चित को चित्त करता चैत

 




गंगा के जलपृष्ठों पर हमारे समस्त वांग्मय और स्मृतियों का मुद्रण अनादि काल से चला आ रहा है। नदियाँ 
हमारी जलपोथियाँ हैं...इसीलिए कोई त्योहार हो या बसंत जैसी मादक ऋतु का आगमन, हमारा लोकमानस गंगा में डुबकी लगाकर उस आप्त ज्ञान की जलतरंगों को सुनने इन घाटों पर आता है, ऋतुओं के विग्रह देखने का 'गुर' सीखने आता है...नदियाँ हमारी संस्कृति की बीजाक्षर हैं...हमारे आर्षज्ञान की जीवंत पोथियाँ हैं, हमारी परंपराओं और उत्सवधर्मिता की सहभागी हैं...लोकज्ञान को घाट-घाट पहुँचाने वाली मां नदी हमारी सनातन गुरु है...संभवतः यही कारण है कि बसंत की सूचना का पर्व बसंत-पंचमी नदी स्नान से आरम्भ होता है/बचपन से देवप्रयाग में बसंत-पंचमी पर पहाड़ से उतर कर नदी की देह पर नहाते ग्रामीण इन्द्रधनुष को देखता रहा हूँ...देवप्रयाग के संगम पर पाजेब की छमाछम वाणी से अलंकृत पिण्डलियों के दोलन से गंगा की पवित्राता भी मादक होने लगती है। उत्तेजक कोणों पर आकार लेता हुआ यह पौराणिक जल बसंत-पंचमी को उस भक्ति तन्त्रा से ही विद्रोह कर बैठता है, जो वर्षों से संसारियों को देह के अन्दर की बातें बताता रहा है। रति के देहशिल्प से चकित काम का प्रतिनिधि यह रस, यह बूढ़ा पानी तक पारे की तरह थरथराने लगता है। षोडशियों के रंग-बिरंगे परिधान और निष्कलंक देह की उन्मुक्तता को छूकर यह घाघ जल भी जलने लगता है। भक्ति का ढोंग करता यह बगुला-बसंत इस जलाभिषेक से ही तरल होकर रोम-रोम में आग भरने पहुँच जाता है। यौवन की भांग जलतरंगों में घुलकर जल दृष्टान्तों की मति भी बिगाड़ती है। पलाश को लोगों ने ऐसे ही बदनाम किया है,...काम की यह आग तो जल से उठकर ही जंगल में पैफलती है। जिस समय कवियों को दग्ध करता बसंत गर्भ में अभी औंधा ही लेटा होता है, उससे बहुत पहले ही वह भेष बदलकर घाट-घाट का पानी पी चुका होता है...बसंत के घोडे़ की पीठ पर शिव ही बैठ सकते थे। इसीलिए घाटों पर बसंत-पंचमी के सूचना-पट तोड़कर जंगलों की सौम्यता में बेचैनी भरने वाले बसंत के इस अश्व को, इस 'काम' को सबसे पहले महायोगी शिव ने ही पाठ पढ़ाया था।
काम को घमंड होना ही था...वह वैदिक काल में प्रतिष्ठित देवता था...पफागुन-चैत को मनाये जाने वाले सुवसंतक त्योहार जो कि बाद में मदनोत्सव कहा जाने लगा, में काम को ही पूजा जाता था। अशोक वृक्ष के नीचे चावलों से भरा कलश स्थापित कर पफलों और ईख का रस नैवेद्य के रूप में बंटता था। कलश को सपेफद कपड़े से ढककर सपेफद चन्दन का छिड़काव होता था। मन्दिरांे में कामदेव की आठ भुजाओं वाली मूर्ति के दोनों ओर रति की चार मूर्तियाँ रख कर उनकी पूजा होती थी....परन्तु मदनोत्सव का जो दूसरा रूप था उसी के कारण धीरे-धीरे 'कामदेव' की प्रतिष्ठा का क्षय होता गया....'काम' जिसे कि धर्म-अर्थ और मोक्ष के मध्य सेतु बनना था, वह समाज में स्वेच्छाचार और विकृतियां लाने लगा...संभवतः इसी सामाजिक क्षरण के कारण एक ऐसा कथानक उभरा जिसने काम को देव पद से हटाकर समाज की मिट्टी के अन्दर खनिज-लवण की तरह बिखेर दिया। कथा है कि काम ने अहंकारवश शिव के तप में विघ्न डालना चाहा...