राजराजेश्वरी मंदिर: देवलगढ़

देवलगढ़ धार्मिक,ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का समृद्ध गढ़ है।इस स्थान पर  प्रसिद्ध श्री  राजराजेश्वरी मंदिर के साथ ही श्री सत्यनाथ भैरव स्थान,श्री गौरा देवी मंदिर,श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर,श्री मुरली मनोहर मंदिर स्थित हैं।  सोम का मांडा मठ-मंदिरों के मध्य आकर्षक स्मारक है।


जनपद मुख्यालय पौड़ी से 48 किलोमीटर उत्तर-पूर्व,श्रीनगर गढ़वाल से18 किलोमीटर पूरब एवं जनपद विकासखण्ड खिर्सू से लगभग 25 किलोमीटर दक्षिण में यह स्थान मोटर मार्ग से जुड़ा हुआ है।पँवार वंशज राजा अजयपाल ,जिनका शासन सन 1500 ई. से 1519 ई.तक इस क्षेत्र में रहा।उनके द्वारा सन 1512 ई.में राजधानी चाँदपुरगढ़ी (आदिबदरी के निकट) से हटाकर देवलगढ़ में बसाई गई।राजा अजयपाल के द्वारा ही यहाँ पर श्री सत्यनाथ-भैरब और श्री राजराजेश्वरी यंत्र की स्थापना की गई।देवलगढ़ में ही "नाथ सम्प्रदाय" के प्रसिद्द "सत्यनाथ" की गद्दी भी इसी स्थान पर अवस्थित है।प्राचीन समय में यह स्थान नाथ पंथी योगियों का प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता था।यहाँ पर नाथ पंथी महन्तों की अनेक समाधियाँ निर्मित हैं जिनमें मुख्य समाधि "सत्यनाथ" की है।

देवलगढ़ में स्थित श्री राजराजेश्वरी शक्तिपीठ की गणना जागृत सिद्धपीठों में की जाती है।शक्ति की दस महाविद्याओं (श्रीकाली,तारा,छिन्नमस्ता,षोडशी,भुवनेश्वरी,त्रिपुरभैरवी,धूमावती,बगलामुखी,मातंगी,कमला)में षोडशी को श्री विद्या भी माना जाता है।इनके ही ललिता,राजराजेश्वरी,महात्रिपुरसुन्दरी,बालापंचदशी आदि अनेक नाम हैं।

ज्ञातव्य है ,जिस स्थान पर श्री राजराजेश्वरी पीठ वर्तमान में स्थित है उस स्थान पर श्री राजराजेश्वरी,श्री महिषमर्दिनी,श्री बालात्रिपुरसुन्दरी,श्री बद्रीनाथ,श्री केदारनाथ के पाँच छोटे-छोटे मंदिर प्राचीन समय में स्थित थे।सन 1506 ई.के आसपास राजा अजयपाल ने अपनी राजधानी चाँदपुरगढ़ से परिवर्तित कर देवलगढ़ में स्थापित की और इस स्थान पर क्षतिग्रस्त हो रहे मंदिरों के पत्थरों से एक तिमंजिला भवननुमा मंदिर स्थापित कर समस्त देवी-देवताओं की स्थापना इसी महल में करवा दी।एक अन्य जानकारी यह भी मिलती है कि राजा अजयपाल ने यह तिमंजिला भवन अपने आवास के लिए बनाया ।इसी के एक हिस्से में अपनी आराध्यदेवी श्री राजराजेश्वरी की स्थापना उन्होंने की। बाद में जब राजा ने अपनी राजधानी देवलगढ़ से श्रीनगर स्थानान्तरित की तो यह पूरा भवन मंदिर के लिए प्रदान कर दिया।कलाकारीयुक्त वातायन इस भवन में प्रवेश करते हुए आज भी दर्शनीय है।

इस स्थान पर मूर्तियों के साथ-साथ प्राचीन सिद्धयंत्रों की स्थापना आज भी यथावत है।मुख्य गर्भगृह में  भगवती श्री राजराजेश्वरी,श्री महिषमर्दिनी,श्री बालात्रिपुरसुंदरी आदि की विभिन्न मूर्तियाँ अपने-अपने सिद्धयंत्रों के साथ स्थापित हैं।

