शिव का रौद्र रूप सन २०१३ में तीर्थयात्रियों और स्थानीय निवासियों ने पहली बार देखा। अलकनन्दा, भागीरथी, पिण्डर और केदारनाथ से निकलने वाली मन्दाकिनी तो जैसे साक्षात काली का रूप लेकर अपने मार्ग में पड़ने वाले सारे टाट-टप्पड़, जनता-जनार्दन सबको निगल गई। केदारनाथ में बाबा के आगे तीर्थयात्रियों के शवों से पटा श्मशान है। गौरीकुण्ड का तप्तकुण्ड जिसमें नहा के, वह पौराणिक गौरी-गणेश का मन्दिर जिसकी पूजा करके, यात्री केदार जाते थे, सब मन्दाकिनी में समा गये हैं...यात्रियों से खचाखच भरे होटल-धर्मशालायें, श्रद्धालु-पुरोहित, कुछ भी नहीं बचा। जिन लाट साहबों के कुकर्माें के कारण इतने निरीह नागरिक मारे गये, वे झक सफेद कपड़े पहने इन्द्रलोक में चक्कर लगाते रहे, कैमरे की रोशनी में नहाकर मीडिया को बाईट देते रहे और बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र सहित देश भर से आया यात्री जैसे दण्डक वनों में भटकता रहा, अपने माता-पिता, बच्चे, पत्नी की सलामती के लिये कई दिनों तक कलपता रहा...प्रदेश की कांग्रेसी सरकार दुर्घटना के चैथे दिन केदारनाथ पहुंची, यदि बादल फटने के बाद निचले इलाकों में अलर्ट घोषित कर दिया जाता तो अनेक लोगों की जानमाल की रक्षा की जा सकती थी। इस दुर्घटना में हताहत लोगों के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करने के साथ ही साथ उन लोगों की भी खबर ली जानी चाहिये जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस दुर्घटना के लिये जिम्मेदार हैं। यह प्राकृतिक आपदा भी है और दैवीय भी...क्योंकि प्रकृति और दैवीयता एक ही है। यह हमारे निरन्तर गिरते धार्मिक और मानवीय मूल्यों से रूष्ट, बाबा जटाजूट का ही दण्ड है...जिसे हमें पूरी निष्ठा से भुगतना चाहिये...क्योंकि यह हमारी ही करनी का फल है...जिसे कई निरीह नागरिकों को भुगतना पड़ा।
शिव का जिक्र करना बहुत लोगों को सांप्रदायिक लग रहा होगा, पर प्रकृति? वह तो सेकुलर है...पिछले दो सौ सालों से इस पहाड़ी क्षेत्र को जिस अपमानजनक ढ़ंग से लूटा गया, देशी-विदेशी, पहाड़ी-मैदानी ...पहाड़ का चीरहरण करने के लिये सब दुर्योधन बन गये। अंग्रेजों के आने से पूर्व उत्तराखण्ड चैड़ी पत्ती वाला सघन वनक्षेत्र था, बांज, देवदारू, हल्दू, ब्लू पाइन, कैल और भोजपत्र जैसे पेड़ों से ढ़के होने के कारण न भूस्खलन इतने विनाशकारी थे, न नदियों में ऐसा मारक क्रोध था। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों की पानी रोकने की गुणवत्ता के कारण प्रदेश की जैव विविधता गज़ब की थी...अंगे्रजों ने वनों का सफाया करवाया, और उसकी जगह जल्दी उगने वाला चीड़ रोप दिया, जिसके कारण जड़ी-बूटियां, घासें और अन्य जंगली फल देने वाले पेड़ लुप्त हो गये...अंग्रेज गये तो नेता और उनके दलाल आ गये। जड़ी-बूटियों पर उनकी नजर पड़ी, काकड़, कस्तूरा, खरगोश, वे सब खा गये...जंगलात के जंगले कांग्रेसी गुण्डों, उनके चमचों के मनोरंजन केन्द्र बन गये...जिनमें पहाड़ों को लूटने की योजनायें बनाना सरकारी उपक्रम बना दिया गया...पेड़, जानवर, जड़ी, वे सब उदरस्थ कर गये।