शिव ने क्रोधित होकर उसे भस्म कर दिया, तभी से काम अनंग ;अ-शरीरीद्ध हो गया....जो प्रत्येक वर्ष महागर्भा प्रकृति में प्रकट होकर रंगों का धमाल पैदा करता है, प्रकृति की परम लिखावट बनकर शिव को प्रसन्न करता है...क्योंकि काम की प्रेरणा से ही पार्वती ने शिव को प्रसन्न किया...इसी कारण बसंत )तु का दूसरा महापर्व शिवरात्राी है...यानि शिव-पार्वती के विवाह की अविस्मरणीय कथा/बसंत की अग्नि में शिव तक पिघल गये...दूल्हे बनकर अपने गणों के साथ हिमालय राज की कन्या को लाने चल पडे़...अनंग काम के पुनस्र्थापन का पर्व शिवरात्राी, योगियों-भोगियों सभी का पर्व है...स्वेच्छाचारी हो चला काम शिव की महिमा से मर्यादित होकर पुनः संसारियों में प्रतिष्ठित हुआ। कहते हैं कि शिव पहले तो दूल्हा बनने के लिए राजी ही नहीं हो रहे थे...और दूल्हे बने तो कोहबर ;कौतुक-गृहद्ध में ही डट गये। ससुर परेशान कि एक तो ऐसी विचित्रा बारात ऊपर से राशन-पानी का संकट...शिव-पार्वती के इस लम्बे होते महामिलन के कारण ही बसंत का यह पर्व...'महाशिवरात्रि' कहा जाने लगा।
शिवरात्रि को लोग व्रत-उपवास करते हैं। बसंत के अश्व को मर्यादित रखने का संकल्प भरते हैं। संसार अपने अन्दर का धतूरा....अपने अन्दर की वासनाओं की भांग उस शशिधर को चढ़ाकर उसकी आभा-आलोक से अमृत पाकर तृप्त होता रहा है। मात्रा आक, मदार, बिल्वपत्रा पाकर कृपा बरसाने वाले भोलेनाथ को बसंत जैसी सर्वसम्पन्न )तु में पूजना ही तो भारतीय संस्कृति के घोषणा-पत्रा का मुखपृष्ठ है। पौराणिक कथायें दर्शन की गूढ़ता को ढीला करती हैं। कामदेव को मन्दिर से उठाकर महाप्रकृति के गर्भ में स्थापित करने की कथा हो या बसंत )तु में शिव-शक्ति के मिलन की कथा, इस दृष्टान्त में समाज का सम्मिलित होना, लोक को प्रकृति के निकट बैठाना है। यह प्रकृति से आत्मीयता बढ़ाने का )षि उपाय है।
पफागुन लगते ही अनंग काम, मन को बेचैन करने लगता है...बसंत कोई कलेण्डर देखकर नहीं आता है...जब मन अकारण ही उचाट होने लगे...रस, रूप, सुगन्ध के संसार से घिरे होने पर भी एक हूक सी हृदय में हैंगर की तरह लटकी रहे...तो समझो बसंत आ गया...वह पेड़ पर खिलने से पहले मानव मन में उद्भिन्नता लाता है...प्रकृति के आंगन में होने वाला प्रस्पुफटन पुराने खोल को नष्ट कर नये का सृजन करता है.....बीज के अन्दर बैठा 'भू्रण' करवट लेता है। निर्माण से बन्धे होने के कारण ध्वंश का दुख ही बसंत में मन पर चुभता है...परन्तु कलियां चटखते ही रंगों का नवीन संसार हमारे क्षणिक श्मशान वैराग्य को ढक देता है...मन किस समय प्रकृति के कारखाने का नौकर बन जाता है, कब पूफलों के रंग उन आँखों में दरांती बनकर इन्द्रों की इन्द्रियों को भू-लुंठित कर देती है, कब सौन्दर्य के मदनभोज को छकने के लिए भिखारी मन पंक्तिब( बैठ जाता है, पता ही नहीं लगता। काम के जिन पांच बाणों से )षि-तापस नहीं बच सके, हम संसारी क्या बचेंगे।
