कालपुरुष: छत्रपति शिवाजी


इतिहास को हमारे पौराणिक ग्रन्थों में पांचवा वेद बताया गया है। बीसवीं सदी के प्रख्यात शिक्षा विद एवं भारतीय दर्शन शास्त्र के विद्वान डा. सर्व पल्ली राधाकृष्णन जी के अनुसार इतिहास राष्ट्र की स्मरण शक्ति होती है क्योंकि मानव जातियों को अपनी संस्कृति और राष्ट्र के गौरवशाली अतीत की चेतना इतिहास से ही मिलती है। प्रसि( इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा जी का कहना है कि अतीत के प्रति मनुष्य का नैसर्गिक लगाव होता है और इतिहास इस लगाव को इतिहास बोध में बदल देता है। इतिहास जनमानस को अतीत की संवेदना से जोड़ता है और राष्ट्र के सुदृढ़ भविष्य का निर्माण करने के लिए प्रेरित करता है। विद्वानों का कहना है कि जिस कौम को अपने इतिहास का बोध नहीं वह दासता के दंश भोगने को विवश हो जाती है। जिस व्यक्ति को अपनी संस्कृति पर गर्व नहीं, वह कभी देश और समाज के लिए कुर्बानी नहीं देगा। शोध आसान है लेकिन बोध नहीं क्योंकि वास्तविक बोध के लिए संवेदनशील अनुभूति जरुरी है। हम जानते हैं कि मानव जीवन अच्छा-बुरा, ताकत-दुर्बलता, लघुता-महत्ता का समन्वय होता है जिसमें संतुलन बनाये रखने से ही सुख-सौहार्द बना रहता है। बुराईई से हुईई क्षति की पूर्ति भलाईईसे होती है, तभी सार्वभौमिक शांति कायम रहती है। जिस प्रकार पदार्थों के गुण-धर्म का एक दूसरे पर क्या रासायनिक प्रभाव पड़ता है ये जानने के लिए हम रसायन शास्त्र की मदद लेते हैं तथा प्रकृति के अणु परमाणु से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में द्रव्य और उर्जा का सत्य हम भौतिक विज्ञान से जान पाते हैं। उसी तरह इतिहास इस धरती पर इंसानी फ़ितरत के अतीत को 'यथार्थ' रूप में वर्तमान के सम्मुख रखता है। सत्य और यथार्थ दो अलग बातें हैं, जब हम कहते हैं कि 'सत्यमेव जयते' तो स्पष्ट है कि सत्य और झूठ की लड़ाईईमें सत्य की जीत होती है परंतु यथार्थ इससे भिन्न है, लड़ाईई की समयावधि में घटित होने वाली घटनाओं का दुष्प्रभाव यथार्थ का वास्तविक स्वरूप होता है। 'यथार्थ' यानि जैसी वस्तु वैसी स्थिति, जिसमें बुराई, झूठ और पाप का जय घोष होता है क्योंकि हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुरूप होता है। कहने का तात्पर्य ये है कि मैं सच्चा हूँ, अच्छा हूँ तो जीत मेरी होगी, इस तरह का सत्य इतिहास के यथार्थ में नहीं आता है। सत्य और धर्म को विजयी बनाने के लिए किसी न किसी को छत्रपति शिवाजी बनना पड़ता है जो मनुष्य के सामथ्र्य की परिधि से बाहर आकर नियति के विरु( यु( छेड़ने की हिम्मत कर सके और अन्याय के साम्राज्य को तबाह करके न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम कर सके। सत्य और मानवता की जय कहना तभी संभव होता है।