पृथक राज्य बनने के बाद, गांवो में वर्षों से उपेक्षा के शिकार लोग पलायन करके देहरादून की विधान सभा के चारांे ओर एकत्र हो गये। सीमेन्ट-सरिया के व्यापारी, बजरी-रेत के ठेकेदार, राजनीति के असरकारक घटक बन गये...एक ओर तो गांव खाली हो रहे हैं और दूसरी ओर नेता लेाग गांव-गांव सड़कंे बनाने की चिन्ता में पहाड़ों को खोद रहे हैं...अभी जो उत्तरकाशी क्षेत्र को ईकोजोन बनाने का प्रस्ताव आया उसके विरोध में यही माफिया सक्रिय होकर ग्रामीणों को बरगलाता हैं...हरिद्वार से ऋषिकेश और बद्री-केदार तक माफियाओं ने नदियां खोद डालीं...नियमों को धत्ता बताते सड़कों के किनारे खड़े बहुमंजिले लाॅज और होटल इन्हीं गुण्डों के हैं। स्थानीय व्यापारी तो मोमजामें की पन्नी लगाकर बने खोखों में चाय-खीरा, पराठा-छोला बेचकर कितना कमाता होगा? कांग्रेस जब दूसरी बार सत्ता में आई तो विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने के लिये हाइड्रो प्रोजेक्ट से जुड़ी कम्पनी 'इंडिया बुल्स' ने दिल्ली दरबार में तगड़ी भेंट चढ़ाई...भाजपा के समय की जो परियोजनायें लम्बित थीं, अधिकतर को चालू करने के निर्देश हुये...यही हाइड्रो प्रोजेक्ट आज प्रदेश में लूट और विनाश के प्रतीक बन गये हैं। करीब तीन सौ परियोजनायें आज प्रदेश में प्रस्तावित हैं...हाल यह है कि टिहरी, मनेरी जैसे बांधों में जलस्तर बढ़ने पर सुरक्षा के कोई अतिरिक्त मानक पूरे नहीं किये गये हैं, इसी जलस्तर बढ़ने के कारण मनेरी बांध पर आज भी सुप्रीम कोर्ट में करीब 36 लोगों की मृत्यु का मुकदमा चल रहा है।२०१२ में उत्तरकाशी के कालिंदीगाड और असिगंगा नदियों पर निर्माणाधीन बांध में बाढ़ के कारण 176 लोग मारे गये...श्रीनगर में भी एक बांध बन रहा है, जिसके चलते 'धारी देवी' जिसे कि कालीमठ की काली का 'श्रीमुख' कहा जाता है, को स्थानीय प्रतिरोध के बाद भी अपलिफ्ट किया गया...बाढ़ पहले भी आती थी और यहां का एसएसबी का भवन जलमग्न होता भी था, पर इस बार इस बांध के कारण नदी के किनारे जो मिट्टी के ढ़ेर थे और फिर ऐन उसी समय बांध से अतिरिक्त जल छोडा़ गया तो मिट्टी की गाद के कारण नदी ने अपनी दिशा ही बदल दी, एसएसबी और एक स्थानीय मुहल्ला ही जलमग्न हो गया, सौ करोड़ का नुकसान अकेले एसएसबी को हुआ है। इसी तरह विष्णुप्रयाग बांध द्वारा पानी छोड़ने पर बद्रिनाथ हाईवे का एक कस्बा 'लामबगड़' पूरा नष्ट हो गया..टिहरी बांध से करीब अस्सी गांव नीचे धसक रहे हैं, बांधों के कारण जो टनल बन रहे हैं, उनमें विस्फोट किये जाते हैं जिनके कारण कई घरों में दरारें आई हैं, जिन बारिशों को देख पहाड़ के लोग खुश होकर 'मुंगर्यात' कहकर मकई बोते थे, लोकगीत गाकर नाचते थे, उन बादलों को देख वो डर रहे हैं, वे लगातार पलायन कर रहे हैं...उनकी जगह नेपाल के माओवादी और बंग्लादेशी ले रहे हैं...जब मैं पिछले साल केदार यात्रा गया तो दंग रह गया...गौरीकुण्ड बाजार में एक तिहाई दुकानदार मुसलमान थे, दो तिहाई खच्चर-डंडी वाले या तो मुसलमान थे या नेपाली...तब समझ में आया कि सीमान्त के इन प्रदेशों से आखिर कांग्रेस क्यों बार-बार चुनाव जीतती रही है। जल-जंगल समाप्त हैं, जीव-जन्तु या तो मार दिये गये हैं जो बचे हुये हैं उनके ऊपर हेलीकाप्टर का विशाल शोर है, और सड़कों पर लगभग पचास हजार गाड़ियों का दैनिक धुआं है,...हिमालय गर्म हो रहा है...जलस्रोत सूख रहे हैं...गुप्तकाशी-बद्रीनाथ जहां बारहों महीने रजाई ओढ़ते थे, में लोग ठंडा मांगते हैं, पंखे-फ्रीज चला रहे हैं। अब रूद्र गुस्सा हो रहे हैं, तो हम अपनी करतूतों को देखने की बजाय देवताओं को ही कोस रहे हैं?
