चलते रहे, एक युग से दूसरे युग में प्रवेश करते रहे। शब्दों की यात्राओं कोअविरल गति प्रदान करने के लिये उन्हें प्रतीकों, चिह्नों के पहिये प्रदान कर लिखित भाषा में रूपान्तरित कर दिया गया।
वर्तमान में अनेक लिखित-मौखिक भाषा-बोलियां अपने मौलिक अथवा विकसित स्वरूप में विद्यमान हैं। इस विस्तृत भाषा संसार में हिन्दी भाषा कर उपस्थिति अनेक कारणों से उल्लेखनीय है। अपनी व्युत्पत्ति से लेकर वर्तमान स्वरूप तक की हिन्दी भाषा यात्रा अपने अन्दर गौरवशाली आर्य, संस्कृत, पाली, प्राकृतएवं अपभ्रंश भाषा के साथ-साथ वैविध्यपूर्ण लोकभाषा की बहुमूल्य विरासत समेटे उज्जवलता के साथ अपने विकास पथ पर अग्रसर है। प्राचीन भारतीय भाषाओं के पुरातन धर्मग्रन्थों या साहित्य में कहीं भी हिन्दी शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। भाषाविदों एवं साहित्यकारों ने शोधपरक अध्ययन के पश्चात यह सर्वमान्य तथ्य प्रस्तुत किया है कि फारस से भारत आये विदेशियों के भाषा कोष में संस्कृत के 'स' अक्षर की ध्वनि 'ह' होने के कारण उन्होंने सिन्ध को हिन्द उच्चारित किया। परिणामतः    सिन्ध हिन्द में और सिन्धी हिन्दी में रूपान्तरित हो गये। इस प्रकार हिन्द प्रदेश में रहने वाले हिन्दु तथा उनके द्वारा प्रयुक्त हाने वाली भाषा, हिन्दी रूप में स्थापित हो गई। समय के साथ-साथ यही हिन्दी अपने विकास यात्रा के अनेक पडा़वों से गुजरते हुये पुष्पित-पल्लवित होती गई। मूलतः आर्यों-द्रविड़ों के कोख से जन्मी हिन्दी वृहद भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाली लोक भाषाओं के शब्द- आभूषणों से अलंकृत होकर संवरती रही है। कालान्तर में हिन्दी भाषा का पृथक स्वरूप अस्तित्व में आया व अपनी वैज्ञानिकता व्यवहारिकता व विराटता के कारण भारत की सर्वव्यापी राष्ट्रभाषा बनने के योग्य हो गई।
विद्वानों के अनुसार 1000 ई0 तक गंगा की घाटी में प्रयाग-काशी तक प्रयुक्त होने वाली शैरसेनी, जो कि शूरसेन प्रदेश (मथुरा व आसपास) में प्रयुक्त की जाती थी और मगधी ने हिन्दी भाषा को प्रारम्भिक सुदृढ़ता प्रदान की। तत्पश्चात प्राकृत व अपभ्रंश की छाप लिये हिन्दी ने अपनी विकास यात्रा अविरल जारी रखी। अपभ्रंश के अन्तिम कालखण्ड में काव्य परंपरा के आधार पर हिन्दी की दो शाखाओं का जन्म हुआ। राजस्थान के नागर अपभ्रंश से जन्मी हिन्दी डिंगल, जो चारणों द्वारा ऊँची बोली में उच्चारित की जाने वाली कविता 'डीगागल' से उत्पन्न हुई तथा मध्यप्रदेश की साहित्यिक भाषा पिंगल, जो कि डिंगल की तुलना में ब्रजभाषा के समान धीमी गति से पढ़ी जाती थी। यह प्रारम्भिक काल जिसे वीरगाथा काल अथवा चारण या सिद्ध सामन्तकाल कहते हैं 943 से 1318 ई0 तक रहा। वस्तुतः मौलिक हिन्दी भाषा साहित्य का जन्म धार्मिक-लौकिक साहित्य के प्रमाण इस कालखण्ड से ही प्राप्त होते हैं। तत्पश्चात    मध्यकाल 1318 से 1843 एवं उत्तरकाल या रीतिकाल 1643 से 1843 के बाद आधुनिक काल तक की हिन्दी यात्रा अनेक पड़ावों से गुजरती आ रही है। प्रयोगों, अनुभवों, नवपरिष्कृत शब्दावलियों, अविष्कारों एवं अन्य भाषाओं के प्रयौगिक शब्दों को अंगीकार कर हिन्दी ने अपना शब्द कोश असीमित रूप से समृद्ध किया है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी भाषा की सुदृढ़ता व विशालता का आधार उसका समृद्ध शब्दकोश हुआ करता है, इस कसौटी