यह उल्लेख सत्रहवीं शताब्दी के महानायक, मराठा साम्राज्य के संस्थापक और हिन्दू धर्म के रक्षक छत्रपति शिवाजी महाराज को समर्पित है। आमतौर पर लोग इतना ही सत्य जानते हैं की शिवाजी ने ताकतवर मुगलों को लोहे के चने चबवाए थे। परन्तु उस सदी के यथार्थ को बहुत कम लोग जानते हैं की भारत की संस्कृति को कालग्रस्त होने से बचाने के लिए शिवाजी का होना कितना आवश्यक था। सर्व विदित है कि बारहवीं सदी के अंत तक पृथ्वीराज चैहान की हार के साथ ही मुग़ल आतंकियों के लिए उत्तर भारत के दरवाजे पूर्ण रूप से खुल चुके थे। उसके बाद सदियों तक कईई घुसपैठियों ने भारत की मिटटी को हिन्दुओं के रक्त से नहलाते हुए उस पर अपनी सल्तनतें खड़ी कीं। सम्पूर्ण भारत पर सत्ता कायम करने के उनके मकसद को कोईई रोकने वाला नहीं था। अधिकतर हिन्दू राजा बिना किसी विरोध के ही दासता स्वीकार कर लेते थे। आश्चर्यजनक तथ्य ये भी मिलते हैं कि सदियों पहले जयचंदों ने जिस प्रकार पृथ्वीराज को हराने के लिए विदेशी आतंकियों को अपना सैन्य सहयोग दिया था, वह परम्परा आखिरी हिन्दू साम्राज्य विजयनगर को हराने तक ज्यों की त्यों बनी रही। विजयनगर के इतिहास से जो कोईई भी परिचित होगा वह यही कहेगा कि, दक्षिण भारत में कृकृष्णा नदी की सहायक नदी तुंगभद्रा के तट पर बसा एक महान हिन्दू साम्राज्य था जो भारतवर्ष में उस दौर का रामराज्य था। कृष्णदेवराय जैसे महान, वीर, देशभक्त और साहित्य प्रेमी राजा की इस नगरी में सभी धर्मो के बु(िजीवियों को बराबर सम्मान दिया जाता था। विजयनगर की भव्यता, सैन्य शक्ति और वैभव से ईईष्र्या करने वाली कईई दुश्मन रियासतें अनेकों बार इस राज्य पर आक्रमण करके शिकस्त खा चुकीं थीं। कृष्ण देवराय की मृत्यु के तीस साल बाद 1565 में दक्षिण मध्य भारत पर शासन करने वाली पांच मुस्लिम आदिलशाही और निजामशाही सल्तनतों ने विजयनगर को लूटने के लिए 'इस्लामिक भाईचारा' नाम से सैन्य गठबंधन बनाया। वैसे तो मुसलमान सत्ता के लिए आपस में लड़ते रहते लेकिन किसी ताकतवर हिन्दू राज्य पर आक्रमण करने के लिए वे संगठित हो जाते और हासिल की गईई लूट में हिस्सेदार बन जाते। विजयनगर से ईईष्र्या द्वेष रखने वाले पड़ोसी कायर हिन्दू राजाओं ने इस राज्य को तबाह करने में इस मुस्लिम मिलिट्री अलाइंस को अपनी सैन्य सहायता दी। फिर सत्य और न्याय की जीत क्यों नहीं हुई? अगर सत्य की जीत सिर्फ सच्चा होने से होती तो विजयनगर के हजारों लाखों बेकसूर हिन्दुओं को दासता के नरक में जलने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ता?  