इस स्थान पर प्राचीन समय से यंत्र प्रधान पूजा की परंपरा रही है जो अभी भी यथावत है।यंत्रों को केंद्र में रखते हुए तांत्रिक व सात्विक पूजा यहाँ की जाती है।श्रीयंत्र को माँ राजराजेश्वरी का प्राण माना गया है इसलिए श्रीयंत्र की ही मुख्य रूप से पूजा-अर्चना का प्रचलन प्राचीन हिन्दू नरेश एवं संबंधित जातियों  जिनमें क्षत्रिय के अंतर्गत पँवार,परमार,भंडारी,बिष्ट,रौतेला,रौथाण,रावत एवं ब्राह्मण के अंतर्गत उनियाल,डोभाल,डंगवाल,जुयाल,खंडूड़ी,सकलानी,रतूड़ी आदि श्री विद्या (श्रीयंत्र राजराजेश्वरी )के उपासक रहे हैं एवं कुलदेवी के रूप में पूजा-अर्चना करते रहे हैं।कालांतर में  अष्टभुजी दुर्गा,बजरंगबली,लिंग रूप में शिव,बगुलामुखी यंत्र आदि की स्थापना भक्तों द्वारा भी यहाँ की गई।नित्य हवन एवं अखंड ज्योति की परंपरा मंदिर में आज भी यथावत है।

 

मंदिर के इतिहास,  पूजा पद्दति एवं भोग परंपरा के विषय में श्री राजेश्वरी मंदिर ,देवलगढ़ के पुजारी  श्री कुंजिका प्रसाद उनियाल जानकारी देते हैं- 

"माँ श्रीराजराजेश्वरी सिद्धपीठ में महाराज अजेयपाल के जमाने से उन्नत श्रीयंत्र के साथ- साथ श्रीमहिषमर्दनी यंत्र ,श्री कामेश्वरी (श्री कामाख्या)यंत्र और श्री बटुक भैरब नाथ जी की स्थापना है।प्राचीन समय से गढ़वाल नरेशों और उनसे जुड़े ठाकुरों और ब्राह्मणों की कुलदेवी के रूप में बताई जाने वाली  श्रीराजराजेश्वरी  जी के साथ साथ श्री  बटुकभैरबनाथ ,श्री नरसिंह महाराज और श्री नागराजा महाराज कुलदेवता कहे या माने जाते हैं।श्रीराजराजेश्वरी यंत्र या श्रीयंत्र को तंत्र शास्त्रों और वेदों में यंत्रराज कहा गया है जिसमें सकल ब्रह्माण्ड,सकल भुवनो,सकल पदार्थों,सकल तलों, समस्त देव ,समस्त चराचर प्राणियों आदि की कल्पना की गई है।इसीलिए श्री यंत्र को यंत्रराज कहा गया है ।जब हम श्रीविद्या ,षोढ़षी,तृतीय महाविद्या,महात्रिपुरसुंदरी,बालात्रिपुरसुंदरी,कामेशी,ललिता,त्रिभुवनेश्वरी,त्रिपुरमालिनी,त्रिपुरभैरबी,श्रीराजराजेश्वरी आदि नामों से पुकारे जाने वाली मां जगदम्बे के भोग की बात करते  हैं  तो मन में सकल ब्रह्माण्ड में पाये जाने वाले भोज्य पदार्थों की याद करते है किंतु भौतिक रूप से हम सभी भोज्य वस्तुओं और पदार्थों को चढ़ाने में असमर्थ होने पर उपलब्ध भोज्यऔर पदार्थ ही चढ़ा पाते हैं ।हां मानसिक और काल्पनिक रूप से चढ़ाने की परम्परागत जानकारी भी  कहीं कही मिलती है जैसे  सिद्ध,साधु और तपस्वी करते बताये जाते हैं।

