जातिगत आरक्षण : एक अभिशाप


प्रारम्भ को गुलामी की जंजीर से मुक्त कराने में भारतवासियों की कुर्बानी के फलस्वरूप 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के उपरान्त भारत के    संविधान निर्माताओं ने तत्कालिक, सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए माननीय डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में बनाये गये संविधान में दबे कुचले पिछड़े समाज के हित में केवल 10 वर्षो के लिए आरक्षण का नियम बनाया था ताकि ऐसे वर्ग को नौकरयों में तथा समाज के अन्य पदों में आगे बढ़पे का अवसर मिल सके। उनकी मनसा कतई यह नहीं रही होगी के एक दिन देश के कर्णधार अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस प्राविधान का दुरूपयोग करेंगे। 
प्रारम्भ से ही हमारे देश के भाग्यविधाताओं ने ऐसे दबे पिछड़े समाज के उत्थान एवं उनको अपने पैरों पर खड़े होने के रास्ते जैसे सरकारी खर्चे पर अनिवार्य शिक्षा दिलाकर रोजगार उपलब्ध करवाने की ओर कोई कदम नहीं उठाया, वरन् उन्हें वोट बैंक की तरह सब्जबाग दिखाकर इस्तेमाल किया जाता रहा है। तथा आरक्षण के प्राविधान को समय≤ पर 10 वर्ष के उपरान्त लगातार बढ़ाकर केवल दलित एवं पिछड़े समाज को ही नहीं वरन् अन्यस जातियों को भी आपस में बांटकर आपस में लड़ाने की नीति पर चलकर अपने अंग्रेज आकाओं की ''डिवाएड एण्ड रूल'' की नीति को अपनाकर अपना उल्लू साधते रहने का कार्य किया जाता रहा है। देश का दुर्भाग्य है कि 65 वर्ष की आजादी के उपरान्त भी जनता अभी भी वास्तविक गुलामी से उभर नहीं पारयी है तथा आम चुनावों में देश तथा प्रदेशों को एक सशक्त विपक्ष ने देकर ''भेड़चाल'' से चलकर स्वयं भी गड्डे में गिर रहे है। फलस्वरूप केन्द्र की कांग्रेस कर अपनी मामानी पर उतारू है। आरक्षण आज एक अभिशाप बन गया है तथा दलित पिछड़ा वर्ग आज सरकारी नौकरियांे में पदों के अनुरूप कार्यक्षमता की योग्यता न होते हुए भी पदोन्नतियों में भी आरक्षण पर कांग्रेस सरकार की सह पर आन्दोलन रत है। कल समाज के अन्य वर्ग जाट ओ0 बी0 सी0, मुस्लिम, ईसाई आदि आदि भी ऐसी मांग कर आन्दोलन हो सकते हैं।  तथा यह अभिशाप का बीज देश देश को कहां से ले जायेगा इस ओर किसी भी पार्टी का ध्यान नहीं है। भारजीय जनता पार्टी ने भी इस विषय पर अपना रूख स्पष्ट नहीं किसा है तथा वोट बैंक को खोने के डर से कांग्रेस तथा भाजपा को सारे देश में हो रही कर्मचारियों की हड़ताल से कोई वास्ता नहीं है। वास्तविकता इसके विपरीत है और  बसपा परिषदों ग्राम पंचायतों ब्लाॅकों आदि में अध्यक्षों/प्रधानों के आरक्षण का नियम बनाया गया है क्या प्रदेशों के मुखियों यथा मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री माननीय उच्चतम तथा माननीय उच्च न्यायालयों आदि में मुख्य न्यायाधीशों के पदों को भी आरक्षित क्षेणी में नहीं रखा जाना चाहिए, चाहे योग्यता हो अथवा न हो? संसद में जो रहा है उसे भारत की जनता टी0 वी0 के माध्यम से सब देख समझ रही है। कोल आवंटन विदेशों में कालाधन तथा नेताओं के बिना किसी व्यवसाय अथवा कारखानों के होते हुए भी लाखों करोड़ों की सम्पति अर्जित की जा रही है, क्या कोई उत्तर दे सकेगा और क्या सरकार उनसे पूछने का साहस कर सकती है? यह एक यक्ष प्रश्न है जिसे जनता मूक दर्शक बन कर निहार रही है।
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। यदि शासन वास्तव में चाहता है कि दलित/पिछड़े समाज को मुख धारा में लाया जाय तो इनके लिए सरकार की ओर से अनिवार्य शिक्षा दिलाने के लिए सरकारी व्यय पर हाॅस्टलों की व्यवस्था का इसके बच्चों की शिक्षा-दिक्षा उनके रहन-सहन खाने-पीने की निःशुल्क व्यवस्था कर उन्हें योग्य बनाकर सरकारी/निजी संस्थानों आदि में योग्यता के बल पर सक्षम बनाकर समान अवसर नौकरी प्रसप्त करने के लिए बनाया जाय। इससे सचमुच में देश में चहुमुखी विकास की ओर देश बढ़ेगा तथा समाज के वासियों का हित साधन होगा।
सभी पार्टियों से अनुरोध है कि केवल अपना ही हित साधन के बजाय समाज के हित में कार्यकर इस आरक्षण के अभिशाप को समूल समाप्त कर दलित तथा पिछड़े वर्ग को जीवन भी यह अहसास दिलाना छोड़ दें कि उनकी वास्तविक पहचान एक दलित व पिछड़े व्यक्ति की है तथा उसे अन्य जातियों द्वारा केवल शासन की अदूरदर्शिता के कारण हेय दृष्टि से न देखा जाता रहे।