कैंडिल तले अँधेरा

 जब भी कोई  गैंगरेप की घटना होती है सारा देश हिल जाता है...मीडिया जब तक हिलाता है, हम हिलते रहते हैं। कल टीआरपी बढ़ाने वाली कोई लजीज स्टोरी मिलेगी, मीडिया के समाज सुधारक अपने कैमरों का मुंह मोड़ लेंगे। सरकार से चुंगा मिलेगा और यह छात्र आंदोलन फुस्स हो जायेगा। कैमरों के लेंस से उठे ऐसे हवाई जनान्दोलनों का यही हश्र होता है। अपना हिलता हुआ समाज फिर हिलते-हिलते ही सो जायेगा।
उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान मुलायम ने राज्य की पुलिस द्वारा ही पहाड़ की महिलाओं के साथ सामुहिक रेप करवाये, उन्हें नंगा करके सड़कों में दौडा़या, मोमबत्ती वाले ये संवेदनशील विद्यार्थी तब कहां जाते हैं ? यदि उस समय मुलायम की गर्दन दबोच ली जाती तो दिल्ली की यह घटना नहीं दुहराई जाती। ऐसी घटनाओं को 'हंस' के प्रगतिवादी संपादक राजेन्द्र यादव ने अपनी टिप्पणी में 'स्पर आॅफ द मूमेन्ट' कहा था ...यानि यह व्यभिचार, क्षणिक आवेश के कारण हुआ...पर मुलायम सिंह यादव तो पूर्ण होश में थे...और पहाड़ियों को सबक सिखाने के लिये उन्होंने पहाड़ की स्त्री का आखेट किया। तब क्यों इन संवेदनशील छात्रों ने मुलायम को फांसी देने की बात नहीं की? कैमरा नहीं था न!  इस घटना के तुन्त बाद मुलायम सिंह यादव को पदोन्नति देकर देश का रक्षामंत्री बनाया गया...तब भी यह कैमरे की लालची भीड़ नहीं हिली...हिलती तो फिर ऐसी  घटना नहीं होती। क्या हमारे एक्टिविस्ट जानते हैं कि रामपुर तिराहा कांड के उस अमानवीय कृत्य के लिये किसी भी दोषी को फांसी तो क्या, कोई भी सजा नहीं हुई। उस घटना के एक बेशर्म अधिकारी को भाजपा के राजनाथ सिंह ने अपना पीए बनाया। जिस मुलायम के ईशारे पर यह सब हुआ वह देश की बागडोर संभालने की भी सोच रहे थे ---जिन लोगों ने मुलायम को उ0प्र0 की गद्दी सौंपी, क्या वे इन रेपिस्टों के नैतिक समर्थक नहीं हैं? हमारी राजनीति की सौंध तो बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों की नर्सरी बन चुकी है...कुछ  बलात्कारियों को फांसी देने से क्या हो जायेगा? ऐसे कई छुट्टे सांड तो स्वयं राजनीति में रहकर रोज न्यायालयों, थानों, और चिकित्सालयों को अपना बंकर बनाकर न जाने कितनी ललनाओं की अस्मत लूटते हैं।
स्त्री और पुरूष प्राकृतिक रूप से एक-दूसरे की ओर आकृष्ट होते हैं, यह अपराध नहीं है...पर स्त्री की इच्छा के बिना उसके साथ बलात् संम्बन्ध बनाना दण्डनीय अपराध है। कामजनित हिंसाओं का भी एक लम्बा इतिहास रहा है। जब भी कोई देश किसी दूसरे देश को हराता है तो सबसे पहले पराजित राष्ट्र की स्त्री का अपमान किया जाता है...धन या पद जब भी किसी पुरूष के पास आता है तो वह सबसे पहले स्त्री का शोषण करता है...क्यों? ऐसे मनोरोगी समाजद्रोही नहीं? स्त्री के प्रति अहोभाव रखना ही समाज का मूल स्वभाव है...क्योंकि प्रत्येक समाज, स्त्री की रक्षा को अपना सबसे बड़ा पुरूषार्थ समझता है और अपनी स्त्री के अपमान को वह सबसे बड़ा अपमान समझता है...