   प्राचीन समय में तामसिक/राजसिक और सात्विक  सभी प्रकार से देवी पूजा का विधान प्राचीन तंत्र शास्त्रो और उपासना पद्धतियों में   जानने को मिलता है।राजसिक पूजा केवल राजा या उनके खानदान एक सौ आठ भोग के साथ पूजा करते थे,जवकि सामान्य लोग तामसिक पूजा सामान्य भोग के साथ करवाने की परम्परागत जानकारी मिलती है ।कहीं कहीं चौसठ भोग तो कहीं सोलह कलाओं से युक्त मां भगवती की कल्पना कर सोलह प्रकार के भोग लगाने की जानकारी मिली है।तामसिक पूजा में 'पञ्चमकार' पूजा का उल्लेख भी पाया जाता है।

अब पीठ में कुलदेवताओं श्री बटुकभैरब,श्री नरसिंह ,श्री नागराजा महाराज को रोट,हलुआ,पूरी ,पकोड़ी,फल,दूध,घी,शहद,मेवा,मिष्ठान आदि तथा मां श्री भगवती जी को दुनाली रोटी घी के साथ पका कर,गुलगुले,हलुआ ,पूरी,पकोड़ी ,दूध ,घी,पञ्चफल,पञ्चमेवा,पञ्च मिठाई आदि ही विशेष अवसरों पर भोग लगाये जाते हैं।इस पीठ में प्रत्येक रविवार को कुलदेवताओं को आटा गुड़ से बना रोट ,प्रसाद,और मां श्री जी को दुनालीरोटी दूध और आटे गुड़ से बना बाड़ी चढ़ाया जाता है। दैनिक में गाय का शुद्ध दूध और जो पकायें, वह भोग लगाया जाता है चाहे रोटी सब्जी हो या दाल- भात।कभी कभी खीर या गुड़ से बना मीठा भात का भोग लगाया जाता है ।खास बात यह है कि हवन कुण्ड  मे स्वाहा करते हुए भोग लगाने की परम्परा का यथाशक्ति पालन किया जा रहा है ।आजकल नई पीढ़ी के लोग लैंची दाना और नारियल को ही प्रसाद मान बैठे हैं।उनके लिए यह संदेश देना चाहता हूँ कि अपने घर से शुचिता के साथ बना हुआ भोग सर्वोत्तम,अगर ऐसा न हो तो गुड़ की भेली या गेंदाड़ा और फल चढ़ायें वह बाजार से लाये  लैंची दाने से बेहतर है।पूर्व से पेकिंग   प्रसाद  की   शुुध्दता  की  कोई  गारंटी नही।" किन किन की कुलदेवी कही जाती हैं भगवती श्रीराजराजेश्वरी जी ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री कुंजिका प्रसाद उनियाल जी जानकारी देते हैं -


"पूर्व गढ़वाल नरेशों और राजखानदान से सम्बन्धित उन लोगों की जिनकी कुलदेवी श्रीराजराजेश्वरी जी कही जाती हैं।दरअसल वेद और शक्ति तंत्र शास्त्रों में दश महाविद्याओं काली,तारा,षोढ़षी,भैरबी,भुवनेश्वरी,मातंगी,धूमावती,बगलामुखी,छिन्नमस्त्वका और कमला में तृतीय महाविद्या षोढ़षी (श्री विद्या या श्रीराजराजेश्वरी)को ऐश्वर्य,योग और मोक्ष प्रदात्री के रूप में बताया गया है ।महाराज कुवेर ने महामाया आदि शक्ति की उपासना के फलस्वरूप येश्वर्य,योग और मोक्ष का वरदान पाकर मां श्री जी को राजराजेश्वरी नाम दिया था,ऐसा बताया जाता है ।सनातनी हिन्दू राजाओं को ऐश्वर्य ,योग और मोक्ष की कामना के चलते ही प्राचीन समय के राजाओं और राजखानदान से जुड़े लोगों ने श्रीराजराजेश्वरी जी को अपनी कुलदेवी के रूप में स्वीकार किया,ऐसी हमें परम्परागत जानकारी में बताया गया है ।फलस्वरूप उत्तराखण्ड में पंवार,परमार,भण्डारी,कण्डारी,रावत,रौतेला,कुंवर,बिष्ट, राणा,नेगी,चौहान,बर्तवाल,बुटौला,धनाईँ  ,असवाल,रौथाण,कठैत ,गुसांई ,ठाकुर,सुनार आदि ठाकुरो के साथ साथ उनियाल,नौटियाल,डोभाल,खण्डूड़ी, जोशी,रतूड़ी,सकलानी आदि ब्राह्मणों की राजराजेश्वरी कुलदेवी बताई गई  हैं ।

