जीवित
हवनकुण्ड बन गया
केदारनाथ,
और निगल गया
हजारों अंकुर, कोंपल, तनों
चट्टानों को
पल भर में....
शिव के
कोप से उत्पन्न
जलकृत्या ने
उदरस्थ कर लिया
वर्तमान भविष्य के
ढ़ेर सारे सपने
बहुत सारे,
श्रद्धा विश्वास को...
क्रुद्ध भागीरथी ने
डुबो दिया,
आपदा प्रबंधन की
कागजी नावों को
सुरसा की
खोखली दीवारों को...
असमंजस की
प्रशासनीय सुस्ती ने,
खोल दी कलई
जन सुरक्षा की,
आपात योजना की....
जब सब कुछ
जमींदोज हो गया
चीख-पुकार, आर्तनाद से
पहाड़ का कलेजा,
दरक गया
तब पुट्टी से
दरार भरने के प्रयास में
शुरू हो गई
हवाई यात्रायें
खुल गया
मुआवजें का मुंह
शुरू हो गया
आश्वासनों, संवेदनाओं
आरोप-प्रत्यारोप का
राजनीतिक प्रहसन...
केदार त्रासदी ने
आंख में उंगली डालकर
जबरन जगाया
कुंभकरणों को
लेकिन ऊहापोह की
राजनीति में
शायद ही कोई
मुक्कमल पहल
सामने आ पायेगी
सारी कोशिशें
यूं ही लीपापोती में
दबी रह जायेंगी
फिर कहीं
फटेगा बादल
दरकेंगी चट्टानें
फुफकारेगी गंगा
फिर कहीं
पुनरावृत्ति होगी
किसी केदारनाथ की
हवन कुण्ड में
बदल जाने के लिये.....