शिवाजी के जन्म से करीब सौ साल पहले उत्तर भारत में बाबर ने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की थी जिसको तैमूर और चंगेज वंश की क्रूरता अपने बाप और मां से विरासत में मिली थी। भारतवर्ष के अधिकांश भाग पर उस वक्त मुग़लों का कब्जा हो चुका था। स्कूलों में हमें मुगल काल की शिल्प कारी, कला संगीत के बारे में पढ़ाया गया लेकिन यथार्थ इसके विपरीत था। यु( में हारे हुए राज्य की सारी सम्पति छीन ली जाती थी, यु(बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिए औरतें और बच्चे लूट के माल के सामान होते थे। धर्मांतरण और सत्ता के लिए मुग़ल सहस्त्रों हिन्दुओं को जानवरों की तरह काटते और उनकी औरतों और बच्चों को बंधक बनाकर बाहरी देशों को बेचने का काम करते थे। मुग़ल बादशाह अकबर के हरम ;अंतःपुरद्ध में हजारों दास हिन्दू महिलाएं रहती थीं। इतिहास के यथार्थ तथ्यों के अनुसार अकबर का सेनापति उजबेग, शान से ये कबूल करता था की उस अकेले ने दस लाख हिन्दुओं को कन्वर्ट किया और बेचा है जिसमें अधिकतर औरतें थीं। अकबर के बेटे जहाँगीर ;प्रिंस सलीमद्ध ने एक साल के अंदर दो लाख बच्चे परसियन राजा को तोहफे में भेंट किये। उसने अपने सूबेदारों को ये अधिकार दिया हुआ था कि किसान की टैक्स देने की असमर्थता के चलते उसके परिवार से एक बच्चे को उठा लिया जाय। कम उम्र लड़कों को बर्बरता के साथ हिजड़ा बनाया जाता था। औरंगजेब के बारे में कहा जाता है कि वह इस मामले में अपने बाप दादाओं जैसा नहीं था, लेकिन उसने अपने आदमियों को औरतों और बच्चों पर जुल्म करने से कभी रोका भी नहीं। चोर, डाकू, कातिल और सजा भोग रहे अपराधियों को छुड़ाकर मुगलों की फ़ौज में विशेष स्थान दिया जाता था। सोचा जा सकता है की जब सम्राट और उसके सिपहसालार ही इतने क्रूर थे तो सत्ता से जुड़े छोटे-मोटे पदों पर आसीन लोग कितने बेलगाम रहे होंगे। मुग़ल शासनकाल में हिन्दुओं को अपनी जान माल की सुरक्षा के बदले टैक्स देना होता था जिसे 'जिज्या' कहते हैं। सुना है यह टैक्स अकबर ने अपने शासन काल में हटा दिया था। शायद इसीलिए भारत के वामपंथी इतिहास में उसे महान कहा गया होगा। शिवाजी के जन्मकाल तक धर्मांतरण की रणनीति चरम सीमा पर थी, जिसके अनुसार हिन्दुओं को आथर््िाक रूप से कमजोर बनाकर उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए मजबूर किया जाता था। मुगलियत का भय लोगों की आत्मा के अन्दर समाने लगा था और अब किसी ऐसे यो(ा का आना अति आवश्यक हो गया था जो न्याय व्यवस्था कायम कर सके और मानवता को बचा सके।  
शिवाजी शाहजी भोंसले का जन्म 19 फ़रवरी 1630 में पूना के शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। पिता शाहजी भोंसले बहुत बड़े जागीरदार एवं बीजापुर के आदिलशाही सल्तनत में एक मराठा सेनापति थे और माता जीजाबाईई एक उच्च व्यक्तित्व की महिला थीं। वीरता शिवाजी को अपने दादा मालोजी भोंसले और पिता शाहजी भोंसले से विरासत में मिली थी तथा विजन उन्हें अपनी माता से प्राप्त हुआ। शिवाजी के जीवन पर उनकी माता की शिक्षा का बहुत प्रभाव रहा। माता जीजाबाई से प्राचीन भारत की कथाओं में रामायण महाभारत का इतिहास सुनकर शिवाजी के बाल मन पर गहरा असर