कहाँ खो गई है संवेदना


'इंजेक्शन से लावा की भांति मत खींचों / कतरे-कतरे में मत बांटो / सृजन के मूर्त रूप को / जन्मना अस्तित्व को / देहरी पर बन्दनवार की गमक हूँ / आंगन में खिली धूप हूँ / सृजन की प्रथम और अन्तिम गति हूँ / इसलिए मुझे दुनिया में आने दो'
नारी पर होने वाले अत्याचार के विरोध में अब इस तरह की आवाजें प्रायः हर तरपफ और हर जगह सुनाई पड़ने लगी हैं। यह सिर्पफ चीखें नहीं वरन् एक तरह का मौन, करुणा से भरा ऐसा क्रन्दन है जो भू्रण ;महिलाद्ध हत्या पर सुनाई पड़ता है। यह उस अजन्मी बेटी के लिए चिन्ता है जिसे सिर्पफ इसलिए दंड दिया जाता है क्योंकि वह एक बेटी के रूप में जन्म लेने जा रही थी। एक अजन्मी बेटी को इस तरह का दंड देने का अधिकार किसे मिला है, और क्यों मिला है? इस विषय पर कोई कुछ सोचने को तैयार नहीं है न एक मां, जो उसे जन्म देकर मां होने का गौरव हासिल करती है, न एक बाप जो उसको पालता-पोसता है और बड़ी होकर वह जिसका नाम रोशन करती है, न यह समाज या पिफर स्वयं विधाता जिसने इस सारी सृष्टि की रचना की है।
आज भारत में हर 20 लड़की के अनुपात में 60-65 लड़के हैं। भू्रण ;महिलाद्ध हत्या का यह रोग आज बड़े-बड़े महानगरों तक ही सीमित नहीं है वरन् इसने छोटे-छोटे गांव और कस्बों तक को अपने मकड़जाल मे ऐसा पफांस लिया है जिसका अन्त होता कहीं नहीं दिख रहा है। यह समस्या भविष्य में जैसा विकराल रूप धारण करने जा रही है, सोचते ही कंपकंपी आती है क्योंकि तब भविष्य में रिश्तों का कोई अर्थ बच पायेगा इस पर शक है। आज हम जिस सभ्य समाज का अंग होने का गर्व करते हैं। भविष्य में वही दानव समाज मेें कब और कैसे बदल जायेगा, कोई नहीं जान सकेगा? क्योंकि तब न कोई बेटा अपनी मां की इज्जत बचा पायेगा न कोई पिता बेटी की रक्षा कर पायेगा। पति के सामने उसकी पत्नी की इज्जत लुटेगी तो भाई के सामने उसकी बहन का तन और मन दोनों ही घायल होंगे। जिस विकृत मानसिकता में आज हम जी रहे हैं। उसका ऐसा भयावह परिणाम निश्चित है। तब कैसे क्या होगा यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब हम सबको खोजना है विशेष कर स्त्रिायों को। इसके लिए जरूरी है कि हर नारी अपनी कोख में पलती बच्ची की मूक, दर्द भरी पफरियाद सुने। मां मुझे भी जन्म लेने दो, मैं तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा बनूंगी, पापा मैं भी भइया की तरह आपका नाम रोशन करूंगी। बेटी की एक आवाज को अनुसना करने की जगह प्रोत्साहन देना पड़ेगा तभी हमारे जीवन में मिठास बनी रहेगी। इसके लिए हमें ही बालिका भू्रण हत्या पर पूर्ण विराम लगाना होगा। इसे आत्मानुशासन मानना होगा। वरन नियम कानून से कुछ नहीं होगा। वे तो बनाये जाते हैं और उन्हें बनाने वाले स्वयं ही उन्हें तोड़ देते हैं।  हमें खुद को उसी तरह बदलना होगा, जैसे कभी राजा राममोहन राय ने स्त्रिायों की भलाई के लिए किया था। राममोहन राय ने न केवल सती प्रथा का उन्मूलन करवाया बल्कि बाल विवाह जैसी दूसरी कुप्रथा को भी समाप्त करवाया। इस काम में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था। हमें भी राय की तरह सम्पूर्ण की प्राप्ति के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर रहना होगा जैसा कि कवि जयशंकर प्रसाद जी ने इन पंक्तियों में कहा है-