उत्तर वैदिक काल में कामदेव की पूजा के कारण समाज का एक वर्ग जिस स्वेच्छाचार में गया और जिसके कारण चिन्तकों को 'काम' को भस्म करना पड़ा... वह कभी वैलेन्टाइन-डे तो कभी होली के बहाने स-शरीर वापिस हो रहा है। काम शरीर का ही धर्म है...परन्तु शरीर के धर्म जब मन के विषय बनते हैं तो ही समाज में विकृति आती है... क्योंकि काम की प्रथम चट्टी 'मन' है... वहीं पकड़ कर उसके पैर पूजे जायें तो वह शरीर को धाम भी बना सकता है/परन्तु यह पूजा-पाठ सार्वजनिक उपक्रम नहीं बन सकता...इसीलिए शरीर के इस प्रबलतम वेग को दिशाहीन होने से बचाने के लिए ही हमें काम को भस्म करवाना पड़ा/उसे प्रकृति के असंख्य द्वारों, धार्मिक-कथाओं में विकेन्द्रीकृत करना पड़ा। पश्चिमी समाज की शिक्षा और शरीरवाद ने काम को पुनः दैत्य बनाकर बाजार में खड़ा कर दिया है। होली की मादकता और रंगों की सौन्दर्य-दृश्यावलि को हुल्लड़ में बदलने वाले लोग भारतीयता के दुश्मन हैं। वैलेन्टाइन-डे भी पफागुन के आस-पास होने वाले बसंत का ही प्रमाद है। 'विरोध' के स्थान पर हमें 'विकल्प' ढूंढने हांेगे...जैसे कि 'मैती' वाले कल्याण सिंह रावत वैलेन्टाइन-डे पर गाँधी पार्क के बाहर बच्चों को वृक्षारोपण का विकल्प देकर, काम के दैत्य को ही मजदूरी पर लगाने का कार्य कर रहे हैं। काम के अथाह वेग को यदि सुमार्ग न मिले तो वह बसंत को भी नरक बना देगा।
पहाड़ों में बसंत का अर्थ ही पुष्पों की खिलावट से है...केदारों के बीच पीले रंग की 'फ्रयूंली' जिसे देखने से अधिक हम खाते थे। पूरे चैत के महीने छोटी बालिकायें सभी देहरियों मंे पूफलों के ढेर सजाती हैं...जो कि 'बिखोद' ;बैसाखीद्ध पर समाप्त होता है। बालिकाओं द्वारा टोकरियों में मदन के बाणों को पुष्प बनाकर प्रत्येक घर-द्वार में डालना, प्रतीकात्मक रूप से इन्द्रीय-वेग को देवता बनाना है। Úायड की विकृत परिभाषाओं को पढ़ने वाले प्रगतिशील भाई जरा उस समान पीड़ा देने वाले साम्यवादी काम को भी प्रणाम करें। प्रसि( लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने जितने पूफलों/पक्षियों का नाम अपने रचना संसार में सम्मिलित किया है...उससे अपना परिचय नहीं है। पहाड़ी जीवन में ज्ञान से अधिक रंग-रस का महत्व रहा है...शान्त भाव से प्रकृति को निहारना....उसके रंगों से एकाकार होना, एक तरह से चैत को चित्त बनाना ही तो है...हिन्दी कविताओं वाले जिस तरह 'पलाश-पलाश' चिल्लाते हैं उन भाई लोगों को बुरांस के जंगल का लाल-लुंगड़ा जरूर देखना चाहिए, कैसे-कैसे पफकीर तबियत वाले मन ही मन दूल्हे बनते नजर आयेंगे। बांज और बुरांश के दोनो पेड़ चार-छः हजार पफीट की ऊँचाई पर साथ-साथ उगते हैं...पर पफागुन के दूसरे सप्ताह से ही बुरांश पर जो लाली चढ़ती है तो पूरा पहाड़ लगता है जैसे धूर्जटि ने अपनी जटाओं को 'डाई' करके इन पहाड़ों में सूखाने डाल दिया हो...पहाड़ के साहित्य में 'बाज-बुरांश' की जोड़ी पर थोड़ा बहुत लिखा गया है...समस्याओं के कारण हमने बुरांश को भी गाया नहीं 'खाया' है, जिसकी देखा-देखी अब तो कई 'ठग' लोग बुरांश का ठण्डा-पफण्डा करने लगे हैं...उनके लिये क्या चैत, क्या भादों...पहाड़ों को नोचने वाले इन्हीं चांडालों के कारण हमें नया राज्य मांगना पड़ा था। देखें...हम अपने लिये कितना बसंत बचा पाते हैं। ु