पर हिन्दी विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा प्रमाणित होकर प्रकट होती है। इा पािप्रेक्ष्य में प्राचीन भारतीय वांग्मय निश्चित रूप से अतुलनीय कहा जा सकता है। जिस कालखण्ड में लैटिन, यूनानी, रोमन आदि अन्य वैदेशिक भाषायें अपनी शैशव अवस्था में थीं, भारतीय वांग्मय अपने चरमोत्कर्ष पर विराजित था। किसी वस्तु, पदार्थ, जीव, जन्तु-वनस्पति को निरूपित करने के लिये जहां अन्य भाषायें नवीन शब्द बना रही थीं, भारतीय भाषा संसार में एक ही शब्द के लिये अनेक पर्यायवाची उपलब्ध थे। उदाहरणतः- हिरण्य के लिये हेम, चन्द्रम कृशनम आदि पन्द्रह से अधिक वैकल्पिक शब्द उपलब्ध थे।  चूंकि हिन्दी भाषा के अधिकांश शब्दों का उद्गम संस्कृत कोश है अतः स्वाभाविक रूप से संस्कृत ने ही हिन्दी शब्द कोश को यह सम्पदा दी है। निघण्टु जैसा शब्दकोश, जिसके रचयिता यास्क थे, के 78 खण्डों में 1786 पदों को अंकित किया है। इसी प्रकार 550 ई0 में विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक अमर सिंह द्वारा की गई अमरकोश की रचना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस शब्दकोश में समानार्थी अथवा उनके पर्यायवाची शब्दों को एक समान वर्ग में सम्मिलित किया गया है।  इसमें पृथ्वी के इक्कीस, स्वर्ग के 12, अन्तरिक्ष के सोलह, नदी के सैंतीस, वाणी के सत्तावन शब्दों का उल्लेख है। इस शब्दकोश में कुल दस हजार शब्द हैं। प्राचीन भारतीय शब्दकोशों में मेदनीकर कृत मेदनीकोश में  5000 शब्उद संकलित हैं। इस शब्दकोश की विशेषता यह है कि इसमें शब्दों को अकारादि क्रम से व्यवस्थित किया गया है। यदि हम आधुनिक काल के शब्दकोशों पर दृष्टि डालें तो शिवदत्त मिश्र द्वारा रचित शिवकोश (1677) अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रतीत होता है।  इस कोश में 4860 शब्द तथा अनेक अर्थाें की व्याख्या करने वाले 4860 शब्दों का संग्रह है। यह शब्दकोश अपने आप में इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस संकलन में पूर्ववर्ती रचे गये शब्दकोशों की भूमिका, व्याख्या, सूची एवं अन्य प्रचीन ग्रन्ािों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी क्रम में 1140 ई0 पूर्व का अजयपाल कोश, दुर्गसिंह कृत महाक्षपणक अनेकार्थघ्वनिमंजरी, अमरंिसह कृत नामलिंगानु शासनम, अमरचन्द्र प्रथम का एकाक्षरनाममाला, त्रिकाण्डशेष, द्विरूपकोश एवं हरावलि के रचयिता पुरूषेत्तम देव के शब्दग्रन्थ, कालीदास द्वारा रचित रत्नकोश, रन्तिदेव द्वारा रचित शब्दकोश, रभसपाल का रभस,यादव भट्ट का वैजयन्ति, हलायुध भट्ट की अमिघान आदि।
हिन्दी शब्दकोशों के समृद्ध संसार में हिन्दी समानार्थी कोशों की रचनाओं ने भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। इास श्रृंखला में डिंगल नाममाला का नाम सर्वोपरि है। 1561 ई0 में हरि राज द्वारा रचित यह समानार्थी शब्दकोश सबसे प्राचीन माना जाता है। 1568 ई0 में नन्ददास ने नाममाला तथा अनेकार्थ दो कोश ग्रन्थों की रचना की थी। जहां तक हिन्दी के सबसे प्राचीन शब्दकोश कर सम्बन्ध है तो अमीर खुसरो कृत खलिक बारी हिन्दी का सर्वाधिक प्रमाणिक शब्दकोश माना जाता है। इसके अतिरिक्त 1688 ई0 में रचित अल्लाखुदाई शब्दकोश भी महत्वपूर्ण है। इन कोशों में हिन्दी- फारसी शब्दों के समनार्थियों का संकलन किया गया है। जैसे-
