हिन्दू जाति है , धर्म नहीं


संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भारत में रहने वाले सभी लागों को हिन्दु कहने का आग्रह मात्र किया था कि कांग्रेस सहित परजीवी बुद्धिमानों ने मीडिया में हाय-तौबा मचा दी। दिग्विजय सिंह ने तो संघ की तुलना तालिबान से कर डाली। लगता है कि या तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का चुनावी हार के कारण स्मृतिभ्रंस हो गया है या फिर वे भारत के इतिहास को पढ़े बिना ही मीडिया में अनर्गल वक्तव्य देते रहे हैं। सन् सैंतालिस में जिन लोगों ने अपने धार्मिक आग्रह के कारण देश का बंटवारा किया, वे धर्मनिरपेक्षिता के प्रतीक बना दिये गये हैं और सावरकर जैसे लोग जो धर्म को आधार बनाकर राष्ट्र को खंडित करने वालों का सदा विरोध करते थे, साम्प्रदायिक कहलाये गये...कुछ मुसलमानों ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान जाना उचित नहीं समझा और इस देश का ही अपना देश समझा, कांग्रेस पिछले साठ सालों से उन्हीं मुसलमानों को  हिन्दुओं के विरूद्ध एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर जिन्ना का अधूरा कार्य ही पूरा कर रही है।
जिस हिन्दु शब्द से भाई लागों को खुन्नस है, वह शब्द विदेशियों ने ही हमें दिया। हिन्दुओं ने तो स्वयं को कभी हिन्दु कहा ही नहीं...अब यह शोध का विषय है कि जिन लोगों ने हमारी पहचान हिन्दु के रूप में की, तो क्यों की और वे लोग कौन थे? और उनका हमें हिन्दु कहने का मन्तव्य क्या था? क्योंकि हिन्दु शब्द हमारे प्रचीन साहित्य में कहीं है ही नहीं...भारत में इसका पहला उल्लेख आठवीं सदी में लिखे गये एक तंत्र ग्रन्थ में मिलता है जहां इस शब्द का प्रयोग किसी धर्मावलम्बी के अर्थ में नहीं बल्कि एक गिरोह या जाति के अर्थ में किया गया है। इतिहासकार डा0 राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार इस हिन्दु शब्द का प्राचीनतम उल्लेख पारसियों के धर्मग्रन्थ अवेस्ता में और 522-486 ई0 पूर्व के डेरियस के शिलालेखों में मिलता है...दिग्विजय सिंह को शायद मालूम हो कि तब संघ की शाखायें नहीं चलती थीं...मुखर्जी कहते हैं कि हिन्दु शब्द विदेशी हैै, संस्कृत या पाली में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं हैै। 'संस्कृति के चार अध्याय' जिसे दिनकर ने लिखा था और जिस ग्रन्थ की भूमिका स्वयं नेहरू ने लिखी थी में स्पष्ट शब्दों में लिखा है-'इस शब्द का जो इतिहास है उसके अनुसार यह किसी धर्म का वाचक नहीं माना जा सकता बल्कि इसका अर्थ भारत का कोई भी निवासी हो सकता है।' और यही बात तो मोहन भागवत कह रहे हैं। यदि नेहरू और दिनकर सेकुलर थे तो संघ प्रमुख सांप्रदायिक कैसे हो गये?
वास्वविकता यह है कि मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया के लोगों के लिये भारत में प्रवेश का रास्ता केवल सिन्धु नदी से होकर ही था...सिन्धु के कारण ही ईरानी हमंे अपने उच्चारण के कारण हिन्दु कहने लगे और यूनानियों के लिये हम इण्डो या इण्डियन हो गये। मोहन भागवत ने इसी संदर्भ में जब हिन्दुओं के हाजमे की बात की तो निरक्षर कांग्रेसी फिर बिदक गये। वे कहने लगे कि संघ के लोग सब धर्मों को सूप बनाकर पी जाने वाले हैं...अब इसी बात को जरा एक विदेशी इतिहासकार स्मिथ के शब्दों में सुने-'इन विदेशी लोगों ने भी अपने पहले आने वाले शकों और युचियों के समान ही हिन्दु धर्म की पाचन शक्ति के सामने घुटने टेक दिये और हिन्दुत्व में विलीन हो गये।' हो सकता है कि विदेशी पत्रकार को संघ ने खरीदा हो तो जरा कांग्रेसियों के प्रपितामह श्री नेहरू के भारत के एक खोज के शब्द ही सुन लें तो शायद वे नेहरू को भी सांप्रदायिक न कह दें-'ईरानी और यूनानी लोग, पार्थियन और बैक्ट्रियन लोग, सीथियन और हूण लोग, मुसलमानों से पहले आने वाले तुर्क और ईसा की आरंभिक सदियों में आने वाले ईसाई, यहूदी और पारसी...ये सभी जो भारत में आये, समाज में हल्का कंपन हुआ पर अन्त में सब के सब इस भारतीय संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो गये। भागवत ने भी तो यही कहा कि हमारा हाजमा सभी संस्कृतियों से बेहतर है। अपनी भारत भक्ति से यूरोप को चैंकाने वाले  मैक्समूलर ने इस देश को हिन्दुस्थान ही कहा। उनके शब्दों में-'हम यूरोपीय लोगों के आन्तरिक जीवन को अधिक समृद्ध, अधिक पूर्ण और विश्वसनीय, अधिक मानवीय बनाने का नुस्खा यदि हमें किसी जाति के साहित्य में मिलेगा तो मेरी ऊँगली हिन्दुस्थान की ओर उठेगी।' अब मैक्समूलर तो संघी नहीं था भाई! कोई वाक्य क्या मात्र इसलिये तालिबानी हो जायेगा क्योंकि उसे संघ के किसी विचारक ने सामने रखा है...और भागवत जी का वक्तव्य कोई विचाार नहीं बल्कि इतिहास की सच्चाई है। इस देश में नीग्रो आये, औष्ट्रिक आये, मंगोल, यूनानी, युची, शक, हूण, आभीर, तुर्क आये...पर सभी अपने हिसाब से हमारी चातुर्वण्य व्यवस्था में अपने स्वभाव के हिसाब से पच-खप गये और हिन्दु संस्कृति के एक नया रूप सामने आया। हिन्दु बाले तो...सिन्धु के इस पार रहने वाले हम सभी, और कांग्रेस का सेकुलर वोट बैंक भी...जिन्हें इतिहास का ज्ञान नहीं है वह स्वयं को हिन्दु कहने में हिचकिचाता है...भारतीय शब्द तो विशुद्ध सनातनी शब्द है, वह कांग्रेसियों को मंजूर है, हिन्दु कहने पर उनको पित्त उभरते हैं...उेढ़ सौ साल की कांग्रेस अभी भी परिपक्व नहीं हुई है।