जो ेभी व्यक्ति स्त्री पर बलात्कार करता है वह एक जघन्य हिंसा है, हत्या से बड़ी हिंसा...कामजनित इन हिंसाओं को रोकने के लिये भारत के मनीषियों ने ही सबसे पहले घर-परिवार का अन्वेषण किया...इस मनोवृत्ति को रोकने के लिये बहुस्तरीय रक्षाप्रणाली तैयार की गई...इसमें सबसे बड़ी भूमिका थी धार्मिक-विधान और धर्म से जुड़ी दण्ड व्यवस्था की...धर्म ने पाप और पुण्य की लिस्ट बनाई...और आधे से अधिक अपराध पाप के भय से रूकते थे। ऐसे अपराधों को रोकने के लिये दूसरी दीवार थी...सामाजिक भय...जो लोग धर्म को नहीं मानते वे समाज से डरते हैं क्योंकि सामाजिक बहिष्कार भी एक दण्ड था और तीसरी दीवार थी...राज्य व्यवस्था और उसका दण्ड विधान...आज राज्य से कोई नहीं डरता क्योंकि अनेक रेपिस्ट तो सत्ता में ही हैं...रेप को सत्ता का नैतिक समर्थन है, तो किससे डरना? अब जब कि समाज रहे नहीं...विहार-कालोनियों में तो किसी भी तरह की सामुहिकता या सामाजिक दायित्व नहीं होता...अंत में रही बात धर्म की... धर्म का जिक्र करने वाला ही इस देश में सांप्रदायिक कहलाता है...और 'गे' या 'लिव इन रिलेशनशिप' को आधुनिकता...भड़कीले और कामुक वस्त्रों, जो कि कामोत्त्ेाजना को बढ़ाने के लिये ही पहने जाते हैं, उन पर यदि हमारी खापें या पंचायतें ऊंगली भी उठाती हैं तो पूरा मीडिया दीदें फाड़ कर रोने लगता है। इस नई पीढ़ी ने जो कि आज कामविकृति को देख कर उबल रही है, ने ही भारतीय समाज की बहुस्तरीय रक्षा प्रणाली पर मट्ठा डाला, हमारी मान्यताओं, मर्यादाओं को पोंगापंथी कहकर उन्मुक्त समाज की पैरवी की...पश्चिम की अनेक विकृतियों को समाज का मानक बनाने के लिये मीडिया जिस तरह नंबरदार बनकर उसे बहसों में खींचता रहा है...बलात्कार, और यौन अपराधों को मनोरंजन की तरह पर्दे पर दिखाने वाला छोटा पर्दा भी इन सामाजिक विकृतियों के लिये बराबर का अपराधी है। अपनी टीआरपी के लिये यौन अपराधों को मसालेदार बनाकर घरों में परोसना भी शराब और झीने वस्त्र पहनने जैसा ही उत्प्रेरक है...क्या यह प्रवंचक मीडिया अपना अपराध भी तय करेगा? दाढ़ी-गाड़ी के विज्ञापन में भी नग्न स्त्री को दिखाना क्या मनोरोग नहीं? वैसे वस्त्रों के कारण भी बलात्कार नहीं होते...यदि होते तो पश्चिम में बलात्कारों की संख्या, भारत से दुगनी होती...यह एक मनोरोग है जिसमें कई तत्व निर्धारक बनते हैं। फांसी कोई उपाय नहीं है...होता, तो अनादि काल से इतनी फांसियों के बाद हत्यायें नहीं होतीं...छात्रों के इस गुस्से के बाद भी बलात्कार रोज हो रहे हैं...कहीं कुछ गड़बड़ है...ओशो तो बालविवाह को भी यौनअपराधों को रोकने में बहुत बड़ा कारक मानते थे...योग और ध्यान जैसी भारतीय विधियों को यदि सर्वव्यापक बनाया जाता तो समाज में एक सामुहिक परिवर्तन आ सकता है। लेकिन तब भाजपा को फायदा हो जायेगा....यही मोमबत्ती उठाने वाले क्रांतिकारी युवा तब इन मुलायमों की कठपुतली बनकर, ऐसे माफियाओं के झण्डे-डन्डे क्यों उठाते हैं? कैन्डिल किसे दिखा रहे हो भार्ह! अन्धेरा तो ठीक मोमबत्ती के नीचे है...