 डंगवाल व्राह्मणों की कुलदेवी श्रीमहिषमर्दनी कही जाती हैं किंतु  देवलगढ़ श्रीराजराजेश्वरी पीठ में इनका उनियाल ब्राह्मणों के साथ साथ आसन लगता था जहां पर राजराजेश्वरी के साथ महिषमर्दनी की  प्राचीन स्थापना है, ये लोग भी श्रीविद्या उपासक  थे इसलिए कुछ डंगवाल ब्राह्मण श्रीराजराजेश्वरी (श्री विद्या)को अपनी कुलदेवी बताते हैं।इसी प्रकार बहुगुणा व्राह्मणों की कुलदेवी श्री गाौरा देवी बताई जाती है,किंतु देवलगढ़ श्रीराजराजेश्वरी पीठ में पोखरी के बहुगुणा परिवारों को विशेष पूजा अवसरों पर कोठे में या बाहर परिसर के चक्र पठाल में आटे,चावल,पिठांई,हल्दी,और विभिन्न रंगों से "श्री यंत्र बनाने और उसकी पूजा का अधिकार था इतना ही नहीं राजपरिवार की ओर से उन्हें अलग से भेंट,दान दिए.जाने की परम्परा थी और ये परिवार भी श्रीविद्या के उपासक बताये गये हैं। फिर पोखरी के बहुगुणा ज्योतिष और तंत्र के प्रकाण्ड विद्वान होने के कारण  ही राजाश्रय प्राप्त थे।इसलिए पोखरी  के बहुगुणा ब्राह्मणों की कुलदेवी भी श्रीविद्या (श्रीराजराजेश्वरी )बताई जाती हैं।यहीं से पुराने जमाने में.एक परिवार टकोली और एक परिवार नंदप्रयाग चमोली में बस जाने की जानकारी भी मिली है ।

  इसी प्रकार प्राचीन राज परिवार से जुड़े रुडौला तांत्रिक भी श्री विद्या उपासक थे, ऐसी.जानकारी मिलती है।    जुयाल ब्राह्मणो की कुलदेवी श्रीभुवनेश्वरी जी हैं किंतु 'टिहरी राज दरबार से जुड़े जुयाल परिवारों की कुलदेवी श्रीविद्या(श्रीराजराजे२वरी )जी बताई जाती हैं।कुमाऊं में पञ्चदशाक्षरी विद्या को नंदा देवी राजराजेश्वरी कहा जाता है जबकि तंत्रशास्त्रों में राजराजेश्वरी को षोढ़षाक्षरी विद्या भी कहा गया है।अर्थात पन्द्रह वर्ष की पञ्चदशाक्षरी ही सोलह साल की होने पर षोढ़षाक्षरी श्रीराजराजेश्वरी मानी जाती है।इसी कारण जागरों में थपलियाल,डिमरी,गैरोला आदि की भी कुलदेवी श्रीराजराजेश्वरी कही गई हैं।इसी प्रकार कुकरेती