पड़ा जिस के फलस्वरूप उनके मस्तिष्क में एक ऐसे विजन ने जन्म लिया जिसमें इन्सान को सम्मान से जीने का अधिकार मिले, आथर््िाक उन्नति का अधिकार मिले और बलपूर्वक धर्मांतरण खत्म हो। अपने इन सि(ान्तों को हकीकत का रूप देना ही शिवाजी के जीवन का मकसद बन गया। इस स्वप्न को साकार करने के लिए उस वक्त शिवाजी के सम्मुख बहुत भयानक विषम परिस्थितियां खड़ी थीं जिनके विरु( जाने का मतलब था नियति के खिलाफ होना। व्यक्तिगत हो या सार्वजानिक, जीवन में परिस्थितियां हमेशा दो मूलभूत विकल्प के साथ सामने आती हैं- या तो परिस्थितियों के आगे विवश होकर समझौता करो या फिर उन्हें बदलने का उत्तर दायित्व स्वीकारो। समय का रुख बदल देने का संकल्प लेकर नियति को चुनौती देने वाला वीर यो(ा है शिवाजी। शिवाजी बहुत बड़े विद्रोही के रूप में सामने आते हैं। मध्य एशिया से आये बर्बर घुसपैठियों की थोपी गईईअन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं के खिलाफ शिवाजी बिगुल फूंकते हैं। शिवाजी को फ़ौज विरासत में नहीं मिली है बल्कि उन्होंने अपनी आर्मी खुद बनाईईऔर स्वयं की यु( शैली तैयार की। १७ वीं शताब्दी में उत्तर भारत से मुगलों का आक्रमण दक्षिण भारत की तरफ शाहजहाँ के क्रूर बेटे औरंगजेब की अगुआईई में होने लगा था जिसके कारण शाहजी भोंसले का ज्यादातर समय पुणे से बाहर ही व्यतीत होता था इसलिए परिवार और जागीर की सुरक्षा के लिये २00 मराठा सैनिक शिवाजी के साथ ही रहते थे, जिनकी संख्या बाल शिवाजी ने बढाकर २000 कर दी थी। शिवाजी ने अपनी सेना मावला गाँव के खेतों में काम करने वाले नौजवानों से शुरू की। वे दिन में खेतों में काम करते और रात को यु( विद्या सीखते। एक प्रसि( कहानी प्रचलित है, पुणे के 'मावला' क्षेत्र के शिवमंदिर में शिवलिंग पर अपना रक्त बहाकर शिवाजी ने अपने दस किशोर दोस्तों के सामने मुग़ल सल्तनत को खत्म करने की प्रतिज्ञा ली। ये वही वीर सिपाही थे जिन्होंने आगे चलकर लड़ाईई में शिवाजी के लिए सबसे पहले अपने प्राणों का बलिदान दिया। सोलह साल की उम्र में वीर शिवाजी ने बीजापुर आदिलशाही प्रशासन को बिना सूचित किये ही पूना के तोरणा किले पर अपना अधिकार कर लिया। माना जाता है कि यह किला 13 वीं शताब्दी में भगवान शिव के अनुयायी शैव पंथ द्वारा निर्मित किया गया था। ;तोरणा फोर्ट बाद में मराठा साम्राज्य का केंद्र बिंदु बनाद्ध। क्योंकि पिता शाहजी भोंसले आदिलशाही रियासत के विश्वसनीय मराठा जनरल थे इसलिए शिवाजी के विद्रोह के लिए उनके पिता को कारावास में डाल दिया गया, जिन्हें बाद में शिवाजी ने छुड़वाया। एक गरीब महिला के साथ हुए दुव्र्यवहार की शिकायत यंग शिवाजी महाराज के सामने आयी जिसमें दोषी राजसी टैक्स वसूल करने वाले समुदाय का ताकतवर पाटिल था। मामले को जानने के बाद शिवाजी ने मुजरिम को मौत की सजा सुना दी। मात्र सोलह वर्ष के राजा का ये न्याय देखकर आम इन्सान को लगा जैसे न्याय और इंसानियत का सूर्य उदय हो गया है। साधारण मानव जो अपने आकाओं के सामने सर उठाकर उनसे नजर मिलाने से भी डरता था उनके लिए राजा का यह न्याय साक्षात ईश्वर का रूप था। आगे इसी साधारण जन मानस ने शिवाजी महाराज की ताकत बनकर अन्याय के महलों को ताश के पत्तों की तरह रौंद डाला और मराठा साम्राज्य को तरक्की की ऊँचाइयों पर पहुँचाया। 