खरगोश खरहा वाशद आदू बुवद हिरना 
अंगस्तुरी अंगूठी, पैराया आभरन (खलिकबारी पंक्ति-99) 
दुश्मन बैरी, कूस दमामा वारा मेह
इश्क मुहब्बत, आशिक मित्र जानी (खलिकबारी पंक्ति 36-37)
हस्त गंधीव फार्सी अत्तार, इत्र सोध व तीली
अस्त असार, धुनिया दर लफ्ज, फर्सी नहाफ
माया पूंजी, नकीज जिद है खिलाफ (अल्लाखुदाई पंक्ति 147-48) 
इसी प्रकार 1835 ई0 में उदैराम कृत एकाक्षरी नाममाला जिसे कि 1957 में राजस्थानी शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित किया गया है में हमीर नाममाला में अर्जुन के पर्याय अरजुण नाम का उदाहरण उल्लेखनीय है।
धनंजय, अरिजन, जिसन, कपीधज, निराकार रूपी ब्रह्मनट।
पारथ सब्यसाची मधिपंडव सकनंदन विभच्छ सुभट।। 
गुड़ाकेश व्रखसेन फालगुण सुनर मोक वेधी सबद।
राधावेधा सुगत किरीटी महीसूरमरदा मरद।।
एक अन्य महत्वपूर्ण हिन्दी शब्दकोश (अचलरनंद जखमोला रचित) प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी परिषद प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस शब्दकोश में (1500 से 1800 में प्रकाशित) 82 कोशों का उल्लेख है। यहां पर प्राचीन भारतीय भाषा को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करने वाले विद्वान मोनियर विलियम्स का उल्लेख भी प्रासंगिक होगा। आपने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस से 1899 ई0 में संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश का प्रथम संस्करण प्रकाशित किया। इस शब्दकोश में एक लाख अस्सी हजार शब्द संकलित हैं। आपने भारतीय भाषा के   संम्बन्ध में संस्कृत, प्राचीन, पाली, अर्घमागधी, हिन्दी, मराठीका उल्लेख किया है। हिन्दी भाषा के उपरोक्त वर्णित शब्दकोशों के विवेचन से स्पष्ट होता है कि हिन्दी भाषा अपने उत्पत्तिकाल से ही प्रगति पथ पर अग्रसित है। हिन्दी भाषा की सरलता सुगम्यता ने इसकी व्यापकता में अपार वृद्धि की है।  अपनी सर्वग्राही लाक्षणता एवं व्यवहारिक श्रेष्ठता के कारण आज हिन्दी विश्व की अग्रणी भाषाओं की कतार में सम्मिलित है।  आज हिन्दी अपने आधुनिक रूप में अत्यन्त सुदृढ़ है। तो इसका कारण यह है कि इसने विभिन्न क्षेत्रीय, लोक एवं वैदेशिक भाषाओं के उपयोगी शब्दों को अंगीकार करने में संकोच नहीं किया है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि वर्तमान में अनेक भाषा-बोलियां समाप्ति के कगार पर हैं अथवा उनका संसार सिकुड़ता जा रहा है क्योंकि उनकी जटिलता, दुरूहता एवं आवश्यकतानुरूप अन्य भाषाओं के शब्दों को स्वीकार न करने की दृढ़ता के कारण वे जड़ता की जंजीर में जकड़कर निर्वासित हो गई हैं। इसके विपरीत हिन्दी भाषा संसार अन्य भाषा के शब्दों को अपने संदर्भों में अपनी प्रकृति के अनुरूप ढ़लने में, उन्हें आत्मसात करने में, उदारता दिखलाती है। यही कारण है कि आज हिन्दी में कई देशी-विदेशी भाषाओं के शब्द दिखाई देते हैं। हिन्दी बाहरी भाषाओं के शब्दों को अपनाका अपनी व्यापकता का परिचय दे रही है। इसके अतिरिक्त नित्य हो रहे नूतन अविष्कार एवं नवीन तकनीकी-प्रौद्योगिकी के आधुनिक रूप के नव संदर्भों में हिन्दी स्वयं को सफलतापूर्वक ढ़ालकर अपने लचीलपन के साथ दृढ़ता को भी प्रकट कर रही है। अतः विश्वास किया जा सकता है कि हिन्दी का यह प्रगतिवादी स्वरूप उसे विश्व पटल पर अक्षुण्ण बनाये रखने में पूर्ण रूप से सफल होगा।