पंडितों की कुल देवी  श्री झालीमाली या दक्षिण कालिका बताई जाती हैं किंतु कुछ कुकरेती परिवार अपनी कुलदेवी श्रीबाला|त्रिपुरासुंदरी जिसका दूसरा नाम राजराजेश्वरी है को अपनी कुलदेवी और भैरबनाथ को अपना कुलदेवता बताते हैं। बड़थ्वाल ब्राह्मण भी राजराजे२वरी कोअपनी कुलदेवी बताते है। कुल परम्परा के इतिहास की ओर जानकारी हासिल करने जब मैं लगभग 20,22 साल पहले ओणी गांव गया तो और गांव के सबसे बुजुर्ग स्व० श्री संगूदास जी से कहा कि चाचा जी !आप लोग कभी राजराजे२वरी के साथ उनियाल खानदान के जागर लगाते थे तो उनकी आंखों में आंसू आ गये ।गीली आखों से बोले श्री संगू दास जी, बेटा !आज तक किसी ने यह प्रश्न नहीं पूछा।तुमने पुरानी याद दिलादी।बेटा ! राजराजेश्वरी जी उनियाल आदि व्राह्मणों और ठाकुरों के साथ साथ राजखानदान से जुड़े औजी,तेली,बढ़ई,मिस्त्री ,लोहार आदि की भी कुलदेवी हैं इस नाते हम राजराजे२वरी के साथ उनके पुजारियों के बृत गाते थे । (यहां हम यह भी अवगत करायें कि पूर्व गढवाल में महिषमर्दनी भगवती को गढ़देवी भी बताया जाता  है ।यह स्वरूप गढ़वाल के छोटे छोटे गढ़ों की कुलदेवी आराध्य देवी के स्वरूप में पूजित रही किंतु जब विजेताओं ने इन छोटे छोटे गढ़ों को विजित कर दिया तो अधीन हुए लोगों ने विजेता राजा और उसके परिवार की कुल परम्परा को अपनाते हुए उनके कुल देवता ही अपने कुल देवता मान लिये)  अब लोग परम्परा भूलते जा रहे हैं।श्रीसंगूदास जी की बात को हम सत्य मानते हैं। और जातियों  की बात करें तो कोटियाल,कोठियाल,टिहरी जिले   ममगांई,भट्ट,कनस्वाल,विजल्वाण,लखेड़ा,सेमवाल, आदि व्राह्मण,चमोली के थपलियाल,डिमरी भी राजराजे२वरी को अपनी कुल देवी कहते हैं ।

   आदि शंकराचार्य से सभी शंकराचार्य,योगी,सन्यासी,साधु सिद्धो,बारहपंथी योगियों की भी श्रीविद्या श्रीराजराजेश्वरी कुल देवी कही जाती हैं। दरअसल जब हम कुल परम्परा की बात करते हैं तो पता चलता है कि प्राचीन काल में आदि मानव जाति प्रकृति प्रेमी थे यही जीव और जीवन का आधार था।फलस्वरूप प्रकृति को जीवन दायिनी मां.स्वरूप में पूजा जाने लगा होगा ।कालान्तर में विकास के अनेक सोपान पार करते हुए मानव ने माना प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही जीवन की कल्पना है।फलस्वरूप  प्रकृति और पुरुष अलग अलग स्वरूपों की पूजा उपासना का चलन हुआ।यही कारण मानते हुए.हम कह सकते है कि पूजा,उपासना,साधना में कई मत मतान्तर हुए।जिनको जिस देवी या देवता स्वरूप में सिद्धि या सफलता मिली उसने उस देवता या देवी को अपना कुलदेवता या कुल देवी मान लिया।

   गढ़वाल और कुमाऊं भाग में जो पुराने.देवता थे विजेता शासकों और उनके अनुयायियों ने उन्हें भी स्वीकार करते हुए आराध्य देव मान लिया किंतु तत्कालीन अधिकांश लोगों ने 

राज्यखानदान की धार्मिक  परम्परा को अंगीकार कर लिया जो बाद में कुल परम्परा के रूप में  स्थापित हो गई ,ऐसा

हमारा मत है।(उक्त विवरण अपने अध्ययन,अपने पूर्वजों से सुनी जानका'रियों और सिद्धपीठ में पधारे भक्तों से मिली जानकारी के आधार पर बताया गया है।)"