शिवाजी की दूरदृष्टि कमाल की थी। वे अच्छी तरह से जानते थे कि आदिलशाही की विशाल हथियार बंद फ़ौज के सामने उनके मुठ्ठी भर सैनिक आमने सामने की लड़ाईई के लिए बहुत कम है। इसलिए आसपास के किलों पर कब्ज़ा करना शिवाजी की यु( नीति की पहली चाल थी जिसे किंग भी समझ न पाया और उसने चंद दुर्गों का भोंसले जागीर का हिस्सा बन जाने को अधिक तवज्जो नहीं दिया। आदिलशाही के नोटिसों का जवाब शाहजी भोंसले किसी न किसी बहाने से देते रहते जैसे, किलों की हालत जीर्ण है और शिवाजी अपने आदमियों के साथ मरम्मत करने का काम कर रहे हैं...। अपनी सैन्य ताकत को प्रभावी रूप देने के लिए शिवाजी ने ऊँची पहाड़ियों पर स्थित इन किलों का उपयोग समय आने पर बखूबी से किया। वे एक मिलिट्री जीनियस थे। गुरिल्ला यु(नीति शिवाजी के प्रखर रणनीतिज्ञ होने का साक्ष्य है, जिसके अनुसार दुश्मन पर छिपकर हमला करो और भाग जाओ। वे पहले शासक थे जिन्होंने नौसेना की अहमियत को समझा और सिंधुगढ़ और विजयदुर्ग में नौसेना के किले तैयार किए। रत्नागिरी में उन्होंने अपने जहाजों के लिए फोर्ट तैयार किये। इसीलिए शिवाजी को भारतीय नौसेना का जनक भी कहा जाता है। सूचना और जासूसी नेटवर्क का ऐसा जाल बिछाया गया कि दुश्मन का फंसना पक्का था। शिवाजी ने अपने आधिकारिक क्षेत्रों से प्रशासनिक कार्यों में प्रयोग होने वाली परसियन भाषा को मराठी भाषा से बदल दिया। शिवाजी के जन्म से 283 साल पूर्व डेक्कन सल्तनत को खड़ा करने वाला पर्सियन भाषी शिया मुसलमान बहमन शाह था जो अफगानिस्तान का मिलिट्री जनरल था और खुद को ईरान के राजा का वंशज और पर्सियन भाषा का संरक्षक मानता था। बहमन ने दक्षिण भारत और मध्य दक्षिण भारत में आदिवासियों का नर संहार करके, मंदिरों को लूटकर तथा छोटी छोटी हिन्दू रियासतों को हराकर बहुत बड़ा साम्राज्य खड़ा किया जो बाद में पांच अलग-अलग सल्तनतों, आदिलशाही और निजामशाही में खंडित हुआ। समय के साथ इन सल्तनतों ने अपने काम करने के तरीकों में बदलाव कर लिया था। अब वे बाहरी स्रोतों से सेवाएं लेने लगे थे जैसे, यु( लड़ने के लिए सेना, उच्च जाति के हिन्दुओं को किसानों से टैक्स वसूलने का अधिकार देना इत्यादि। किसानों से कर वसूली करने वालों को वतनदार कहते थे, जिन्हें अलग-अलग उपाधियों से सम्मानित किया जाता था जैसे मोरे, पाटिल, देशमुख...। ये लोग किसानों से अधिक कर वसूलते लेकिन उसका आधा ही भाग सरकारी खजानों में जमा करते, अतः जागीरदार आथर््िाक रूप से ताकतवर होने लगे। शिवाजी के दादाजी मालोजी भोंसले मराठा सेना के कमांडर थे। उनकी फ़ौज अहमदनगर के निजाम के लिए मुगुलों के खिलाफ लड़ती थी। उनकी मृत्यु के बाद भोंसले जागीर उनके बेटे शाहजी भोंसले को मिली जो बीजापुर के आदिलशाही सल्तनत के लिए समकालीन मुग़ल शाहजहाँ के खिलाफ लड़ते थे। शिवाजी ऐसे व्यक्ति हैं जो जनसाधारण के प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ लड़ते हैं और इस लड़ाईई में उनका साथ देने वालों की संख्या बढती चली गई और मराठा साम्राज्य को ताकत और विस्तार मिलता गया। भारत को संस्कृति विहीन बनाने वाले मुगुलों के खूनी संघर्ष को विराम