तस्वीर का दूसरा पहलू भी है...जब समाचार आया कि गांधी सरोवर टूटने के कारण यह हादसा हुआ, हैरानी हुई कि शिव के मस्तक में गांधी? कथित राष्ट्रपिता की अस्थि इस पौराणिक कुंड में डालकर कांग्रेसियों ने चैरावाड़ी सरोवर का नाम ही बदल डाला। विधर्मी लोग मंदिर में प्रवेश कर रहे हैं, शिव के घर के चारों ओर हमने अपने घर बना दिये हैं, चारों ओर होटलों के शौचालय हैं, भोलेनाथ ने भी जिस स्थान से पार्वती को दूर रखा, शंकर की उस साधनास्थली में कई पर्यटक और स्थानीय लोग भी अपनी पार्वतियों के साथ यहां हनीमून मनाते रहे हैं...प्रदेश सरकार खुश है, उसने कई जगह अपने विश्रामग्रहों में दारू-मीट की सुविधा उपलब्ध करवा दी है...रेवन्यू का सवाल है...आदि शंकर का विधान था कि बद्री और केदार में पंडे, संन्यस्त जीवन का पालन करें...मेरे पिता मेरी मां को कभी बद्रीनाथ नहीं ले गये, आज क्या हो रहा है? बद्री-केदार, पंडे-परिवारों के भी समर-रिसाॅर्ट बन गये हैं। देवताओं ने कई संकेत किये, रिमाइन्डर दिये, किसी ने नहीं सुना...शिव ने तांडव किया तो आज सबको धर्म याद आ रहा है।
पहले इन धामों में मात्र यात्री आता था...जिस यात्री के कारण समझो कि शिव के पैर इतने भर में थम गये, 'संसार' को अपने घर छोड़कर उनके मन में मात्र अपने ईष्ट का ध्यान होता था...मुझे बचपन की याद है...यात्री देवप्रयाग के पत्थरों को शिव की तरह अपनी थैलियों में संभालते थे...देवभूमि में रहने के कारण, हमारे पैर छूकर, वे हमें भी देवता बना जाते थे...कण-कण के प्रति कैसा आभार, कैसी श्रद्धा ...अब तो सब पर्यटक हो गये हैं, तो उन्हें मूंडने के लिये छोटे-बड़े सभी व्यापारी उस्तरा लेकर बैठे हैं...धार्मिक यात्रायें अब टूर-पैकेज में बदल गये हैं, यह पर्यटक अब भगवान से अधिक होटलों और सुविधाओं के बारे में चिन्तित है, कैमरे की किलिकारियों में वे बद्री-केदार को भी गुलमर्ग समझने लगे हैं क्योंकि प्रदेश सरकारें देवस्थलों का प्रस्तुतिकरण भी पिकनिक-स्पाॅट की तरह करने लगी हैं...न प्रकृति के प्रति कोई सम्मान, और देवताओं के सामने भी वही पैसे और वीआईपी वाली हनक...और जिस बेचारे ग्रामीण भारत में श्रद्धाभाव था, शिव ने उन्हें ही अधिक कुचला...ये कैसा न्याय है?
इधर सरकारी 'गुरू' लोगों के कारण विकास की एक नई परिभाषा उत्तराखण्डी समाज में भी चल पड़ी है...वह नदी, प्रकृति, भगवान सबको उपयोग की दृष्टि से देखने लगा है, गौरीकुण्ड के होटल में मैंने जब शौचालय के पानी को नीचे जलधार में जाते देखा...मैंने पूछा...पता चला कि इसका नाम मन्दाकिनी है...आज उसी नद ने हमको लील दिया, तो सबको धर्म याद आ रहा है? सरकार नारा दे रही है कि बजरी से 'निर्माण' होगा, तो उनके मुस्टंडे सगर पुत्रों की तरह भागीरथियों को ही खोदने में लग गये, यात्री पर्यटक बना तो नदियों की छाती में सीमेन्ट के दैत्य बनाकर विकास खड़ा किया गया...गुरू लोग कहते हैं कि बिजली से विकास होगा...नेता-माफिया गठजोड़ ने स्थानीय जनता में अपने सैनिक भर्ती कर पहाड़ों को बेरहमी से खोदने का लाईसेन्स प्राप्त कर लिया...प्रदेश के तीन बुद्धिजीवियों को यह विकास इतना भाया कि उन्हांेने बांधों के समर्थन में अपना 'पद्मश्री' पुरस्कार लौटाने की धमकी दे डाली...साधारण नागरिक तो इस विकास को ही 'नाथ' मानने लगा है। यह बांध माफिया ही इस नये विकास का सूत्रधार है, टुकड़खोर कवि, बिजली की महिमा पर कवितायें लिख रहे हैं, पर्यावरणविदों को पीटा जा रहा है...पहाड़ की जनता अपनी ही भूमि खोद रहे लोगों के साथ खडी़ है, वे सगरपुत्रों की तरह अपने विनाश के लिये, बांध के रूप में जिन 'जलबमों' को विकास समझ रहे हैं, कांग्रेस हमें जिन दैत्यों को विकास के मन्दिर बताकर पूजने को कह रही है, भगवान न करे वह एक दिन कहीं समूचे उत्तर भारत को मरघट में न बदल दे...केदारनाथ ने इसका ट्रेलर हमें दिखाया है..समूची फिल्म कितनी भयावह होगी, यह जितनी जल्दी हम समझ लेंगे, उतना ही पहाड़ों के लिये और देश के लिये कल्याणकारी होगा।
जल बम है उत्तराखंड