'हमें पहुँचना उसी सीमा पर / जिसके आगे राह नहीं'
अर्थात् चारों ओर एक ऐसी क्रान्ति हो कि अब किसी  बालिका भू्रण की हत्या नहीं होगी, नारी समाज में शक्ति की तरह पूजित होगी तभी हमारा समाज सुखी होगा। यह एक महान उद्देश्य है जिसके लिए हम सभी को प्रयत्न करना होगा। साथ ही आज इस बात की भी आवश्यकता है कि हम जागरूक रहें तथा लड़कों को अपने ऊपर थोपे जाने का विरोध करें। कुछ स्त्रिायाँ जो लड़कों के प्रति अपना असीम प्रेम दिखाती हैं वे उसका यदि एक चैथाई भी बालिकाओं के प्रति प्रकट करें तो यह निश्चित है कि हम अपने उद्देश्य को व्यापक बनाने में सपफल होंगे।
भू्रण हत्या न केवल अपराध है बल्कि यह अच्छे संस्कारों को भी समाप्त करता है और आदमी को असभ्य बनाता है। कहा भी गया है कि संवेदना शून्य व्यक्ति बिना सींग व पूंछ का जानवर है। तब बेटा-बेटी में पफर्क कर क्या सचमुच हम किसी ऐसे ही पशु समाज का निर्माण नहीं कर रहे हैं?  यदि मानव मात्रा पशु के मानुष रूप में नहीं जीना चाहता और सच्चे अर्थ में मनुष्य कहलाना चाहता है तो उसे अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठ व्यापक सामाजिक हित का चिन्तन एवं उस चिंतन को कार्यरूप में परिणित करना ही होगा। आजकल के सर्वाधिक लोकप्रिय 'अल्ट्रासाउण्ड' जो भारत के गांव-गांव में भोली-भाली जनता को मूर्ख बना रहे हैं इन्हें बंद कराना होगा क्योंकि यहाँ दो माह के भू्रण को भी बालिका भू्रण बताकर अपना उल्लू-सीधा किया जाता है। ऊपर से यह अध-कचरी दाईयां जिन्हें गांव के लोग डाक्टरनी मानते व कहते हैं। वे घास की तरह भू्रण को काट देती हैं नतीजा स्त्राी मृत्यु के रूप में सामने आता है। जिसे दैवीय कोप मान इस ओर से आँख बंद कर ली जाती है। कारण आज सम्पन्न दिखने की चाह ने इंसान को दानव के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। हमें आज इस बात को स्वीकारना ही होगा कि बेटी की निर्मल धारा अपने शैशव काल से ही मनुष्य को लुभाती और दुलारती रही है क्योंकि नारी सौंदर्य संगीतमय है। सारा जीवन संगीत के सुरों पर ही आगे बढ़ता है। मानव भावनाशील प्राणी है। अतः उसे जनजीवन में व्याप्त नारी का गिरता गौरव पुनः प्रतिष्ठित करना है। कहते हैं निरीह प्राणी की रक्षा के लिए, अबला का सम्मान बचाने के लिए यदि सत्कर्मों से हिंसा करनी पड़े तो वह धर्म है। तब प्रश्न यह है कि बालिका भू्रण को बचाने के लिए क्या हिंसा होनी चाहिए? क्या मां को सजा हो या पिता को या पिफर उस चिकित्सक को जो अल्ट्रासाउण्ड करता है या सर्जन को, तो उत्तर स्पष्ट है यदि सार्वजनिक हित के लिए यह आवश्यक है तो यह करना ही चाहिए। ु