    तंत्र साधना में देवी काली ,अष्ट भैरवी,नौ दुर्गा,दस महाविद्या,64 योगिनी आदि देवियों की साधना की जाती है। उल्लेख मिलता है कि तंत्र,मंत्र और यंत्र  में 'तंत्र' को सबसे प्रभावी रूप से रखा गया है।हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसका प्रचलन रहा।साधारणतया तंत्र का अर्थ तन से ,मंत्र का मन से और यंत्र का किसी मशीन या वस्तु से होता है।तंत्र का दूसरा अर्थ व्यवस्था से भी है।तंत्र मानता है कि हम शरीर में हैं,यह एक वास्तविकता है।भौतिक शरीर ही हमारे सभी कार्यों का केंद्र है।अतः हर प्रकार से इसे स्वस्थ-सानंद रखना व अपनी क्षमता को बढ़ाना आवश्यक है।यह शरीर ही अध्यात्म प्राप्ति का भी मार्ग है।तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है ।इसके लिए ही अंतर्मुखी होकर साधनायें की जाती रही हैं।'पंचमकार' पूजा का भी इस सिद्ध क्षेत्र में प्रचलन रहा।वस्तुतः पंचमकार  ( वाम मार्ग के अनुसार मद्य,मांस,मत्स्य,मुद्रा और मैथुन ये पंचमकार कहे गए )मूलतः मानसिक वृत्तियों के संकेतात्मक प्रतीक थे।शब्द का वही अर्थ निकाले जाने के कारण भ्रम से यह विकृत हो गए।यहाँ तक भी कहा जाता है कि तंत्रों के अपयश का मुख्य कारण भी ये स्थूल पंचमकार ही रहे जिसके शाब्दिक अर्थ में  जाते हुए संकेतात्मक अर्थों/व्याख्या से अधिकतर लोग परिचित नहीं हो पाए या सनातन धर्म को गलत तरीके से प्रचारित करने के लिए तत्कालीन कुछ लोगों द्वारा यह अपयश फैलाया गया।तांत्रिक साधना के साधारणतया तीन मार्ग कहे गए-वाम मार्ग,दक्षिण मार्ग,मध्यम मार्ग।वाम मार्गी  तंत्र साधना को बेहद कठिन बताया गया जिसके छः प्रकार के कर्म (षट कर्म) बताए गए।तंत्र शास्त्र के मंत्र एवं पूजा अलग प्रकार के होते हैं।


 

 श्री कुंजिकाप्रसाद उनियाल जो स्वयं श्री देवी  माँ के अनन्य   उपासक,पुजारी एवं तंत्र,मंत्र,यंत्र के ज्ञाता रहे हैं ,तथा मंदिर में नित्य पूजा- हवन आदि करते रहे हैं,जानकारी देते हैं -"तांत्रिक सिद्धों मे ओणी गांव से उनियाल वंश के  सर्व प्रथम तांत्रिक पं० जयानंद ओझा,पं० विजयानंद झा जो दरभंगा मिथिला बिहार से आकर बसे और ओणी गांव में बसने से उन्याल ( उनियाल) कहलाये।पं मोतीराम उनियाल,प ० जयराम उनियाल ,ओणी से टिहरी गढ़वाल में बसे ।पं०लालमणि उनियाल,बरसोली के पं० औगड़ानंद उनियाल,अमाल्डू डबरालस्यूं के पं० जयराम उनियाल के नाम उल्लेखनीय रहे हैं।राजराजेश्वरी पीठ में प्राचीन समय में भगवती महिषमर्दनी की तांत्रिक उपापना  डंगवाल ब्राह्मण करते थे।फलस्वरूप इनको अनेक तांत्रिक और ज्योतिषीय सिद्वियां प्राप्त हुई बताई जाती हैं इनमें पं०चक्रपाणि,पं०श्रुतिधर,पं०कीर्तिधर,पं०निधिधर,पं०महिधर,पं०रोहिणीधर,पं०मेदिनीधर का नाम आदर से लिया जाता है।"

 

