कैसा नया साल ?


बदलते समय तथा दमघोंटू परिवेश के साथ हमारी परंपरायें तथा रीति रिवाज भी दम तोड़ने लगे हैं। समय का चक्र इतना तेज चल रहा है कि हम अपने नयी पीढ़ी के साथ कदमताल में कदम दर कदम पीछे ही जा रहे हैं। आज मोबाइल का जमाना है, कभी तार के माध्यम से संदेशों का आवागमन होता था। तब चिट्ठी पत्री, फिर रिसीवर क्रेडिल वाले टेलीफोन, फिर आये एक हाथ लम्बे वायरलैस टाइप मोबाइल। अब सीधा, सपाट, खीसे में समा जाने वाला रेपचिक मोबाइल फोन। चंद वर्ष पूर्व जब व्यक्ति नौकरी करने घर से दिल्ली या फिर अन्य महानगरों की ओर रूख करता था, तो लगभग पन्द्रह दिनों बाद उनका कुशल क्षेम भरा पत्र पढ़कर लगता था कि अमुक व्यक्ति फलां तारीख तक जीवित था। अब रास्ते में उसपर क्या गुजरी ज्ञात नहीं। आज का दौरा तूफान से भी तेज है, व्यक्ति कहां पर है, क्या कर रहा है, क्या खाया, कहां पर टायलेट की आदि आदि.....। तात्पर्य यह है कि पल-पल की खबर रखने वाले मोबाइल्स फोन ने दुनिया का कलेवर ही बदल लिया है। साथ ही बदली है मानसिकता। प्रेमी युगलों का प्यार जो आज एक फैशन बन गया है, परवान चढ़ाने में सेलफोन का बड़ा हाथ है। कहां पर सेंटिग करनी है, किधर डेटिंग करनी है, कहां फिक्सिंग और कहां इंडिंग होगी मोबाइल सब कुछ बिंगा रहा है। खास बात तो यह कि कई दिनों पर महज मोबाइल के जरिये बात करने वाला युगल अब प्यार की पींगे बढ़ा रहा है। और नया साल आते ही सेंटिंग-डेटिंग में, दूध-दारू में तथा पकौड़े मुर्गे में तब्दील होने लगे हंै।
महज बीस वर्ष पूर्व जब निरभाग मोबाइल का जमाना नहीं था, तब नया वर्ष मनाने के लिये लोग कई माह पहले से इंतजार करते थे। 31 दिसम्बर दिन में सभी अपने घरों में दाल के पकौड़े, पूरी, दाल रोट बनाते थे। रात होते ही गांव के सभी लोग एक जगह पर एकत्रित होकर आग जलाते थे। पुनः औजियों के ढोल दमाउं की धुन तथा मांगलगीतों के मार्मिक स्वरों के बीच लोग थड़िया, चैंफला नृत्य करते थे। और रात भर जागरण करके एक दूसरे के गले मिलकर बधाई देते थे। इस दौरान पुरूष और स्त्री रात भर एक दूसरे के सानिध्य में रहकर रात्रि जागरण करते थे। आज सब कुछ बदल गया है, स्त्री-पुरूष का एक जगह मिलने का अर्थ लोगों ने दूसरा ही निकालना प्रारम्भ कर दिया हैंै। ढोल-दमाउं के स्थान पर कानफोड़ू डीजे ने ले लिया है। वहीं दूध, तथा पकौड़े की जगह दारू-मुर्गा ने ले लिया है। घर से दूर शिक्षा के लिये गये कतिपय छात्र तथा छात्रायें नये वर्ष की पूर्व रात्रि पर पिकनिक प्वांइट पर जाकर या फिर  लाॅजों में जाकर हनीमून मनाते देखे गये हैं। साथ ही यह वर्ष ऐसा ही सुखमय बीते इस बात की एक दूसरे को शुभकामना भी प्रेषित करते हैं। घर से दूर जाकर प्रेमी युगलों को मखमली बुग्यालों में बियर तथा दारू गटकते भी देखा गया है। नशे में चूर-चूर होकर वे कब क्या कर गुजरते हैं, यह लड़की को दो माह बाद पता लगता है। तब प्रेमी उस लड़की से आजिज आकर नये की तलाश में भटकने लगता है। नया वर्ष में दारू-गुटखा न खाने का संकल्प लेने वाले लोगों को दो जनवरी से ही दारू में मस्त होते देखा गया है। संकल्प तो उनके लिये कोई  मायने नहीं रखता है। बकरों तथा मुर्गों की चीत्कार से नये वर्ष का प्रवेश कराने वाले तथाकथित लोगों को चाहिये कि वह गंदी आदतों को तजकर नयी आदतों से साक्षात्कार कर नया वर्ष मनायें । अब शहर में क्या हो रहा है, वह शहरी लोगों की मानसिकता है, लेकिन मुझे लगता है कि देवभूमि जैसे पहाड़ों में इस तरह के कृत्यों को अंजाम देने का हश्र क्या होता है, यह केदारनाथ त्रासदी सिद्ध कर चुकी है। अब देखना यह है इस त्रासदी से हम क्या सीख लेते हैं।