लगाने में छत्रपति शिवाजी महाराज का योगदान अतुलनीय है। वे इतिहास में एकमात्र ऐसे शासक हैं जिन्होंने राज्य विस्तार के लिए नहीं बल्कि धर्म और न्याय कायम करने के लिए सीमाओं का विस्तार किया। भारत के इतिहास में देशभक्ति की तुलना करे तो मराठा जनमानस सबसे आगे आता है क्योंकि छत्रपति शिवाजी का साथ देने में आम जनमानस से लेकर बड़े जागीरदार तक पीछे नहीं रहे। शिवाजी ने कातिल निडर मुगुलों के दिलों में खौफ भर दिया था। पूरी दुनियां के इतिहास में यह सत्य मिलता है कि, यदि यु( भूमि में राजा बंदी बन जाय या फिर वीरगति को प्राप्त हो जाय तो सैनिक दुश्मन के आगे आत्मसमर्पण कर देते हैं। लेकिन छत्रपति शिवाजी के मराठा सैनिक ऐसा नहीं करते हैं, वे शिवाजी महाराज की मृत्यु के तीस साल बाद तक भी शिवाजी का सपना पूरा करने के लिए मुगुलों से लोहा लेते हैं। समय के साथ सियासतें मिट जाती हैं, राजवंश गायब हो जाते हैं लेकिन शिवाजी जैसे साहसी, महान हीरो की यादें अमर हो जाती हैं जो आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करती हैं। 
आज के परिपेक्ष्य में शिवाजी के जीवनकाल के इतिहास को देखें तो स्पष्ट दिखाईई देता है कि मुगल शासनकाल में जो कुटिल हिन्दू बादशाहों को खुश करने के लिए आम जनमानस पर अत्याचार किया करते थे क्योंकि ऐसा करने से उनको जागीरें और उपाधियाँ प्राप्त होती थीं। वैसे ही कायर हिन्दुओं ने फिर अंग्रेजों के तलवे चाटने का काम किया। क्रांतिकारियों के बलिदानों से अंग्रेजों से देश को आजादी मिली परन्तु वही अत्याचारी लोग जिनको मुगुलों और अंग्रेजों ने वफ़ादारी के लिए उपाधियाँ नवाजी थीं, वे सेक्युलर बनकर देश पर राज करने लगे। आज भी ये सेक्युलर गद्दार विदेशी सोच के ही गुलाम हैं। इनकी नजर में महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, वीर सावरकर, भगतसिंह जैसे सपूत कोईई मायने नहीं रखते हैं बल्कि इनका इतिहास मातृभूमि के गद्दारों को महिमा मंडित करता है। मुगल आतंकियों ने करोड़ों हिन्दुओं का नरसंहार करके भारत भूमि पर अपना राज कायम किया फिर भी उनकी नजर में उन्होंने कोईई गुनाह नहीं किया परन्तु छत्रपति शिवाजी ने कुछ जालिम मुगुलों का खात्मा किया तो शिवाजी महाराज की मृत्यु को मुगुलों ने उन पर किये गए अत्याचार का शाप मान लिया। पिछले पांच साल में पहली बार देश में एक राष्ट्रवादी और हिन्दुत्ववादी सरकार बनी तो आज भी ये मानसिकता स्पष्ट देखी जा सकती है। क्योंकि देश में असहिष्णुता तभी होती है जब किसी मुसलमान को डर लगने लगता है। वर्तमान में फिर सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए जंग होने जा रही है और फिर से ये विदेशी सोच के गुलाम देश और संस्कृति के गद्दार गठबंधन बनाकर हिन्दुत्व को नीचे रखना चाहते हैं ताकि इस्लामिक कट्टरपंथी भाईचारे को ये मजबूती प्रदान कर सकें। किसान हों या आमजन जो भी हिन्दू सभ्यता की कद्र करता है उसके लिए ये निर्णायक समय है सोचने का कि इस देश के अलावा आखिर तुम रहोगे कहाँ? किसान अगर अपनी रोटी की कीमत देश के भविष्य के बदले लगाएगा तो शायद उसे कोई फिर अन्नदाता नहीं कहेगा। मंदिर आज नहीं तो कल बन जायेगा। विद्वानों का कथन है, कभी नहीं से देर भली।