तंत्र के प्रथम उपदेशक भगवान शंकर और उनके बाद भगवान दत्तात्रेय हुए हैं।कालांतर में सिद्ध,योगी,शाक्त और नाथ परंपरा का इनमें प्रचलन रहा।इनके अलावा नारद,परशुराम,पिप्लादि,वशिष्ठ,सनतकुमार,भैरव,भैरवी,काली आदि कई ऋषि-मुनि इस साधना के उपासक रहे।तंत्र में बहुत सारी विद्याएं आती हैं।तंत्र से ही सम्मोहन,त्राटक,त्रिकाल,इंद्रजाल,परा,अपरा और प्राण विद्या का जन्म हुआ है।तंत्र से  वशीकरण,मोहन,विद्वेषण,उच्चाटन और स्तंभन क्रियाएं भी की जाती हैं। तंत्र के माध्यम से ही प्राचीन काल में पाशुपतास्त्र,नागपाश,ब्रह्मास्त्र आदि निर्मित किये गए। इतनी प्रभावी विद्या यह आज विशिष्ट साधु-संतों के अलावा  विलुप्त सी हो गई है इसके पीछे यह जानकारी मिलती है कि तंत्र साधना पूर्व से ही किसी साधक के ही दिशा-निर्देश में की जाती    रही है।जिसका उद्देश्य इस साधना के माध्यम से किसी का अहित करना है तब इसके परिणाम उल्टे भी हो जाते हैं।सही उद्देश्यों-संकल्पों के साथ यह तंत्र साधना उपयोगी रही है और  इनके साथ मंत्र,तंत्र,हवन आदि ईश्वर /शक्ति की समीपता के कारक रहे हैं।

उनियाल वंशजों में तंत्र-मंत्र विद्या के अच्छे ज्ञाता लोग भी रहे हैं।

देवलगढ़ पहुँचने वाले श्रद्धालुजन अधिकांशतः प्रातः श्रीनगर गढ़वाल से देवलगढ़ (18 किलोमीटर) पहुँचते हैं और पूजा अर्चना के उपरांत अपने-अपने स्थानों के लिए निकल जाते हैं।मंदिर परिसर में ही धर्मशाला आदि भी ठहरने के लिए उपलब्ध हैं।रात्रि हवन की इच्छा से आये भक्त यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं। मान्यतानुसार इस स्थान पर अमावस्या,अष्टमी,चतुर्दशी,पूर्णमासी को कराया गया हवन विशेष फलदायी होता है।चैत्र व आश्विन नवरात्रों में दिन व रात दोनों समय हवन होते हैं।

श्री जयराम उनियाल (पुत्र श्री अनन्त राम उनियाल)ग्राम ओणि के निधन के उपरान्त  उनके पुत्र श्री कुंजिका प्रसाद उनियाल और वर्तमान में उनके पुत्र श्री शक्ति प्रसाद उनियाल 'मनोज'  इस  शक्तिपीठ में परंपरागत पूजा-अर्चना से जुड़े हुए हैं।

निकटस्थ स्थल : देवलगढ़  क्षेत्र परिसर में ही पुरातन एवं भव्य श्री गौरा मंदिर की स्थापना है।पुरातात्विक महत्व की  श्री महिषासुरमर्दिनी की प्रतिष्ठा मंदिर गर्भगृह में की गई है। शिलाखंडों से निर्मित श्री गौरादेवी सिद्धपीठ में  विषुवत संक्रांति( बैसाखी )को भव्य मेला आयोजित होता है ।सर्व आराध्या श्री  गौरा देवी सुमाड़ी के काला व बुधानी के बहुगुणा वंशजों की कुल देवी के रूप में भी पूजित है।जानकारी मिलती है ,एतिहासिक पुरुष  रामविलोचन काला ने गौरा देवी की प्राचीन मूर्ति को सर्वप्रथम गौरा मंदिर सुमाड़ी गाँव में प्रतिष्ठित किया ।कालांतर में वे इस मूर्ति को देवलगढ़ ले आये  और गौरा देवी मंदिर में इसकी प्रतिष्ठा की। श्री गौरा देवी एवं श्री सत्यनाथ के निकट में ही  श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर की स्थिति है।परिसर में ही मुरली मनोहर मंदिर,सोम का मांडा एवं दूरस्थ भैरव गुफा,सुरंगें और समाधियाँ,दत्तात्रेय मंदिर आदि दर्शनीय एवं ऐतिहासिक  स्थल हैं।